व्यक्ति की स्वायत्तता के लिए 'स्व' से प्रेम करना, 'स्व' की केयर करना, 'स्व' के हितों को सर्वोपरि स्थान देना और जिम्मेदार नागरिक के रूप में सामाजिक भूमिका अदा करना जरूरी है। 'स्व' पर जोर देने का अर्थ है परंपरा के प्रति आलोचनात्मक होना। आलोचनात्मक परंपरा का निर्माण करना। आलोचनात्मक परिवेश का निर्माण करना। 'स्व' का सौन्दर्यीकरण करना। स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ विवेकवादी या शुद्धतावादी और सार्वभौम नैतिकतापंथी होना नहीं है। स्वातंत्र्योत्तर भारत का स्वतंत्रता के अलावा दूसरा बड़ा पैराडाइम है भारत-विभाजन। तीसरा पैराडाइम है आपात्काल और चौथा पैराडाइम है भूमंडलीकरण और इंटरनेट संस्कृति।
हिन्दी में स्वतंत्रताबोध के अभाव का आजादी के आन्दोलन की फैंटेसी और भारत-विभाजन की त्रासदी के साथ गहरा संबंध है। भारत विभाजन धर्म आधारित राजनीति की सबसे भयावह परिणति था। जिसमें लाखों निर्दोष लोग मारे गए। धर्मकेन्द्रित राजनीति के द्वारा स्वाधीनभाव का जिस तरह अपहरण किया गया और भारत विभाजन हुआ उसका सबसे गंभीर परिणाम यह निकला कि स्वतंत्रता को नकारात्मक और समस्यामूलक मान लिया गया। अराजकता का प्रतीक मान लिया गया।
स्वाधीनता के गर्भ से पैदा हुआ भारत विभाजन सबसे बड़ा अविवेकपूर्ण राजनीतिक फैसला था। इसका चेतना पर यह असर हुआ कि धार्मिक और पश्चिमी ताकतों की शक्ति के बारे में आम लोगों के जेहन में डर बैठ गया। यह मान लिया गया कि धार्मिक और पश्चिमी ताकतें सब कुछ करने में सक्षम हैं और उनका ही वर्चस्व है।
भारत विभाजन ने भारतीय जनमानस में धार्मिक तत्ववादी और पश्चिम परस्त चिन्तन का सामाजिक आधार तैयार किया। स्वतंत्रता और विज्ञान सम्मत चेतना का आधार कमजोर हुआ। यह मान लिया गया कि भारत विभाजन के बारे में तो लोग सब कुछ जानते हैं। अब बताने लायक क्या है अच्छा यही होगा कि भारत विभाजन को हम भूल जाएं। आगे की ओर देखें,अन्य चीजों की ओर देखें। 'आगे' और 'अन्य' चीजों की ओर देखने से समस्या का समाधान नहीं हुआ बल्कि समस्या और भी पेचीदा हो गयी।
आज देश में साम्प्रदायिकता से लोग घृणा नहीं करते बल्कि साम्प्रदायिकता की जय-जयकार करते हैं। पहले साम्प्रदायिकता के साथ जुड़ने में हीनताबोध पैदा होता था, साम्प्रदायिक ताकतों को कोई वोट देना पसंद नहीं करता था, आज ऐसा नहीं है। आज साम्प्रदायिक ताकतों का समाज और राजनीति में सम्मानजनक दर्जा है। अनेक राज्यों में उनकी सरकारें हैं। केन्द्र में भी उनके नेतृत्व में छह साल तक सरकार चली है। साम्प्रदायिकता आज अछूत नहीं है। हाशिए की शक्ति नहीं है बल्कि केन्द्र की शक्ति है।
भारत विभाजन के विचारधारात्मक-मनोवैज्ञानिक प्रभावों की गहराई में छानबीन करने की बजाय हमने भारत विभाजन को इतिहास और कथा साहित्य का विषय बनाया। गल्प बनाया। उसके मनोजगत पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में विस्तार के साथ कभी चर्चा नहीं की।
उल्लेखनीय है कि 15 अगस्त सन् 1947 में देश के आजाद होने के एक महीने बाद ही इलाहाबाद में हिन्दी-उर्दू के प्रगतिशील लेखकों का सम्मेलन हुआ था इसमें एक भी प्रस्ताव भारत-विभाजन पर नहीं था।
यही स्थिति जनवादी लेखक संघ के घोषणापत्र की है। लेखक संगठनों में साम्प्रदायिकता पर जब भी चर्चा होती है तो उनके राजनीतिक नारों पर ही चर्चा होती है। जबकि साम्प्रदायिकता का बहुत गहरा संबंध पुनर्जन्म और अंधविश्वास के साथ है। पुनर्जन्म और अंधविश्वास की परतों को खोले बिना साम्प्रदायिकता को सामाजिक और राजनीतिक जीवन में अलग-थलग करना संभव नहीं है।
