भारतीय सिनेमा में सांस्कृतिक संवाद का मूलाधार है आनंद। इसके तीन मुख्य तत्व हैं, ये हैं, भारतीय संस्कार, गाने और संगीत। ये तीनों ही तत्व मिश्रित संस्कृति का रसायन तैयार करते हैं। मिश्रित संस्कृति का संचार करने के कारण ही हिन्दी की फिल्में किसी भी विकसित और अविकसित पूंजीवादी मुल्क से लेकर समाजवादी सोवियत संघ तक में कई बार वर्ष की सर्वोच्च 10 या 20 फिल्मों में स्थान बनाती रही हैं। सांस्कृतिक बहुलतावाद की लोकतांत्रिक भावबोध के साथ जैसी सेवा हिन्दी सिनेमा ने की है वैसी सेवा हॉलीवुड भी नहीं कर पाया। यही वजह है कि बॉलीवुड का हिन्दी सिनेमा शीतयुद्ध के समय में हॉलीवुड के सामने चट्टान की तरह अड़ा रहा। पूरे शीतयुद्ध के दौरान हॉलीवुड सिनेमा ने दुनिया के अधिकांश देशों के सिनेमा उद्योग को बर्बाद कर दिया। किंतु भारत में उसे पैर जमाने में सफलता नहीं मिली।
द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर दौर में भारत का एक बड़ा फिनोमिना है आप्रवासी भारतीय। इसमें विविध किस्म के भारतीय हैं और ये अमेरिका से दक्षिण अफ्रीका,मारीशस से कैरिबियन देशों ,मध्यपूर्व के देशों से लेकर समूचे यूरोप तक फैले हैं। इनमें भारत की जातीय-सांस्कृतिक विविधता साफ नजर आती है। हम यह भी कह सकते है कि भारतीय संस्कृति का इन लोगों के कारण विश्वव्यापी प्रसार हुआ है। यही वह बुनियादी कारक है जिसके कारण हिन्दी फिल्मों में आप्रवासी एशियाई संस्कृति की व्यापक अभिव्यक्ति होती रही है। आप्रवासियों का अपनी संस्कृति से प्रेम ही है जो ‘प्राचीन भारत’ से जोड़े रखता है। इस कार्य में भारत की फैंटेसी,संस्कार,यथार्थ,गाने आदि का व्यापक इस्तेमाल किया जाता है।
उल्लेखनीय है आप्रवासी भारतीयों दोहरे दबाब में हैं,एक तरफ वे अपने काम की जगह पर आए दिन भेदभाव के शिकार होते रहते हैं और दूसरी ओर प्राचीन भारत की उम्मीदें उन्हें घेरे रहती हैं। यही वजह है कि आप्रवासी भारतीय भारत में बनी फिल्में खूब देखते हैं, यह काम वे आजादी के पहले से कर रहे हैं। हाल के वर्षों में ग्लोबल भारतीय सिनेमा में वितरण, माइग्रेसन और स्थानीयतावाद का प्रवेश हुआ है।
सिनेमा ने बड़े पैमाने पर साहित्य खासकर कथा साहित्य का उपयेग किया है। सिनेमा और उपन्यास के बीच किस तरह का आदान-प्रदान हो रहा है और हमें उसके कारण किस तरह के साहित्यिक परिवर्तनों को देखना पड़ा है यह चीज हमारी आलोचना की आंखों से ओझल रही है। हमारे आलोचकों ने सिनेमा के कथा साहित्य और सामान्यतः साहित्य पर पड़ने वाले प्रभाव की अनदेखी क्यों की यह तो वही जानें किंतु इस प्रसंग में कुछ बातों की ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ।
सिनेमा का सीधा प्रधान असर यह हुआ है कि कलाओं और साहित्य के प्रचलित वर्गीकरण गड़बड़ा गए हैं,अप्रासंगिक हो गए हैं। अब आधुनिकतावाद और आधुनिकता पर कोई भी बहस सिनेमा और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के प्रभाव का अध्ययन किए बिना नहीं कर सकते। हिन्दी आलोचना में इस मसले पर जितनी भी बहस है वह सिर्फ साहित्य को केन्द्र में रखकर चली है,आधुनिकता के आख्यान के कारक तत्वों का एक बड़ा हिस्सा साहित्येतर संचार रुपों में विकसित होता रहा है। हम भूल ही गए कि सिनेमा ने आधुनिक संस्कार,आचार-व्यवहार और एटीट्यूट बनाने में केन्द्रीय माध्यम की भूमिका अदा की है।
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