लेखक संगठनों के कार्यक्रमों और प्रकाशनों में मार्क्सवाद,जनवाद,समाजवाद, साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता पर गर्मागर्म बहसें होती रही हैं। किंतु पितृसत्ता को लेकर कोई बहस नहीं हुई है। तकरीबन यही स्थिति मार्क्सवादी नजरिए की भी है।
मार्क्सवादी नजरिए का अर्थ हमारे प्रगतिशील संगठनों ने मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन -माओ के उद्धरणों के पारायण को मान लिया है। इन उद्धरणों की रोशनी में ही कृति की अंतर्वस्तु की समीक्षा होती रही है। कभी भी मार्क्सवादी चिन्तन के प्रति आलोचनात्मक नजरिए से विचार ही नहीं किया गया। मार्क्सवाद मूलत: उद्धरणशास्त्र बनकर रह गया। फलत: हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचक मार्क्सवादी सैद्धान्तिकी और आलोचना में न्यूनतम मौलिक योगदान कर पाए हैं।
प्रसिध्द मार्क्सवादी आलोचक टेरी इगिलटन के अनुसार किसी कृति में सतह पर जो चीज नजर आती है उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण वह चीज है जो सतह पर नजर नहीं आती। व्यक्त से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है अव्यक्त की खोज। पाठ के साइलेंस या चुप्पी के क्षेत्रों ,अंतरालों और अनुपस्थित की खोज करना। इसके बिना आप विचारधारा को सकारात्मक रूप में महसूस नहीं कर सकते।
मार्क्सवाद का इकहरापन तब सामने आता है जब सिर्फ 'संघर्ष' के ही मूल्यांकन और चित्रण को मार्क्सवाद मान लिया गया। 'संघर्ष' के अलावा अन्य विषयों पर लिखी रचनाओं को खारिज कर दिया गया। इसके अलावा 'परंपरा' को पुनर्व्याख्यायित करने के नाम पर परंपरा का इकहरा रूपायन सामने आया। परंपरा को आधुनिककाल के लिए प्रासंगिक बनाया गया। तुलसी,कबीर,जायसी आदि में आधुनिककाल के सभी तत्वों को खोज लिया। परंपरा के इच्छित सृजन ने परंपरा का एकायामी विमर्श पैदा किया।
परंपरा का अर्थ यह नहीं है कि परंपरा को ज्यों का त्यों बरकरार रखा जाए। बल्कि ल्योतार के शब्दों में परंपरा में भिन्नता के साथ निरंतरता बनी रहती है। परंपरा के प्रति यह उत्तार आधुनिक भाव है। रामविलास शर्मा के परंपरा विमर्श में यह पद्धति लागू की गयी है। परंपरा का भाषा विशेष में विशिष्ट अर्थ होता है। परंपरा विशिष्ट और सार्वभौम दोनों ही होती है। हिन्दी में परंपरा के सार्वभौम रूप पर ज्यादा जोर है। विभिन्नताओं की उपेक्षा हुई है। परंपरा में तेजी से जाने का प्रधान कारण था उसे अन्य नाम देना, अपने लिए परंपरा में भूमिका तलाशना। परंपरा के सामाजिक बंधन होते हैं। क्योंकि परंपरा में हम अपनी भूमिका देखते हैं। अपने सामाजिक अस्तित्व की तलाश करते हैं।
हिन्दी लेखक संगठनों और आलोचकों में व्यक्तिकेन्द्रित और प्रवृत्ति केन्द्रित आलोचना का रिवाज है। हिन्दी में पैराडाइम केन्द्रित आलोचना कम लिखी गयी है। खासकर स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दुस्तान को केन्द्र में रखकर तो एकदम नहीं लिखी गयी। स्वतंत्र भारत का मूलाधार है लोकतंत्र। लोकतंत्र का स्वतंत्रता के बिना विकास संभव नहीं है। लेखक,नागरिक और समाज में स्वतंत्रता का जितना प्रसार होगा साहित्य और संस्कृति में लोकतांत्रिक भावबोध उतना ही समृद्ध होगा। एक ही वाक्य में कहें स्वातंत्र्योत्तर भारत का केन्द्रीय पैराडाइम स्वतंत्रता है।
