सरसरी तौर पर यह साफ दिखाई देता है कि चीन और अमेरिका की अर्थ–व्यवस्थाएं आपस में पूरी तरह से गुथ गयी है। चीन का विकास उसके निर्यात पर निर्भर है और उसके निर्यात का काफी बड़ा हिस्सा अमेरिका जाता है। 2001 में चीन का निर्यात उसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 20 प्रतिशत था, जो 2007 तक बढ़ कर 36 प्रतिशत होगया। देशों के समूह के तौर पर निश्चित तौर पर यूरोपियन यूनियन उसके मालों का सबसे बड़ा ग्राहक है, लेकिन अकेले एक ग्राहक के रूप में अमेरिका का ही स्थान अव्वल है। इसके अलावा, अमेरिका को आपूर्ति करने वाले देशों में कुछ अर्से पहले तक कनाडा सबसे आगे था, लेकिन अब उसका स्थान चीन ले चुका है। चीन ही आज अमेरिकी सरकारी प्रतिभूतियों का सबसे बड़ा खरीदार और मालिक है। पहले यह स्थान जापान को प्राप्त था। 2008 के बाद से चीन अब उससे आगे चला गया है। हाल के अमेरिकी संकट में अगर किसी देश ने अमेरिका के लिये सबसे बड़े त्राणदाता की भूमिका अदा की तो वह चीन ही था। अमेरिकी सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद के जरिये चीन अमेरिका को ऋण देने वाला आज सबसे बड़ा देश बन चुका है।
चीन और अमेरिका के संबंधों को लेकर अभी जिसप्रकार का चित्र बनता है, उसमें लगता है जैसे अमेरिका चीन में बने सामानों को खरीद रहा है और चीन अमेरिका की सरकारी प्रतिभूतियों को। एक विकासशील देश चीन एक धनी देश अमेरिका को खर्च करने के लिये उधार दे रहा है। इसके एवज में अमेरिका चीन में बने सामानों को खरीद कर उधार में आए डालर को फिर से चीन को सौंप देता है और यही डालर फिर कर्ज के तौर पर अमेरिका के पास आ जाता है। अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश है और चीन सबसे बड़ा कर्जदाता। सवाल उठता है कि क्या ऐसी कोई चीज लंबे समय तक चल सकती है? साधारण बुद्धि से सोचने पर यह सारा मामला कुछ अजीब सा, उटपटांग जान पड़ता है। ओबामा के आर्थिक सलाहकार लारेंस समर्स ने किसी समय अमेरिका और उसके विदेशी कर्जदाताओं के संबंधों को ‘वित्तीय आतंक का संतुलन’ कह कर परिभाषित किया था। चीन का प्रमुख अंग्रेजी सरकारी दैनिक ‘पिपुल्स डेली’ लिखता है कि चीन के हाथ में भारी मात्रा में अमेरिकी सरकारी प्रतिभूतियों के होने का अर्थ यह है कि वह कभी भी डालर की एक आरक्षित मुद्रा की हैसियत को खत्म कर सकता है। लेकिन साथ ही वह यह कहने से भी नहीं चूकता कि यह स्थिति वस्तुत: निश्चित परस्पर विनाश पर आधारित शीत युद्धकालीन गतिरोध का विदेशी मुद्रा संस्करण है। अर्थात, दोनों ही यह मान कर चल रहे हैं कि जो आज चल रहा है, उसके अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। दूसरा विकल्प सिफर् परस्पर विनाश है।
चीन अमेरिका संबंधों के इस जटिल और अबूझ से रूप को देखकर ही अब कुछ ‘भविष्यद्रष्टा’ इन दोनों अर्थव्यवस्थाओं की परस्पर–निर्भरशीलता के बजाय इनकी अनिवार्य जुदाई की बात भी कहने लग गये हैं। हार्वर्ड के प्रसिद्ध इतिहासकार नियाल फगुर्सन एक समय में जिस चीज को चिमेरिका कह कर प्रचारित कर रहे थे, वे ही अब इसे एक ऐसा विवाह बंधन बताने लगे हैं जिसका अंत विछोह के अलावा और कुछ नहीं हो सकता।
इसी सिलसिले में चीन और अमेरिका के बीच चीनी मुद्रा युआन के विनिमय मूल्य को लेकर इधर जो थोड़ी नोक–झोंक चल रही है, उसकी तह में जाना काफी उपयोगी होगा। यह बात जग जाहिर है कि चीन और अमेरिका के बीच व्यापार संतुलन काफी अधिक बिगड़ा हुआ है। चीन के साथ अमेरिका के व्यापार घाटे में पिछले दिसंबर महीने में 18.14 बिलियन अमेरिकी डालर की वृद्धि हुई, जबकि इस जनवरी महीने में यह वृद्धि 18.3 बिलियन डालर हुई। अमेरिका इसके लिये अक्सर चीन को कोसता है कि उसने अपनी मुद्रा युआन की विनिमय दर को कृत्रिम ढंग से काफी कम कर रखा है, जिसकी वजह से अमेरिकी बाजार में चीनी सामानों को अनुचित लाभ मिल रहा है और अमेरिका का चीन के साथ व्यापारिक घाटा बढ़ता जा रहा है।
