गुरुवार, 4 मार्च 2010

लोकतंत्र में निर्जन एकांत नहीं होता मकबूल फिदा हुसैन

एफ एम हुसैन साहब बहुत बड़े चित्रकार हैं,भारतीय चित्रकला परंपरा में उनका गौरवपूर्ण स्थान है। भारतीय कला के उन्होंने अनेक नए मानक बनाए और तोड़े है। उनकी कला में भारत की आत्मा निवास करती है। कलाकार के रंगों के साथ उसके देश का अभिन्न संबंध होता है। उनकी कला का धर्मनिरपेक्ष आयाम भारतीय कलाकारों,बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों को आलोड़ित करता रहा है।
     
हुसैन साहब कई सालों से स्वेच्छा से विदेश में थे, यह सच है कि संघ परिवार से जुड़े संगठनों ने उनके खिलाफ जेहाद छेड़ा हुआ है,नियोजित ढ़ंग से उनके खिलाफ मुकदमे दायर किए गए हैं। उनके चित्रों की प्रदर्शनियों पर संघ परिवार हमले करता रहा है। इस सबके खिलाफ देश के चित्रकारों और संस्कृतिकर्मियों ने उनका खुलकर साथ दिया है। इसके बावजूद संघ के हमले थमे नहीं हैं और हुसैन साहब विदेश चले गए और कई सालों से वहीं रह रहे हैं।

आज अखबार से पता चला कि उन्होंने भारत छोड़ने का फैसला ले लिया है। हुसैन साहब विश्व में कहां रहें यह उनका फैसला होगा,लेकिन भारत पर लांछन लगाकर कतार जाना सही नहीं है।
      
हुसैन साहब की मुश्किल यह है कि वे अपने लिए निर्जन एकांत खोज रहे हैं। भारत में लोकतंत्र है और लोकतंत्र की धुरी शांति नहीं लाठी है। लोकतंत्र में जनतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल वही कर सकता है जो जूझने में सक्षम हो, लोकतंत्र में अधिकारों के इस्तेमाल की शक्ति उसी के पास है जो अपने हक बचा सकता हो,लोकतंत्र में हक स्वत:नहीं मिलते उन्हें अर्जित करना होता है।संघर्ष करके अर्जित करना होता है।

लोकतांत्रिक हक सत्ता की कृपा से नहीं मिलते व्यक्ति के निजी संघर्ष से मिलते हैं। हुसैन साहब चाहते हैं कि उनके खिलाफ कोई कुछ न बोले, संघ भी न बोले। सरकार उन्हें संरक्षण दे। शैतान गायब हो जाएं और वे शांति से चित्र बनाएं,आराम से घूमें फिरें,चूँकि यह सब भारत में नहीं है अत: बतर्ज हुसैन साहब भारत ने उन्हें भगा दिया।
   
हुसैन साहब की निर्जन एकांत की आशा का भारत के प्रतिस्पर्धी लोकतंत्र में पूर्ण होना संभव नहीं है। हुसैन साहब जानते हैं कि कतार में भारत जैसा लोकतंत्र नहीं है और वहां पर मानवाधिकारों का वैसे पालन भी नहीं किया जाता जैसा भारत में होता है। भारत जैसी स्वतंत्र और पेशेवर न्यायपालिका भी कतार में नहीं है। हां ,वहां के राजा के पास बेशुमार दौलत है और वे अपने किसी भी अतिथि को कुछ भी दे सकते हैं। खासकर हुसैन जैसे महान कलाकार को तो कुछ भी दिया जा सकता है।

हुसैन महान है उसका दुख भी महान है। उसकी शांति भी महान है। लेकिन इन सबसे महान भारत का लोकतंत्र है। लोकतंत्र में अधिकार समाज और व्यक्ति के हैं तो कष्ट भी समाज और व्यक्ति के साझा हैं। लोकतंत्र में साझा नियति को भोगना अनिवार्य है।

हुसैन साहब ने अपने दुख ,उत्पीड़न और अपमान को लोकतंत्र के साझा दुख और अपमान से बड़ा करके और निहित स्वार्थीभाव से देखा है और अपने व्यक्तिगत सुख और शांति को पाने के लिए लोकतंत्र को तिलांजलि दे दी। धिक्कार है ऐसी खुदगर्जी को।

