(फिल्म अभिनेता शाहरुख खान)
भारतीय सिनेमा में संस्कृति और लोकसंस्कृति के तत्वों का फिल्म के कथानक के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जबकि हॉलीवुड सिनेमा के कथानक की धुरी है मासकल्चर। हॉलीवुड सिनेमा विश्वव्यापी अमरीकी ग्लोबल कल्चर के प्रचारक-प्रसारक की अग्रणी भूमिका अदा करता रहा है। जबकि भारतीय सिनेमा में पापुलरकल्चर के व्यापक प्रयोग मिलते हैं।
हॉलीवुड-बॉलीवुड उद्योग की इस प्रकिया में भारतीय सिनेमा ने खिचड़ी फिल्मी संस्कृति का निर्माण किया है। उसने भारतीय फैंटेसी का व्यापक प्रचार-प्रसार किया है। भारतीय फिल्मी फैंटेसी के चार प्रमुख क्षेत्र हैं, प्रेम, परिवार -समुदाय, राष्ट्र और गरीब। इन चारों के कथानक,विवाद और नज़ारे सबसे ज्यादा रचे गए हैं। भारतीय सिनेमा में भाषायी वैविध्य है साथ ही इसे अपने लिए देश और विदेश दोनों में स्थान बनाना होता है। इसके कारण सिनेमा में भाषायी -सांस्कृतिक सीमाओं का अतिक्रमण का भाव भी होता है। भाषायी और लोकल संस्कृति का अतिक्रमण करने के लिए भारतीय सिनेमा ,खासकर हिन्दी सिनेमा को अनेक चीजों का अतिक्रमण करना होता है।
हिन्दी सिनेमा मूलत: समग्रता में ‘महा- आख्यान’ नहीं बनाता। वह ऐसा कोई कथानक नहीं बनाता जो सब कुछ अपने अंदर समेटे हो। भारतीय सिनेमा में संस्कृति,इतिहास, व्यक्तित्वअभिनय और कथानक की इकसार अवस्था नहीं मिलती। इससे राष्ट्रीय विविधता को रुपायित करने और बनाए रखने में मदद मिली है। इस बिखरे फिल्मी संसार में सेतु का काम किया है पापुलर कल्चर ने (मासकल्चर नहीं) ।
पापुलरकल्चर के सेतु से गुजरने के कारण ही मुम्बईया सिनेमा की ‘फ्रेगमेंटरी ’और संवादमूलक प्रकृति है। भारतीय सिनेमा सांस्कृतिक विमर्शों को पैदा करता है।
हॉलीवुड का सिनेमा सुसंबद्ध ढ़ंग से पाठक को सम्बोधित करता है जबकि भारतीय सिनेमा दर्शक के अलावा सांस्कृतिक समूहों को सम्बोधित करता है। यही वजह है कि भारतीय सिनेमा जितना देश में देखा जाता है वैसे ही विदेश में भी देखा जाता है। देशी-विदेशी दर्शकों को आकर्षित करने में जिस तत्व का सबसे बड़ा रोल है वह है‘भारतीयता’, इस ‘भारतीयता’ का आधार राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक है।इसे साम्प्रदायिक राजनीतिक कैटेगरी के रुप में सांस्कृतिक आधार से संवाद करने के कारण ही हिन्दी सिनेमा और भारतीय सिनेमा विदेशों में सभी को अपील करता है। यह ऐसे आप्रवासी की भारतीयता है जो नागरिकता के प्रपंचों से मुक्त है। इस भारतीयता की अपील उन लोगों में जो अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटे हुए हैं। इस भारतीयता का आधार है जीवनशैली और संस्कार।
फिल्म की कहानी का विधा रुप में उद्योग,बाजार और राजनीति से गहरा संबंध होता है। विधा के साथ उद्योग और बाजार की शक्तियों की सक्रियता का जो रुप यहां मिलता है वह अन्यत्र कम देखने को मिलता है। हमें विधा की अवधारणा के फिल्म में रुपान्तरण को आलोचनात्मक नजरिए से देखने की जरुरत है। विधा यहां अमूर्त्त कोटि नहीं है। बल्कि विधा की सांस्कृतिक एजेण्ट के रुप में महत्वपूर्ण भूमिका है। भारतीय समाज में अस्मिता के रुपों को परिभाषित करने वाली कोटि भी यही है। फिल्मी कहानी सांस्कृतिक उत्पादन पर चलने वाली सामयिक बहसों का केन्द्र बिंदु है। यह समाज में सक्रिय सांस्कृतिक-सामाजिक संवृत्तियों को अप्रत्यक्ष रुप से प्रभावित करने वाला महत्वपूर्ण विधा रुप है।