हिन्दी लेखकों के सम्मेलनों से लेकर उनके साथ जुड़े लेखकों के द्वारा संपादित पत्रिकाओं में आपको सब कुछ मिलेगा यदि कोई चीज नहीं मिलेगी तो वह है अंधविश्वास और पुनर्जन्म की अवधारणा पर बहस। पुनर्जन्म और अंधविश्वास पर बहस का अभाव स्वतंत्रता के अभाव को जन्म देता है। रचनाकार में लोकतांत्रिक विजन के विकास को अवरूद्ध करता है।
हिन्दी के अधिकांश आलोचकों के यहां भारत विभाजन के समय का कोई भी लिखा बयान,लेख आदि नहीं मिलता। इक्का-दुक्का कहानियां हैं जिन्हें देखकर खुश होते रहते हैं। कुछ उपन्यास हैं जिनमें भारत-विभाजन को विषयवस्तु के रूप में उठाया गया है। किंतु कथा साहित्य में जो चित्रण उपलब्ध है वह भारत विभाजन के बाद किस तरह की मनोदशा बनी है उसकी ओर ध्यान नहीं देता।
भारत विभाजन केन्द्रित कथा साहित्य विभाजन की विभीषिका के चित्रण तक सीमित है। जबकि समस्या उसके बाद की है। भारत विभाजन के परवर्ती विचारधारात्मक प्रभावों को खोलने वाली एक भी किताब भारत में उपलब्ध नहीं है। कम से कम हिन्दी के किसी आलोचक ने इस पहलू की ओर ध्यान हीं नहीं दिया। लेखक संगठनों के घोषणापत्र इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं।
बुनियादी तौर पर भारत विभाजन को रहस्यमय बनाया गया है। काल्पनिक बनाया गया है। भारत विभाजन को रहस्यमय बनाने में साहित्य और जनमाध्यमों की प्रधान भूमिका है। भारत विभाजन तब ही याद आता है जब कभी कोई साम्प्रदायिक दंगा हो जाता है। उसी समय हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बारे में उत्सवधर्मी चर्चाएं होती हैं,पत्रिकाओं में लेख छपते हैं। बाद में सब कुछ सामान्य हो जाता है। साम्प्रदायिकता अपने घर खुशी हम अपने घर खुशी। चंद दिनों के बाद ही भाईचारे के साथ साम्प्रदायिकता के साथ रहने लगते हैं।
साम्प्रदायिकता और भारत विभाजन की जब भी चर्चा होती है तो साम्प्रदायिक ताकतों की नकली धार्मिक अंतर्वस्तु को कभी उद्धाटित नहीं किया जाता। बल्कि उलटे यही कहा जाता है कि धर्म तो ठीक है, धर्म अच्छा है। प्रत्येक धर्म इंसानियत का पाठ सिखाता है।
धर्म के प्रति अनालोचनात्मक रवैय्या अंतत: धार्मिकता में इजाफा करता है। धर्म को धार्मिकता से मुक्त किए बिना धर्मरिपेक्षता के भावबोध का निर्माण करना संभव नहीं है। धर्म को धार्मिकता से मुक्त करने के लिए धर्म को विज्ञान की तरह विवेचित किया जाना चाहिए। हमारे यहां धर्म है,धर्मशास्त्र है किंतु धर्मविज्ञान नहीं है। इसका अर्थ है धर्म को आलोचनात्मक ढ़ंग से खोलना,विवेचित करना। धर्मविज्ञान के बिना धर्म को धार्मिकता से बचाना संभव नहीं है। धर्म का दुरूपयोग रोकना संभव नहीं है।
भारत विभाजन के पहले साथ रहते थे। भारत विभाजन के बाद हिन्दू-मुस्लिम पड़ोसी हो गए। एक साथ रहने वाले पड़ोसी में कैसे तब्दील हो गए ? और ये अगर पड़ोसी हैं तो फिर विभाजन क्यों ? लड़ते क्यों हैं ? आज पड़ोसी के नाते एक-दूसरे का थोड़ा सम्मान करते हैं। किंतु जब आप किसी को पड़ोसी कहते हैं तो उसे पराया बनाते हैं। उसके प्रति उपेक्षा व्यक्त करते हैं। धीरे-धीरे पड़ोसी के साथ विवाद उठने लगे, झगड़े होने लगे और कालान्तर में हिन्दू और मुसलमानों की बस्तियां अलग बसने लगीं। हिन्दू को मुसलमानों ने अपने इलाकों अथवा घर में किराए पर मकान तक देने से मना कर दिया। सतह पर धर्मनिरपेक्षता,भाईचारा और साम्प्रदायिक सद्भाव और वास्तव जीवन में व्यापक स्तर पर सामाजिक विभाजन सहज ही महसूस किया जा सकता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें