एक पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को निर्णयकारी विधायी निकायों में सुनिश्चित प्रतिनिधित्व की कोई व्यवस्था हो और सामाजिक नैतिकता के कई स्वघोषित ठेकेदार ताल ठोक कर मैदान में न उतरे, यह कैसे संभव है। इसके अलावा अखबारनवीसों के लिये तो यह उनके बाजार का भी मामला है। पुरुष वर्चस्ववादियों के एक आरक्षित बाजार को भुनाने के लोभ का भला कैसे संवरण किया जा सकता है! याद आता है 1987 का देवराला सतीकांड। तनाव और विवाद के उस दौर में रूढि़बद्ध समाज के तैयार बाजार को भुनाने में तब नागरिक अधिकारों के मामले में काफी सचेत समझे जाने वाले संपादक–पत्रकार तक पूरे उत्साह के साथ उतर पड़े थे। वैसे ही आज महिला आरक्षण विधेयक में भी कईयों को अपनी सूखती कलम को गीला करने का स्वर्णिम अवसर दिखाई दे तो अचरज क्या! मंदी का जमाना है। इनके दुखों का वैसे ही कोई पाराबार नहीं है। वे जिस ‘समाजवादी’ परंपरा के स्वनियुक्त प्रवक्ता बने हुए हैं, उस परंपरा की महिला आरक्षण के विरोध में अपने प्राणों की आहुति तक देने को तैयार नेताओं की पार्टियां, उन्हीं के शब्दों में ‘बौद्धिक कामों से परहेज’ करती हैं। इसीलिये इन प्रवक्ताकांक्षी विचारकों के लिये अवसर ही कहा है!
बहरहाल, समाज में महिलाओं के समान अधिकारों की लड़ाई का इतिहास इतना लंबा और इतनी ज्यादा यातनाओं, वेदनाओं, तिक्तताओं तथा कटुताओं से भरा हुआ है कि उनके सामने ‘जनसत्ता’ के पृष्ठों पर महिला आरक्षण विधेयक के ऐसे ‘सख्त विरोधियों’ की तमाम उकसावा भरी दलीलें परले दरजे के बचकानेपन से ज्यादा और कुछ प्रतीत नहीं होती है। इनकी तमाम बातों से मुझे याद आती है उस अनोखे छोटे से पर्चे की बात, जिसे 1919 में संयुक्त राज्य अमेरिका के नेबरास्का राज्य में कथित तौर पर महिलाओं की ओर से ही जारी किया गया बताया जाता है। नेबरास्का अमेरिका के उन राज्यों में से एक है जिसने अपने देश में बिल्कुल अंत में महिलाओं को मतदान का अधिकार दिया था। जिस समय नेबरास्का में औरतों को मतदान के अधिकार के बारे में कानूनी दावपेंच चल ही रहे थे, उसी समय अमेरिकी सिनेट ने मतदान के अधिकार पर प्रस्ताव पारित करके अमेरिका के सभी 36 राज्यों को संविधान में इस संशोधन को अनुमोदित करने के लिये भेज दिया था, जिसे बाद में 1919 के अगस्त महीने में नेबरास्का की विधायिका ने अनुमोदित किया। अंतत:, अमेरिका में महिलाओं को मतदान का अधिकार 26 अगस्त 1920 के बाद ही मिल पाया।
जो भी हो, अमेरिका में महिलाओं को मतदान के अधिकार संबंधी विवाद के उस काल में जारी किये गये उपरोक्त पर्चे का शीर्षक था वे दस कारण, क्यों औरतों का भारी बहुमत मतदान करना नहीं चाहता‘। इस पर्चे में इसके लिये गिनाये गये कारणों में कहा गया था : क्योंकि, उनका अपने पिताओं, पतियों, बेटों तथा भाइयों पर से विश्वास खत्म नहीं हुआ है जो उन्हें पूरी सुरक्षा प्रदान करते हैं और इसकी कोई वजह नहीं कि उन्हें इस काम से मुक्त किया जाएं; क्योंकि, महिलाएं जान रही है कि जब वे मतदाता बन जायेगी तब उन्हें पंच की भूमिका का पालन करना पड़ेगा और हत्या के मुकदमों तथा