12 मार्च को राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अमेरिकी निर्यात–आयात बैंक के वार्षिक सम्मेलन में अमेरिका के बढ़ते हुए व्यापार घाटे के संदर्भ में जोर देकर कहा कि फिर से व्यापार संतुलन को कायम करने में चीनी मुद्रा युआन की विनिमय दर को बाजार पर आधारित किया जाना एक महत्वपूर्ण कदम होगा। ओबामा के इस वक्तव्य के दूसरे दिन ही चीन के केंद्रीय बैंक, पिपुल्स बैंक आफ चायना के उप–राज्यपाल सू निंग ने उन्हें तुर्की दर तुर्की जवाब देते हुए कहा कि युआन के मूल्य के प्रश्न का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए। युआन की विनिमय दर को बढ़ाना चीन और अमेरिका के बीच व्यापार संतुलन की समस्या का समाधान नहीं है। सू निंग की दलील थी कि सन् 2005 के जून महीने में डालर के दामों को अस्थिर कर दिये जाने के बाद से युआन की दर 20 प्रतिशत से अधिक बढ़ गयी है। 2002 से लेकर 2008 के बीच अमेरिकी डालर की कीमत सालाना तीन प्रतिशत की दर से कम हुई थी। लेकिन इसी दौरान अमेरिकी व्यापार घाटा 500 बिलियन डालर से बढ़ कर 900 बिलियन डालर होगया। अर्थात, डालर के कमजोर होने से अमेरिकी घाटे में कोई कमी नहीं आयी है।
इसी सिलसिले में निंग ने अमेरिका के इस व्यापार घाटे के दूसरे रहस्यों पर से पर्दा उठाते हुए जिन तथ्यों का उल्लेख किया, वे चीन और अमेरिका के बीच के व्यापार की वास्तविकता और इन दोनों अर्थ–व्यवस्थाओं के संबंधों को जानने की दृष्टि से महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। उन्होंने बताया कि चीन के पक्ष में व्यापार संतुलन का अर्थ सिफर् चीन की अर्थ–व्यवस्था को लाभ नहीं समझा जाना चाहिए। सचाई यह है कि चीन के अधिकांश निर्यातकों में विदेशी पूंजी लगी हुई है। चीन के वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार पिछले वर्ष चीन के विदेश व्यापार में निवेश का 55.2 प्रतिशत विदेशी है और 56 प्रतिशत निर्यात चीन में स्थित विदेशी कंपनियों ने किया है। चीन को इस व्यापार से जो मामूली मुनाफा होता है उसका अधिकांश विनिर्माण की श्रंखला के अंतिम चरण से आता है। जबकि, अमेरिका खुद उत्पाद की डिजाइन और उसके वितरण से अच्छा खासा मुनाफा ले लेता है। इस बात को ठोस उदाहरण से समझने के लिये कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के एक शोधकर्ता की इस रिपोर्ट पर गौर किया जा सकता है, जिसके अनुसार एक 30 गिगाबाईट के विडियो आईपॉड पर 299 अमेरिकी डालर की लागत में से 163 डालर अमेरिकी कंपनियों और मजदूरों को मिलते हैं, तथा 132 डालर दूसरे एशियाई देशों के कलपुर्जे निर्माताओं को, जबकि चीन में, जहां उसे अंतिम रूप से तैयार किया जाता है, इसका सिफर् 4 डालर भुगतान किया जाता है। चीन के मजदूरों द्वारा आईपॉड के निर्माण में सिफर् एक प्रतिशत का योगदान किये जाने पर भी चीन से अमेरिका को होने वाले निर्यात में इसके चलते 150 डालर का योगदान होता है, अर्थात चीन–अमेरिका के बीच व्यापार संतुलन में एक आईपॉड 150 डालर का योगदान करता है।
इसीलिये आज भी चीन और अमेरिका की अर्थ–व्यवस्था को बराबरी के दर्जे पर रखना एक बड़ा भ्रम है। बाजार विनिमय दरों के आधार पर चीन की अर्थ–व्यवस्था अभी भी अमेरिका से एक तिहाई है। उसका प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पादन अमेरिका के प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद का चौदहवां हिस्सा भर है। अमेरिका का प्रतिरक्षा बजट चीन से छ: गुना है। जहां तक सरकारी प्रतिभूतियों का सवाल है, चीन के लिये यह संभव नहीं है कि वह उसे बाजार में छोड़ सके। डालर की कीमत के गिरने से सबसे अधिक नुकसान चीन को ही होगा। इसीलिये जो लोग आज दोनों को बराबर के वजन वाला बताकर जी 2 की बात करते हैं, वह सच से कोसों दूर, कुछ खास गरज से एक राजनीतिक भ्रम फैलाने की बात के अलावा और कुछ नहीं है। और यही वह बिंदु है जिसकी ओर इशारा करना यहां हमारा अभीष्ट है।
