रविवार, 7 मार्च 2010

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष- औरत के अर्थशास्त्र की तलाश में



      ‘यूपीए’ सरकार के पिछले कार्यकाल में जब पहला बजट आया था तो पहलीबार उसे जेण्डर नजरिए से तैयार किया गया था। केन्द्रीय बजट मे जेण्डर के नजरिए की स्वीकृति का अर्थ है पुंसवाद को जेण्डर ने विचारधारा के सबसे जटिल क्षेत्र अर्थशास्त्र में जाकर चुनौती दी है। बजट में जेण्डर संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति के दूरगामी परिणाम होंगे। समग्रता में देखें तो अर्थशास्त्र में औरत को केन्द्र में रखकर भारत में बहुत कम काम हुआ है।

आज भी अर्थशास्त्र के अधिकांश अध्ययन मर्द को केन्द्र में रखकर किए जाते हैं। भारत में स्त्री अध्ययन की ज्यों-ज्यों स्वीकृति बढ़ी है अर्थशास्त्र के लोगों या समाजविज्ञान के लोगों का औरत की ओर ध्यान गया है। हमारे सामने अर्थशास्त्र के तीन बड़े स्कूल हैं जिनके दार्शनिक नजरिए का विवेचन करके हम समझ सकते हैं कि आखिरकार अर्थशास्त्र ने औरत को कैसे निर्मित किया गया। पहला स्कूल क्लासिकल अर्थशास्त्रियों का है जिनमें एडम स्मिथ वगैरह के नाम आते हैं। इन लोगों ने 18वीं सदी से 'मेक्रो' एप्रोच के जरिए समाज के राजनीतिक अर्थशास्त्र की मीमांसा पेश की । यह पूंजीवादी व्यवस्था की व्याख्या का पहला व्यवस्थित स्कूल था। ये लोग उदारतावाद के पक्षधर थे। इन लोगों ने बताया कि कैसे व्यापारिक वर्ग के निजी हितों के गर्भ से सामाजिक व्यवस्था पैदा हुई। इन लोगों ने मूल्य की सैद्धान्तिकी बनायी। यह भी बताया कि पूंजी के संचय,औद्योगिक पुनर्गठन और मुक्त व्यापार के कारण आर्थिक विकास हुआ है। एडम स्मिथ ने उत्पादन, उपभोग और वितरण इन तीन क्षेत्रों तक अपने कार्य को सीमित रखा और ये तीनों क्षेत्र आज भी अर्थशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन के बुनियादी स्तम्भ बने हुए हैं। कालान्तर में नव्यशास्त्रीय सिध्दान्तकारों ने बताया कि कैसे सामाजिक विकास की प्रक्रिया में व्यक्ति महत्वपूर्ण है और व्यक्तिवाद कैसे समाज के लिए आवश्यक है, इसका परिणाम यह निकला कि व्यक्तियों के बहुलतावाद की बात की जाने लगी।

     नव्यशास्त्रीय सैध्दान्तिकी के तीन मुख्य तत्व हैं पॉजिटिविज्म, पद्धतिगत व्यक्तिवाद और प्रेरक आकांक्षाएं जो विवेक को विस्तार दें ,उसमें वृध्दि करें। एडम स्मिथ और शास्त्रीय-नव्य शास्त्रीय अर्थशास्त्रियों के लेखन पर गौर करें तो पाएंगे कि वहां स्त्री के ऊपर बहुत कम लिखा मिलेगा। एडम स्मिथ ने औरत के बारे में लिखते समय मुश्किल से एक पृष्ठ तक नहीं लिखा। वह अपने नजरिए से औरत की परंपरागत भूमिका को वैध ठहराने की कोशिश करता है। वह बताता है कि औरत मजदूरी के लिए काम करती है।स्मिथ तर्क देता है कि मर्द की मजदूरी इतनी होनी चाहिए जिससे वह परिवार का पालन-पोषण कर सके। परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी होनी चाहिए जिससे माँ बच्चों को बड़ा कर सके। समाज के हित के लिए औरत की बच्चा पैदा करने वाली भूमिका महत्वपूर्ण है। इसी दौर में जॉन स्टुअर्ट मिल की प्रसिध्द पुस्तक ‘‘स्त्री पराधीनता’’ का प्रकाशन होता है। वह जनतंत्रात्मक आर्थिक सुधारों की बात करता है जिससे स्त्री को आर्थिक तौर पर स्वायत्त बनाया जा सके।