अकथनीय दुष्टताओं को उजागर करने वाले दूसरे अपराधों के मुकदमों की अरुचिकर बातों को सुनना पड़ेगा। हर साधारण औरत को पंचायती का काम नापसंद है; क्योंकि, राजनीतिक गतिविधियों में लगातार झगड़े, झंझट, खुशी और तिक्तता लगे रहते हैं, जिनसे हर साधारण औरत स्वाभाविक तौर पर दूर रहना चाहती है; क्योंकि, सरकार का उद्देश्य लोगों की और संपत्ति की रक्षा है। प्रकृति ने यह कत्र्तव्य पुरुषों को सौंपा है, औरतों के लिये प्रकृति से ही यह काम करना असंभव है; क्योंकि, औरतें जब शोरशराबें के साथ सरकारी पद के लिये प्रतिद्वंद्विता करेगी, औरत औरत के खिलाफ खड़ी हो जायेगी, तब वे औरत मात्र को दोषी बतायेगी, जिसका सभी सद्बुद्धिसंपन्न औरतें विरोध करती हैं; क्योंकि, औरतें आदेश के बजाय समझा–बुझा कर ज्यादा काम कर सकती है; क्योंकि, औरतों को मताधिकार घर में शांति और सद्भाव को नहीं बढ़ायेगा, उल्टे प्रचार अभियान की गर्मी में यह निश्चित तौर पर मतभेद और दुर्भावना पैदा करेगा; क्योंकि, नेबरास्का की औरतों को कानून के अन्र्तगत दूसरे राज्यों की तुलना में, जहां उन्हें मतदान का अधिकार मिला हुआ है, कहीं ज्यादा सुरक्षा और सुविधा प्राप्त है; क्योंकि, महिला श्रमिक आराम और शांति चाहते हैं – राजनीतिक उत्तेजना नहीं।
अब देखिये, भारत में औरतों के लिये आरक्षण के ‘सख्त विरोधी’ राजकिशोर ‘जनसत्ता’ के ‘महिला आरक्षण के सख्त विरोध में’ लेख में अपने विरोध के क्या कारण बताते हैं? इस पूरे लेख को ध्यान से पढ़ने पर पता चलेगा कि वे इस विधेयक का इसलिये विरोध कर रहे हैं क्योंकि, इसे लेकर महिलाओं का उत्साह अश्लील दिखाई देता है, यह विधेयक राजनीति का चरित्र बदले न बदले, स्त्रियों का चरित्र जरूर बदल देगा, अब वे अपने स्त्रीत्व के बल पर वीभत्स और दयनीय प्रतिद्वंद्विता करेगी ; क्योंकि, विधायिका में पिछड़ी जातियों और दलितों की बेशी संख्या आने से बेईमानी और सत्तावाद बढ़ा है, उसीप्रकार महिलाओं के आने से भी बेईमानी और सत्तावाद बढ़ेगा ; क्योंकि, इस विधेयक के जरिये पैसा, पद और पावर से मिल कर बने दोजख के दलदल में महिलाओं को धकेल दिया जायेगा; क्योंकि, महिलाएं भी चुन कर जनता की कमाई हड़पने के पाप में लग जायेगी और कुल मिला कर यह उन्हें लोभी और छलात्कारी पुरुष की भ्रष्ट बिरादरी में शामिल कर देगा ; क्योंकि, राजनीति में आरक्षण की मांग संविधान और जनता के साथ खुल्लमखुल्ला बलात्कार करने वालों के नापाक क्लब में शामिल होने की मांग है ; क्योंकि, राजनीति का मतलब सेवा करना है और सेवा के लिये विधायिकाओं में जाने की बात बदनीयती से भरी हुई है, इसीलिये महिला आरक्षण विधेयक राजनीति की पतित परिभाषा को ही स्वीकृति है।
लगभग अढ़ाई सौ साल पहले महिलाओं को मनुष्य मानने की आवाज उठाने वाली मेरी वालस्टोनक्राफ्ट को ‘घाघरे में मादा लकड़बग्घा’ बताने वालों और नेबरास्का में मताधिकार से घबड़ाई हुई कथित अधिकांश औरतों की चिंताओं तथा राजनीतिक तौर पर सशक्त महिलाओं के प्रति राजकिशोरजी की भावनाओं और आरक्षण से भारत की औरतों के सतीत्व की रक्षा की उनकी चिंताओं में कैसा अद्भुत साम्य है!