हिन्दी लेखक संगठन 'स्वतंत्रता' के बारे में कम 'तंत्र' के बारे में ज्यादा सोचते हैं। लेखकों में 'स्व' की बजाय 'तंत्र', 'मानवीय सत्ता’ की बजाय 'सत्ता' पर ज्यादा लिखा है। 'स्व' से पलायन मध्यकालीनबोध का लक्षण है। उसमें स्वतंत्रता के लिए मर मिटने की भावना अभी तक पैदा नहीं हुई है। उलटे जब किसी की स्वतंत्रता छीनी जा रही होती तो मूकदर्शक बना रहता है।
स्वतंत्रता को वह दर्शकीयभाव से देखता है। यह उसके लिए देखने की चीज है। वह स्वतंत्रता में जीता नहीं है बल्कि मध्यकालीनबोध में जीता है। उसे नास्तिक नहीं आस्तिक पसंद हैं। असहमति नहीं सामंजस्य पसंद है। व्यक्ति की सत्ता और स्वायत्तता नहीं दूसरे के फटे में पैर फसाना पसंद है, हस्तक्षेप पसंद है।
स्वतंत्रता जन्मना नहीं मिलती। उसे अर्जित करना पड़ता है। स्वतंत्रता मनुष्य का बुनियादी अधिकार है इसे बुर्जुआ फिनोमिना कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है। जिस समाज में स्वतंत्रता होगी वहां स्वाभाविक लोकतंत्र के पनपने की संभावनाएं भी होंगी। स्वतंत्रता के बिना लोकतंत्र की तरह समाजवाद भी बर्बरतावाद में बदल सकता है। भूतपूर्व समाजवादी देशों में स्वतंत्रता के अभाव के कारण ही समाजवादी व्यवस्था का लोप हुआ।
स्वतंत्रता की जटिलताओं को मानवीय विकास के बुनियादी आधारों में से एक तत्व के रूप में देखने की बजाय स्वतंत्रता का राजनीतिक पक्षधरता के आधार पर मूल्यांकन किया गया। यहां सिर्फ एक-दो उदाहरण ही देना पर्याप्त है ,मसलन् आपातकाल में प्रगतिशील लेखक संघ का आपातकाल समर्थन का फैसला और हाल के वर्षों में नंदीग्राम के मसले पर जनवादी लेखक संघ का मूकदर्शक बने रहना और तसलीमा नसरीन के मसले पर मौन रहना। ये उस गंभीर समस्या के लक्षण मात्र हैं जिनकी ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ।
स्वतंत्रता मात्र दलीय राजनीतिक तत्व नहीं है। बल्कि सृजन और विकास की बुनियादी शर्त है। स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ 'निज' के लिए अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है बल्कि 'सबके लिए' अभिव्यक्ति की आजादी है। हिन्दी लेखक संगठनों और साहित्यकारों ने स्वतंत्रता पर कभी बहस नहीं की। बल्कि स्वतंत्रता की हिमायत करने वालों को किसी न किसी का एजेण्ट बताकर ,आरोप लगाकर नीचा दिखाने की कोशिश की गई अथवा स्वतंत्रता का गाली के तौर पर भी इस्तेमाल हुआ है। हिन्दी लेखक के लिए स्वतंत्रता नजारे की चीज है। वह स्वतंत्रता के तमाशे देखता है और चुपरहता है।
हिन्दी का लेखक कहीं न कहीं यह मानता है कि स्वतंत्रता समस्यामूलक है अत: उससे दूर रहो। स्वतंत्रता के बारे में सोचो मत। कभी कभार स्वतंत्र अभिव्यक्ति का नाटक जरूर कर लेता है। स्वतंत्रता को वह नकारात्मक धारणा मानता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वायत्तता की बात उठते ही सीमा की जाती है। सीमा का आग्रह उसे स्वतंत्रता विरोधी तक बना डालता है। कायर बनाता है। नपुंसक बनाता है। प्रतिरोध से पलायन कराता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता को यदि सकारात्मक अवधारणा के रूप में देखेंगे तो एकदम भिन्न अनुभूति होगी। भिन्न किस्म का नजरिया होगा और भिन्न किस्म का व्यवहार पैदा होगा। यदि व्यक्ति की स्वतंत्रता नकारात्मक अवधारणा के रूप में जेहन में बैठी है तो चीजें भिन्न नजर आएंगी।
बहुत साहस से बहुत ज़रूरी बातें कर रहे हैं आप.. बीमारी की पहचान से आधा उपचार हो जाता है.. आधे का सवाल बना हुआ है।
जवाब देंहटाएं