हुसैन साहब भारत में संघ परिवार के बंदे सिर्फ आपको ही परेशान नहीं कर रहे उनसे सारा देश परेशान है,ऐसी अवस्था में क्या समूचे भारत को कतार भेज दें ? क्या साम्प्रदायिक और आतंकी ताकतों से जंग का यही रास्ता बचा है कि बिस्तर बाँधकर विदेश चले जाएं ? क्या आपने एकबार भी नहीं सोचा कि आजादी के दौर में विदेश से भारतीय आते थे देश को आजाद कराने के लिए , इनमें सैंकड़ों ऐसे बेहतरीन इंसान थे जिन्होंने अपना शानदार कैरियर देश को आजादी दिलाने के लिए त्याग दिया। हुसैन साहब जानते हैं महात्मा गाँधी का कैरियर आपसे कम नहीं था। मैं ऐसे सैंकड़ों महान हस्तियों का जिक्र कर सकता हूँ जो शांति के लिए देश छोड़कर नहीं गए।
   
हुसैन साहब आप आम लोगों को निजी शांति के नाम पर खतरनाक संदेश दे रहे हैं। निज की शांति के लिए लोकतांत्रिक देश त्यागो, विकल्प के रुप में चाहे किसी राजतंत्र या सर्वसत्तावादी तंत्र की शरण ले लो। कलाकार का इस तरह खुदगर्ज होना पतन का संकेत है। लेखक-कलाकार -बुद्धिजीवी अपने लिए नहीं दूसरों के लिए,लोकतंत्र के लिए जीता है । उसे दूसरों ने,समाज ने बनाया होता है।

हुसैन साहब आपकी महानता निजी करामात की पैदाइश नहीं है आप पर इस देश का बहुत कुछ खर्च हुआ है और वह हमें सूद सहित आपसे वापस चाहिए। भारत की माटी का कर्ज आप पर है उसे चुकाने के लिए आपके रंग भी कम पड़ जाएंगे, कतार के शासन को यदि एम एफ हुसैन चाहिए तो अब तक जो कुछ हुसैन को बनाने पर खर्च हुआ है वह हमें कतार के शासक लौटाएं ? हुसैन साहब आपका जैसा महान कलाकार भारत में ही तैयार हो सकता है कतार में नहीं । यदि कोई वैसा कलाकार कतार में होता तो आप कतार में न होते।

हुसैन साहब आपका हिन्दू कठमुल्लों के डर से भागकर देश त्याग देना किसी भी तर्क से गले नहीं उतर रहा। आप महान हैं वैसे ही आपका भारत को त्यागना भी 21वीं सदी सबसे बड़ी बेवकूफी है। अक्लमंद लोग लोकतंत्र में मरते हैं, लोकतंत्र और स्वतंत्रता के लिए कुर्बानियां देते हैं। अपने निजी स्वार्थ को लोकतंत्र के स्वार्थ के मातहत रखते हैं। लोकतंत्र में दुख के साथ जीने में भी सुख है। लोकतंत्रविहीन देश में सुख के साथ जीना नरक में जीने के बराबर है।

हुसैन साहब लोकतंत्र में हारकर भी मैदान नहीं छोड़ा जाता। आपने मैदान छोड़कर लोकतंत्र के रणछोर की सूची में अपना नाम लिखा लिया है।  
  
   
        
    
  
  

3 टिप्‍पणियां:

  1. अभी सुबह अखबार मे शायर राहत इन्दौरी का लेख पढा उससे यह पंक्तियाँ उद्ध्रत कर रहा हूँ । " हुसैन 95 बरस के हैं सवाल यह नहीं कि वे कहाँ है ? सवाल यह है कि हमारी सियासत और हम कहाँ हैं ? रोशनी के इस मीनार का हिन्दुस्तान के अलावा किसी और मुल्क की मिट्टी मे बुझ जाना दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा । "

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  2. meri samaj se bhar hai,Jo shaks apni nagrikta chod rha hai uskeliye sab itne asu kiyo bha rhe hai.Desh saman hota to kabhi apni nagrikta nhi chote.Rhi baat unke dharmnirpeaksh ki to mujhe nhi lagta. Esa hota to vo keval Hindu devi devtao ki ashil painting nhi banate apne dhram ke bhi kisi ek jane ki to banate.

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