‘जनसत्ता’ में इसी श्रंखला के दूसरे लेख मस्तराम कपूर के ‘महिला आरक्षण पर कुछ सवाल’ को देखिये। खुद को सुकरात की तरह सदा सच का हिमायती बताने वाले कपूर जी इस विधेयक को सवर्णों की कारस्तानी मानते हैं। उनके अनुसार राजनीतिक आरक्षण गुलामी की निशानी है, अर्थात्, महिला आरक्षण का अर्थ है देश की गुलामी। विधायिकाओं में आरक्षण के खिलाफ वे पूरी साठ करोड़ महिलाओं की शक्ति को झोंकते हुए कहते हैं कि सामाजिक आरक्षण के बजाय इस राजनीतिक आरक्षण से साठ करोड़ महिलाओं की उपेक्षा और चंद हजार का सशक्तीकरण होगा। इस उन्माद से बड़ा मानवाधिकारों के लिये मजाक और क्या हो सकता है। कपूर जी के लिये यह आरक्षण एक जाति व्यवस्था है। जाति व्यवस्था में जैसे मुट्ठी भर लोग बहुसंख्यकों के अधिकारों को हड़प लेते हैं, उसी प्रकार साठ करोड़ महिलाओं के अधिकार को छीन कर डेढ़ हजार महिलाओं को दिया जा रहा है। उत्तेजना के चरम पर जाकर वे इस आरक्षण को ‘एक राजनीतिक डकैती’ तक कह डालते हैं।
महिला आरक्षण–विरोधी ऐसे सभी ‘सुकरातों’ से हमारा सबसे पहला निवेदन तो यह है कि ऐतिहासिक चरित्रों का नामोल्लेख करने वालों से हम न्यूनतम इतिहास बोध की भी अपेक्षा रखते हैं। महिलाओं में राजनीतिक शक्ति न्यस्त की जाए – यह कोई सिफर् भारतीय मामला नहीं है। यह भारत के सवर्णों द्वारा ‘राजनीतिक डाके’ की साजिश नहीं, बल्कि 60 वर्षों से भी ज्यादा समय से सारी दुनिया के जनतांत्रिक प्रशासनिक निकायों की एक साझा चिंता का विषय है। 1952 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने महिलाओं के राजनीतिक अधिकार पर अन्तरराष्ट्रीय कन्वेंशन तैयार किया था और संयुक्त राष्ट्र की सामाजिक आर्थिक परिषद ने 1995 तक प्रत्येक देश की सभी नीति–निर्धारक संस्थाओं में महिलाओं की संख्या को तीस प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य घोषित किया था। 1995 के बीजिंग विश्व महिला सम्मेलन में चर्चा का मुख्य विषय ही यह था कि दुनिया के पैमाने पर महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण की स्थिति की समीक्षा करते हुए संयुक्त राष्ट्र के घोषित लक्ष्य को हासिल करने के लिये भविष्य का रास्ता निर्धारित किया जाए।
जहां तक भारत का सवाल है, महिला सशक्तीकरण का विषय, यहां तक कि राजनीतिक सशक्तीकरण भी यहां के राजनीतिक विमर्श में कोई अचानक ही उत्पन्न नहीं हुआ है। लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव न करने की बात तो आजाद भारत के संविधान का एक अभिन्न हिस्सा रहा है। गांधीजी ने कहा था कि महिलाओं को मतदान का अधिकार तथा समान वैद्यानिक अधिकार निश्चित तौर पर होना चाहिए, लेकिन समस्या यहीं समाप्त नहीं होती है, बल्कि जब महिला राष्ट्र के राजनीतिक विमर्श को प्रभावित करना शुरू करती है, वहां से शुरू होती है। 1974 में तैयार की गयी भारत की महिलाओं की स्थिति के बारे में स्टेटस रिपोर्ट में एक पूरा अध्याय ही महिलाओं की राजनीतिक स्थिति के बारे में हैं। इसमें निष्कर्ष के तौर पर समाज में महिलाओं की बुरी स्थिति के लिये तीन चीजों को जिम्मेदार बताया गया था, उनमें उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के साथ ही राजनीतिक स्थिति को भी रेखांकित किया गया और इससे उबरने के लिये विधायी निकायों में आरक्षण के बारे में कहा गया कि असमानता के वर्तमान ढांचे को तोड़ने का इस प्रकार का संक्रमणकालीन कदम लिंग की समानता तथा जनतांत्रिक प्रतिनिधित्व के सवाल की दृष्टि से कोई पश्चगामी कदम नहीं होगा, बल्कि यह वर्तमान व्यवस्था की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से समानता और जनतंत्र के दूरगामी लक्ष्यों की सेवा कर सकेगा।
