मंगलवार, 23 मार्च 2010

स्त्री की भिन्नता का आख्यान



           स्त्री और पुरूष एक प्रतीक व्यवस्था बनाते हैं जिसमें भाषा संरचना है। जिसके अनेक दरवाजे है,अनेक खिड़कियां हैं। अनेक तरीके हैं। यहां पर विषय को सेक्स को प्रतीक व्यवस्था के तहत या अन्य रूप में देख सकते हैं।
भाषा शिश्नकेन्द्रित इसलिए रही है क्योंकि लिंग उसका आधार है। शब्दों में उसे व्यक्त करते हैं। इसी कारण शिश्नकेन्द्रित भाषा या पुंसवादी नाम दिया गया। देरीदा का विचार है कि वाचिक शब्द का लिखित शब्द से ऊपर दर्जा है। इसी कारण शब्दकेन्द्रित भाषा पदबंध का प्रयोग होता है।
       सिकसाउस और इरीगरी ने शिश्नकेन्द्रित और शब्दकेन्द्रित इन दोनों को मिलाकर 'शिश्नवाक् केन्द्रित ' भाषा नाम दिया। जो वायनरी अपोजीशन पर आधारित है। इसमें पहला शब्द दूसरे की तुलना में मूल्यवान होता है। सिकसाउस और इरीगरी दोनों ने ही यह रेखांकित किया कि मूल्यवान् शब्द दूसरे पर निर्भर हैं। मसलन् मर्द/ औरत, व्यवस्था / अव्यवस्था या अराजकता, भाषा / चुप्पी , उपस्थिति / अनुपस्थिति, वाचन/ लेखन , प्रकाश / अंधेरा, अच्छा/ बुरा आदि। इनकी एक-दूसरे पर निर्भरता ही पश्चिमी विचारों की धुरी है।
     सिकसाउस ने लाकां की इस धारणा का इस्तेमाल किया है कि बच्चे को अपनी प्रतीकात्मक पहचान बनाने के लिए माँ के शरीर से अलग होना होता है।यही वजह है कि स्त्री का शरीर भाषा में दिखाई नहीं देता। सिकसाउस इस क्रम में माँ के शरीर से औरत के शरीर,स्त्री के शरीर से स्त्री की कामुकता की ओर लम्बी छलांग लगाती है।इसी के आधार पर कहती है स्त्री की कामुकता और स्त्री का कामुक आनंद शिश्न वाक् केन्द्रित भाषा में व्यक्त नहीं हो पाता।इन दोनों को हमेशा शिश्न के संदर्भ में मर्द के संदर्भ में ही परिभाषित किया गया
       स्त्री की भी कल्पना होती है,उसका अपना स्वायत्त संसार होता है।वह फैंटेसी की इमेजों के करीब होती है। उसके बारे में प्रतीकात्मक रूप से कुछ बातें तय हैं। इसके बावजूद वह तरल है, फैलती है, पुरूष की तुलना में कम स्थिर है।
         हेलिनी यह मानकर चलती है कि पाठक जानता है कि स्त्री की कामुकता के बारे में फ्रॉयड और लाकां के क्या विचार थे। उसके लेखन के दो स्तर हैं। पहला वह हमेशा रूपक में लिखती है और रूपक में ही बोलती है। इस क्रम में व्यक्ति और संरचना इन दोनों को सम्बोधित करती है। उसने लेखन की हस्तमैथुन से तुलना की है। जो औरतों में गुप्त होता है। शर्मनाक माना जाता है। बचकाना माना जाता है। कुछ ऐसा माना जाता है जिसे वयस्क नहीं करते। वयस्कता हासिल करने के लिए उसको अस्वीकार करना जरूरी है।यह वैसे ही है जैसे योनि की अनुभूतियों को वयस्क कामुकता की गर्भ की पुनरूत्पादक क्षमता के लिए अस्वीकार किया जाए।
     यदि वायनरी अपोजीन के अर्थ में मर्द की कामुकता को परिभाषित किया जाएगा तो मर्द प्रतीक व्यवस्था के दायरे में ही कैद रहेगा। स्त्री के सामने दो तरह के शोषण के रूप है पहला है पितृसत्ता का शोषण,दूसरा है नस्लीय शोषण। जिसे भारत में जाति और धर्म के शोषण के रूप में भी जानते हैं।
स्त्री अनेक मर्तबा बोलती हैं और लिखती भी हैं। किन्तु मर्द के नजरिए से। पुंस व्यवस्था तयशुदा है अत: अधिकांश औरतें उसे सहज ही स्वीकार कर लेती हैं। ऐसी औरतों के लेखन में स्त्रीत्व और स्त्री जैसी कोई चीज नहीं होती। प्रतीकात्मक व्यवस्था में लेखन हमेशा रेखांकित किया जाता है। स्त्री ही स्त्री लेखन कर सकती है क्योंकि स्त्री लेखन स्त्री शरीर के माध्यम से ही भाषा के रूप में जन्म लेता है। भाषा में पहला पदबंध सीमित और दूसरा असीमित अर्थ की व्यंजना करता है। जैसे एक-अनेक,सम-भिन्न, आदि।इसमें पहला पदबंध अच्छे और दूसरा बुरे की कोटि में आता है। जो अच्छे की कोटि में आते हैं वे मर्द हैं ,निश्चित हैं,व्यवस्था है,और जो बुरे की कोटि में आती है वह औरत है,अनिश्चित है, प्रकृति है। देरीदा के वायनरीवाद की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसने इसकी कोई सकारात्मक ज्ञानमीमांसा निर्मित नहीं की।बल्कि इस क्षेत्र में नकारात्मक ढ़ंग से काम किया। जो शब्द मूल्यवान् थे उन्हें नकारात्मक रूप में व्याख्यायित किया। उन्हें मातहत के अन्तर्विरोध के रूप में पेश किया।
      जबकि शब्दों का इतिहास बताता है कि शब्दों की परिभाषा हमेशा तुलनात्मक रूप में सकारात्मक दिशा में अपना विकास करती है। विखंडन की भाषा रणनीति अंतत: पराभौतिक पदबंधों के वायनरी अपोजीशन के द्वारा निर्धारित अर्थों को भी अस्त-व्यस्त कर देती है। विखंडनवादी रणनीति उनके लिए फायदेमंद हैं जो हाशिए पर हैं,स्त्री आन्दोलन में काम कर रहे हैं,स्त्रीवादी साहित्य विमर्श में लगे हैं।वह जाति,धर्म,स्त्री आदि के अब तक के प्रचलित विमर्शों को धराशायी कर देती है।
        फ्रांसीसी स्त्रीवाद में सीमोन पहली चिन्तक थी जिसने 'सैकिण्ड सेक्स' में स्त्री को अदर या अन्या के रूप में व्याख्यायित किया। स्त्री और पुरूष के बीच के भेदभाव को पैदा करने में पितृसत्ता की भूमिका के विविध आयामों को विस्तार से खोला।पितृसत्ता की दोगली भूमिका को उजागर किया। जबकि लूस इरीगरी ने रेखांकित कि औरत को पितृसत्ता के दोगले चरित्र के तहत नहीं खोजना चाहिए।वह तो अन्यत्र रहती है। वह पितृसत्ता के बाहर थी इसीलिए बच गयी है।
      पितृसत्ता का वैचारिक ढांचा तो एक रूप,एक ही विचारधारा, एक ही मूल्य और एक ही सेक्स की बातें करता रहा है। जबकि स्त्री का सारा संसार ही अलग है। वह जहां आज दिखाई दे रही है,अस्तित्ववान है,उसका प्रधान कारण ही यही है कि वह पितृसत्ता और वायनरी अपोजीशन के बाहर अवस्थित है। इसी अर्थ में इरीगरी ने लिखा कि स्त्री एक नहीं अनेक है।एकत्व के नाम पर स्त्री की पहचान पुरूष में समाहित नहीं की जा सकती और स्त्री के वैविध्य को ही नकार सकते हैं। स्त्री को समत्व में समाहित करना पुंसवादी विचार है। स्त्री भिन्न है, उसकी भिन्नता ही उसकी शक्ति है। भिन्नता के आधार पर ही वह अपना अस्तित्व बचाए रखने में समर्थ रही है। कामुक भिन्नता को जो लोग नहीं मानते वे असल में पुंसवाद की ही वकालत करते हैं।






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