बुधवार, 17 मार्च 2010

संस्कृति उद्योग के विचारधारात्मक खेल



    विश्व विख्यात कला इतिहासकार अर्नाल्ड  हाउजर ने लिखा कि ''मनोरंजन उद्योग के ध्वजवाहक स्वभावतया केवल पैसा कमाना चाहते हैं और इसके लिए यदि वे अच्छी कला के मुकाबले बुरी कला को चुनते हैं तो सबसे पहले इसलिए कि बुरी कला का उत्पादन और विक्रय आसान है।’’
    ‘‘कहने का मतलब यह नहीं कि वे वैचारिक संघर्ष में भाग नहीं लेते। हम जानते हैं कि विचारधाराएं मंतव्य या चेतना के परे काम करती हैं और किसी षडयंत्र या निश्चित योजना या अभियान के बगैर भी वे सक्रिय रह सकती हैं। लेकिन बेस्ट-सेलर किताबों के प्रकाशक और हालीवुड के फिल्म-निर्माता किसी भी तरह अपनी वर्ग विचारधारा के सबसे निष्ठावान अनुचर नहीं होते;उन पर यही आरोप लगाना बुद्धिमत्तापूर्ण होगा कि वे जितने हठी कल्पनाजीवी होते हैं उसके मुकाबले उनमें विश्वास की कमी होती है। ’’
   ‘‘वे प्रत्येक व्यक्ति को सम्बोधित करते हैं,सबको संतुष्ट करना चाहते हैं ,और किसी की भावनाओं को चोट नहीं पहुँचाते ; उन्हें अपने ग्राहक जो बनाए रखने हैं।इसलिए जिन विचारधारात्मक सिध्दान्तों को वे जानते हैं वे सकारात्मक होने की बजाए नकारात्मक किस्म के होते हैं;महत्वपूर्ण चीज यह है कि कुछ विषयों को उठाया न जाए या छुआ भी न जाए।ये विषय हैं-स्वस्थ सेक्स संबंध,वर्गसंघर्ष या मजदूर आंदोलन, मौजूदा समाज व्यवस्था या अधिकारियों के विरूद्ध कोई भी आलोचना,धार्मिक संदेह या फिर चर्च का विरोध।इन विषयों को बचा ले जाना मौजूदा परिस्थितियों को इंगित करता है,लेकिन जो सकारात्मक प्रचार है उसका मतलब,सामान्यत: कहें तो ,कुछ-कुछ हिचकिचाहट के साथ यह आश्वसन है कि तमाम संभव दुनियाओं में यह दुनिया सर्वोत्तम है।''
हाउजर ने लिखा है कि ''निस्संदेह अकसर किया गया यह दावा सारत: सही है कि मनोरंजन उद्योग द्वारा परोसे गए मास सांस्कृतिक उत्पाद लोगों की सांस्कृतिक जरूरतों को संतुष्ट करने के लिए नहीं,उसका दोहन करने के लिए होते हैं ; यह भी कोई कम सही बात नहीं है कि इन उत्पादों की खराब गुणवत्ता एक ऐतिहासिक संयोग-संस्कृति के जनतांत्रिकीकरण और प्रतिद्वंद्वितामूलक पूंजीवाद के संयोग का परिणाम है।’’
   ‘‘बहरहाल ,कुछ लोगों ने इस संकटपूर्ण स्थिति से यह निष्कर्ष निकालना उचित समझा है कि ' यदि संस्कृति को फिर से स्वास्थ्य लाभ करना है तो हमें या तो शोषण या फिर जनतंत्र में से किसी एक को खत्म करना होगा।यह निष्कर्ष ठीक नहीं है। सांस्कृतिक अभिजन अभिजन और बाकी समाज में तनाव कोई आज की या कल की परिघटना नहीं है;लोकप्रिय कला में हमेशा ही उच्च कलात्मक संस्कृति के प्रति एक खास विरोध रहा है।यह आशा करना शुद्ध काल्पनिक स्वप्न होगा कि यह तनाव अचानक खत्म हो जाएगा और ऐसी सामुदायिक कला का जन्म होगा जो सबके लिए रूचिकर और संतोषप्रद होगी।’’
   ‘‘लोकप्रिय कला के मानोन्नय के रास्ते और साधन हैं,तथा इस दिशा में प्रगति के लिए निश्चय ही झकझोर देने वाले आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों की जरूरत पड़ेगी,लेकिन इसके लिए पूंजीवाद और जनतंत्र मे से किसी एक नाश अनिवार्य नहीं है।वर्गों के बीच की दीवार और प्राकृतिक चुनाव के रास्ते में आने वाली बाहरी बाधाओं को उखाड़ फेंकने से ही इस समस्या का अपने आप सुलझ जाना मुश्किल है।यह आशा तो पूरी नहीं हुई कि संस्कृति के दरवाजों को जनता के लिए खोल देने से नई प्रतिभाओं की बाढ़ आ जाएगी,और न ही इसके पूरा होने के कोई आसार हैं,कम से कम उस तरह तो नहीं जिस तरह पहले सोचा गया था।प्रतिभाशाली लोग संस्कृति के खुले हुए दरवाजों से चलकर अपे आप नहीं आ पहुँचते'अच्छी रूचि,,कला में बुरे से अच्छे को अलगाने और अच्छे का सचेत रूप से चुनाव करने की ताकत ऐसी चीज नहीं है जिसे लोगों ,जनसमूह,सर्वहरा या जो भी आप कहें उसकी स्वर्त:स्फूत्त अनुभूतियों,'अप्रदूषित' स्वस्थ वृत्तियों के भरोसे छोड़ा जा सके।अच्छी रूचि सौन्दर्यात्मक संस्कृति का मूल नहीं,उसका फल होती है।''
मीडिया मालिकों के तर्कों को अस्वीकार करते हुए आर्नल्ड हाउजर ने लिखा कि ''लोकप्रिय कला की वर्तमान हालत के लिए यह कहकर जिम्मेदारी छुड़ा लेना उचित नहीं है कि जनता जो चाहती है वह पाती है।जनरूचि प्राथमिक आधार नहीं है ;यह जो है वह बनी है। केवल जनता ही यह निर्णय नहीं करती कि वह क्या चाहती है ;उसका चाहना अंशत: इस बात से निर्धारित होता है कि उसे दिया क्या जा रहा है।‘‘
’’यह प्रक्रिया एक वृत्त के समान है।लेकिन इसे तोड़ा जा सकता है।बहरहाल,इसे तोड़ने के लिए समय और पैसे की जरूरत पड़ती है,और यह सबको पता है कि प्रकाशक और फिल्म निर्माता परोपकारी जीव नहीं होते।जैसे व्यवसायियों का स्वभाव है,ये लोग कोई खास उद्यमी नहीं होते;केवल इस आश्वासन के भरोसे कि जनता की शिक्षा दूरगामी दृष्टि से फायदेमंद होगी, वे अपने सुरक्षित बाजार को गड़बड़ा देने का खतरा न उठाएंगे।''
   
               




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