मिल ने रेखांकित किया कि औरत को कम मजदूरी उसके उत्पादन से मेल नहीं खाती ,यह समाज के पूर्वाग्रह और संस्कारों का परिणाम है। स्त्री के लिए रोजगार के क्षेत्र में बंदिशें उसकी पत्नी और माँ के रूप में आर्थिक पराधीनता में इजाफा करती हैं। वह पितृसत्तात्मक परिवार के दोहरे दबाव में रहती है।

मिल ने घर में स्त्री के कामों और श्रम की अनदेखी की। किन्तु उत्पादन में उसकी उपयोगिता को स्वीकार किया। मिल की नजरों में जनतांत्रिक विवाह संबंधों के लिए विवाह और परिवार में सुधार करने की जरूरत है। साथ ही समान काम के लिए औरत को समान मजदूरी मिलनी चाहिए। मिल इस दौर के पहले विचारक हैं जिन्होंने पूंजीवाद और उदारतावाद के अन्तर्विरोधों को उजागर किया। इस दौर के अनेक समाजवादी और स्त्रीवादी भी इस अंतर्विरोध को नहीं देख पाए। मिल ने इसके साथ ही व्यक्तिवाद ,बाजार में मुक्त प्रवेश और लिंगभेदीय श्रम के रूपों की चर्चा की।

बारवरा बोडीकोन की कृति ''वूमेन एंड वर्क'' में सभी औरतों के लिए शादी की अनिवार्यता पर सवालिया निशान लगाया है और औरतों के रोजगार हेतु प्रशिक्षण और हुनर हासिल करने के समान अधिकार की हिमायत की। उसने इस तर्क का उपहास उड़ाया कि मर्द जब औरत को सहयोग देता है तो औरत को भी मर्द के साथ सहयोग करना चाहिए। बारवरा ने स्त्रीवाद का आर्थिक पक्ष से इतर उच्चस्तरीय एजेण्डा तय किया। जबकि विक्टोरिन युग के उदारतावादी विचारक एडम स्मिथ द्वारा स्त्री के घरेलू और बाहर के जीवन में उत्पादक और पुनर्रूत्पादक काम के रूप में किए गए अंतर को समर्थन देते रहे।ये लोग पूंजीवाद और पितृसत्ता के साथ श्रम के लिंगभेद के साथ संबंध को जोड़कर देख ही नहीं पाए।
दूसरी ओर आर्थिक और राजनीतिक सैध्दान्तिकी पितृसत्ताक विजन से पूरी तरह बंधी हुई थीं। इस क्षेत्र के विचारक मानते थे कि औरत का काम है सदभाव,सौन्दर्य, एथिक्स के जरिए घर को समृद्ध करना, मर्द और बच्चों को समर्थ बनाना। बीसवीं शताब्दी के मध्य तक औपनिवेशिक युग तक यह नजरिया बरकरार था।

सन् 1891 में बिट्रीस वेव ने स्त्री के लिए समान काम के लिए समान मजदूरी की बात उठायी। सन् 1907 में मथिसन् केडवरी, इ.एम.सिसिली और शान जॉर्ज ने '' वूमेन वर्क एण्ड वेज ,ए फेज ऑफ लाइफ इन वन इण्डस्ट्रियल सिटी'' कृति में स्त्री और पुरुष की आय के बीच में व्याप्त विषमता को रेखांकित किया। और इसे ही औरत की सामाजिक और आर्थिक पराधीनता का प्रधान कारण माना। इसी दौर में यह सवाल भी उठा कि समाज पर मर्द का ही नियंत्रण क्यों होगा ? औरत की पहुँच में बाजार का उत्पादन क्यों होगा ? औरत के घरेलू श्रम और तद्जनित आर्थिक उत्पादन का मूल्य कम करके क्यों आंका जाएगा या उसकी अनदेखी क्यों की जाएगी ?

1 टिप्पणी:

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...