फिल्मी कहानी सांस्कृतिक मार्ग है। हम जब भी किसी फिल्मी कहानी देखें तो पहले उसके पैराडाइम को देखें। फिल्मी कहानी का पैराडाइम उसके अंदर से खोजना चाहिए ऊपर से फिल्मी कहानी गैर-समस्यामूलक संदर्भ में तैयार की गई होती है। लेकिन उसकी हमेशा कोई मंशा होती है जिसे तयशुदा मानकों के आधार पर ही पढ़ा जा सकता है। मसलन् हाल ही में रिलीज की गई फिल्म ‘माई नेम इज खान’ को ही ले सकते हैं, यह अमेरिकी विदेश नीति के फ्रेमवर्क में निर्मित फिल्म है। शाहरुख खान का बयान ‘माई नेम इज खान आई एम नॉट ए टेररिस्ट’,यह वक्तव्य बार-बार भिन्न संदर्भ में शाहरुख खान देता है और बड़े ही कौशल के साथ भारत के साम्प्रदायिक संदर्भ को भी इसमें शामिल कर लिया गया है।
शाहरुख खान का बयान असाधारण ढ़ंग से रुपक मडरॉक के ‘न्यूज कारपोरेशन’ के 9 / 11 के संदर्भ में किए गए व्यापक मुस्लिम विरोधी प्रचार अभियान के फ्रेमवर्क का हिस्सा है। इस बयान की तमाम विचारधारात्मक जटिलताएं तब ही खुलेंगी जब हम अमेरिकी विदेश नीति के सामयिक मुस्लिम विरोधी पैराडाइम से वाकिफ हों।
उल्लेखनीय है कि हिन्दी सिनेमा में ‘तेजाब’ फिल्म के साथ मुस्लिम विरोधी नजरिए का प्रवेश होता है। इस फिल्म के साथ ही मुसलमान को विलन के रुप में व्यापक कवरेड मिलता है। मुसलमान के नकारात्मक कवरेज को ‘गदर’ फिल्म वे नयी ऊँचाईयों पर पहुँचाया, शाहरुख कान की नयी फिल्म ‘माई नेम इज खान’ इसी सिलसिले की ओबामा प्रशासन की विदेशी नीति के फ्रेमवर्क में तैयार की गई फिल्म है।
इसी प्रसंग में दर्शकों के साम्प्रदायिकीकरण की प्रक्रिया पर भी हमें ध्यान देने की जरुरत है। वे फिल्में दर्शक जुगाड़ नहीं कर पातीं जो धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक फिल्में हैं, इसके विपरीत साम्प्रदायिक और राष्ट्रवादी नजरिए की फिल्में हिट जाती हैं। फिल्में स्वतः ही दर्शक नहीं बनातीं बल्कि उनके दर्शक सचेत ढ़ंग से बनाए जाते हैं। हमें देखना चाहिए कि हिन्दी सिनेमा ने किस तरह का दर्शकवर्ग तैयार किया है।साथ ही यह भी देखना चाहिए कि टेलीविजन के द्वारा किस तरह का दर्शकवर्ग तैयार किया जा रहा है। कहीं दर्शकवर्ग के चरित्र को टेलीविजन ने तो प्रभावित नहीं किया है ?
( हैदराबाद स्थित अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के द्वारा 24 और25 मार्च 2010 को आयोजित सेमीनार में सिनेमा और संस्कृति विषय पर दिए भाषण पर आधारित संशोधित आलेख)
nice
जवाब देंहटाएंLekh padha. Isase poorva ise IFL University mein suna. Accha laga. Yadi samaj se bhranti door nahi ki gayee to paschim aur amerika apni neeti mein kamiyab avashya honge aur ham mansik gulam hokar kahin ki na rah payenge.
जवाब देंहटाएंSyed Masoom Raza