महिला आरक्षण के ये ‘सख्त विरोधी’ आरक्षण के जरिये दुष्ट बना दी जाने वाली नारी के स्थान पर अपनी कल्पना की जिस ‘उत्कृष्ट’ नारी के आदर्श रूप की छटा बिखेरते हैं, उसके बारे में अढ़ाई सौ वर्ष पहले वालस्टोनक्राफ्ट ने लिखा था कि दरअसल, स्त्री–उत्कृष्टता की भ्रांत धारणाएं स्त्रियों को इतना नीचे गिरा देती है कि यह कृत्रिम निर्बलता उनमें निरंकुशता की प्रवृत्ति पैदा करती है और शक्ति की स्वाभाविक विरोधी, चालाकी को जन्म देती है, जो उन्हें ऐसी घृणित बचकानी अदाएं दिखाने की ओर ले जाती है जो देखने वालों में कामना भले ही जगाती हो पर स्त्रियों की गरिमा घटाती ही है। मेरी का कहना था कि ऐसे पूर्वग्रहों को पोषित मत कीजिये कि वे जीवन में अधीनस्थ ही सही, पर सम्मानजनक स्थिति अर्जित कर लेगी।
1974 की स्टेटस रिपोर्ट, 1988 की राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना की संस्तुतियां और फिर 1995 में राष्ट्रीय महिला कन्वेंशन के प्रस्ताव में विधानसभा और संसद में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग के साथ ही व्यवहार के धरातल पर पंचायती राज संस्थाओं और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत आरक्षण के तमाम अनुभव– इन सबसे पूरी तरह आंख मूंद कर आधारहीन आशंकाओं के आधार पर थोड़े से अदूरदर्शी, परिवारवादी और स्वार्थी जातिवादी नेताओं की झूठी बातों के ये प्रचारक दरअसल किसी ‘समाजवादी’ धारा का प्रतिनिधित्व नहीं करते। अक्सर ये भारत के राष्ट्रनिर्माताओं की दुहाई देते हुए पाये जाते हैं। उनकी जानकारी के लिये, सन् 1931 में भारत के नये संविधान की रचना के लिये लंदन में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा बुलाये गये दूसरे गोलमेज सम्मेलन में गांधीजी ने कहा था कि–‘‘मैं उस विधायिका का बहिष्कार कर दूंगा जिसमें महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त न हो।‘‘ गांधीजी का बड़ा प्रसिद्ध कथन है,‘‘जब अबला सबला बन जायेगी तभी सभी वंचित लोग शक्तिशाली बन जाएंगें।‘‘
डा. राममनोहर लोहिया भी अपने आजाद भारत में स्त्री–पुरुष समानता को अपना सबसे बड़ा ध्येय मानते थे। उनका कथन था, आजाद हिंदुस्तान में हर आदमी राजा होगा, मर्द भी और औरतें भी। औरतें भी अपने हक से राजा होगी, राजा की पत्नी होने के नाते रानी नहीं।
संसद में जब हिंदू कोड बिल पर बहस चल रही थी, तब उस बिल के विरोधियों ने समान नागरिक संहिता की मांग उठाई। इसका जवाब देते हुए डा. अंबेडकर ने कहा था, मुझे यह देख कर बहुत आश्चर्य हो रहा है कि कल तक जो लोग इस कानून के सर्वथा विरोधी थे तथा प्राचीन हिन्दू कानून, जो आज भी मौजूद है, के प्रवक्ता थे, वे ही आज यह कह रहे हैं कि वे एक भारतीय नागरिक संहिता के लिये तैयार हैं। कहावत है कि चीते के शरीर से धब्बे कभी दूर नहीं होते, और मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि वे चीते जो इस विधेयक पर लगातार झपे मारते रहते थे, वे अब मानसिक रूप से बदलकर इतने क्रांतिकारी होगये हैं कि बिल्कुल एक नयी संहिता को मानने के लिये तैयार है।
अंबेडकर के उपरोक्त कथन से महिला आरक्षण विधेयक के संदर्भ में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का झंडा उठाने वालों की सूरत पर भी रोशनी गिरती है। सचाई यही है कि इस विधेयक के कथित ‘सख्त विरोधियों’ का विचारों की किसी आधुनिक आदर्शवादी परंपरा से कोई नाता–रिश्ता नहीं हो सकता।
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