उपरोक्त विश्लेषण से एक बात साफ है कि चीन की अर्थ–व्यवस्था के लिये निर्यात में अभिवृद्धि महत्वपूर्ण होने पर भी उतनी अधिक महत्वपूर्ण नहीं है जितनी आम तौर पर समझा जाता है। निर्यात की राशि में चीन के द्वारा जोड़े गये मूल्य का अंश उसके जीडीपी का बहुत छोटा सा हिस्सा है। अमेरिका में खपने वाले अधिकांश मालों का ज्यादातर हिस्सा अन्य स्थानों पर निर्मित होता है। युआन के विनिमय मूल्य पर नियंत्रण और डालर से अमेरिकी प्रतिभूतियों की खरीद के जरिये वह अपने निर्यातकों की मदद करता है। बदले में अमेरिका में ब्याज की दर नियंत्रित रहती है और अमेरिकी उपभोक्ता की खर्च की आदत बनी रहती है। लेकिन, मूल सचाई यह है कि चीन के विकास की असली चालक शक्ति वहां होने वाला निवेश ही है।
इस समूचे उपक्रम में जिस बात पर नजर रखने की जरूरत है वह है चीन और अमेरिका के बीच विकसित की जा रही एक प्रकार की रणनीतिक समझ और साझेदारी। चीन आज की दुनिया में पूंजीवाद के बरक्स सोवियत संघ की तरह कोई समाजवादी विकल्प नहीं पेश कर रहा है। दुनिया के गरीब और विकासशील देश उससे कोई विशेष उम्मीद नहीं रख पारहे हैं। चीनी विशिष्टता वाला समाजवाद अमेरिकी विशिष्टता वाला पूंजीवाद जैसा प्रतीत हो रहा है– इस बात को कहने वालों की कमी नहीं है। अमेरिकी सरकार की हरचंद कोशिश इस बात की है कि कैसे चीन को अपनी समग्र विश्व रणनीति का अंशीदार बनाया जाए। अमेरिकी पत्र–पत्रिकाओं में चीन की सारी लानत–मलामत के बाद भी पूरा जोर इस बात पर रहता है कि जलवायु परिवर्तन से लेकर आर्थिक पुनर्बहाली तक, सभी मामलों में दुनिया के इन दोनों देशों के बीच एक प्रकार का सामंजस्य कायम हों। चीन और अमेरिका की बराबरी की बात कहने वालों के बारे में अमेरिका के पूर्व ट्रेजरी अधिकारी अलबर्ट कीडेल कहते हैं कि दोनों अर्थ–व्यवस्थाओं में बराबरी करने का कोई तुक नहीं है, फिर भी ‘चीन को यह जताने के लिये कि वह हमारा भागीदार है और इसीलिये उसकी कुछ जिम्मेदारियां है, और हम जिस चीज को महत्वपूर्ण समझते हैं, उसे उस बात को सुनना चाहिए, इस बात में कुछ सार है।
ओबामा ने इसी बीच चीन के साथ हाथ मिलाने के लिये रणनीतिगत और आर्थिक संवाद का एक सालाना मंच बनाया है, जिसकी पहली बैठक वाशिंगटन में पिछले जुलाई महीने में हुई थी। इस मंच का मूल उद्देश्य यह है कि दोनों देशों के प्रमुख नीति निर्धारक आपस में मिले और उनके सामने जो समस्याएं है उनपर बात करें। ओबामा के शब्दों में, इसप्रकार के प्रयोग को निरर्थक नहीं समझा जाना चाहिए।
भ्रम को बनाये रखने के लिये अमेरिकी पत्रिकाएं यह जरूर कहती है कि चीन और अमेरिका हमबिस्तर होकर भी अलग–अलग सपने देखते हैं। शासन की किसकी प्रणाली ज्यादा सही और कारगर है, इसकी प्रतिद्वंद्विता में वे लगे हुए है। लगभग तीन दशक से भी ज्यादा समय पहले जब देंग ज्याओ पिंग ने चार आधुनिकीकरण के नारे के साथ चीन के तीव्र विकास की एक समग्र नीति अपनायी थी, तभी उन्होंने यह भी कहा था कि चीन को विकसित देश बनाने की प्रक्रिया में चीन समाजवादी रहेगा या पूंजीवादी, यह बात आने वाले पचास वर्षों बाद ही तय होगी। विश्व रणनीति की सही समझ को विकसित करने के लिये चीन और अमेरिका के बीच इस निरंतर विकासमान घटना–चक्र पर नजर रखने की जरूरत है।
very good and informative article, thanks
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