हिन्दी की सबसे बड़ी त्रासदी है कि जिस दौर में सारी दुनिया 'व्यक्तिनिष्ठता' का महाख्यान रच रही थी, हिन्दी में उसका घनघोर विरोध हो रहा था। पूंजीवाद हो और 'व्यक्तिनिष्ठता' का जयगान न हो , यह संभव नहीं है। व्यक्ति की अपनी निजी इच्छा, प्रसन्नता, परंपरागत मूल्यों के प्रति सद्भाव और सहिष्णुता और व्यक्तिगत अस्तित्व के सवालों को प्रमुखता देना सामान्य चीज है।
आपातकाल के पहले मूल्यों को बदलने की बातें ज्यादा होती थीं, आपातकाल के बाद मूल्यों को मानने पर जोर दिया गया। 'व्यक्तिनिष्ठता' और 'निजता' पर जोर दिया गया। ''जो जैसा है उसे वैसा ही रहने दो'' की धारणा पर जोर दिया गया।
अब मूल्यों के लिए नयी ऊर्जा कहीं से नहीं मिल रही थी ,पुरानी ऊर्जा खत्म हो चुकी थी। प्रेरणा स्रोत बदल गया था। पहले समाजवाद प्रेरणा स्रोत था अब लोकतंत्र प्रेरणा स्रोत था। अब हर चीज में जनवाद की मांग की जाने लगी। पहले हर चीज में समाजवाद की मांग की जाती थी। अब जनवाद को समृद्ध करने की मांग की जाने लगी। लोकतंत्र के प्रति यह प्रेम ऐसे समय में उमड़ा था जब लोकतंत्र क्षयिष्णु अवस्था में था। इसके बावजूद लोकतंत्र से बेहतर और कोई विकल्प नहीं था।
आपातकाल के बाद क्षेत्रीय राजनीति, क्षेत्रीय पूंजीपतिवर्ग और बड़े पैमाने पर मध्यवर्ग का विकास होता है। गठबंधन राजनीति का राष्ट्रीय स्तर पर श्रीगणेश होता है। क्षेत्रीय दलों के बिना केन्द्र में सरकार बनना असंभव हो जाता है। भारत की अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण आरंभ होता है। कल्याण राज्य का क्रमश: लोप होता है। दैनिक जीवन में उपभोग की महत्ता बढ़ जाती है। नई आर्थिक-सांस्कृतिक संरचनाओं का उदय होता है। मीडिया का विस्फोट होता है। देश पूरी तरह इलैक्ट्रोनिक मीडिया क्रांति में दाखिल होता है।
सामाजिक -राजनीतिक ध्रुवीकरण के उपकरण के तौर पर मंडल कमीशन ,राममंदिर आन्दोलन ,ओबीसी और दलित राजनीति के एजेण्डे का उदय होता है इससे साधारण आदमी को सामाजिक-राजनीतिक प्रतिष्ठा मिलती है।
विचारणीय सवाल यह है कि वर्गीय हितों की राजनीति गरीब को सामाजिक प्रतिष्ठा और एजेण्डा क्यों नहीं बना पायी ? इससे राजनीति,संस्कृति और साहित्य का आधुनिकतावादी मॉडल अपदस्थ होता है। हिन्दी आलोचना में अतीतपंथी नजरिए की अप्रासंगिकता बढ़ी। अब आलोचक और लेखक वर्तमान के सवालों पर ज्यादा बोलने लगते हैं।
असल बात यह कि हिन्दी आलोचना अपने वर्तमान से भागती रही है। आपातकाल के बाद पहली बार ऐसा होता है कि रचना और आलोचना दोनों के सामने वर्तमान का मूल्यांकन करना प्रमुख कर्म हो उठता है।
हिन्दी आलोचना में जनवाद पदबंध का आना कहीं न कहीं इस तथ्य की सूचना भी है कि समाजवादी और आधुनिकतावादी मॉडल यथार्थ को व्याख्यायित करने में मदद नहीं कर रहा था। साहित्य में प्रवृत्तिगत अथवा मूल्यगत नामकरण अप्रासंगिक होने लगे।
मसलन् जिसे जनवादी कहा जा रहा है क्या उसके यहां प्रगतिवादी नजरिया नहीं है, अथवा जिसे प्रगतिवादी कहा जा रहा है क्या उसके साहित्य में जनवादी नजरिया नहीं होता ? क्या आधुनिकतावादी खासकर हिन्दी के आधुनिकतावादी जनवाद के पक्ष में नहीं थे ?
क्या हम भूल गए कि आधुनिकतावादी अज्ञेय ने आपातकाल का विरोध किया था और शानदार आपातकाल विरोधी काव्य संकलन दिया था ''महावृक्ष के नीचे'', क्या सोशलिस्ट को जनवादी नहीं कहते ? भारत में तो प्रतिक्रियावादी भी लोकतंत्र का हिमायती होता है जैसे भाजपा और मुस्लिम लीग।
बुनियादी बात यह कि आलोचना को नामकरण की प्रवृत्ति से बचना चाहिए, साहित्य में नामकरण अथवा लेबिल लगाने की प्रवृत्ति से बचना चाहिए। लेबिल लगाने की संस्कृति बोगस संस्कृति है। उसकी हिमायत में लिखा गया समूचा तर्कशास्त्र बोगस है।
सन् साठ के बाद हिन्दी में बड़े पैमाने पर बागी,विद्रोही और क्रांतिकारी साहित्य लिखा गया है। इसके प्रति भी हमें संतुलित नजरिया बनाने की जरूरत है। बागी लेखकों को रोमैंटिक क्रांतिकारी कहकर दरकिनार नहीं किया जा सकता। बागी लेखकों में शोषण और अन्याय के प्रति सख्त घृणा है। इसका प्रतिवाद में ये किसी भी हद तक जा सकते हैं। अनेक इस भावना के कारण लंबी जेल यात्राएं भी कर चुके हैं।
बागी वह है जो अभिव्यक्ति का जोखिम उठाता है। जीवन में जोखिम उठाए बगैर सम्मान नहीं मिलता। हिन्दी में बागी साहित्य है किंतु बागी आलोचना नहीं है। उल्लेखनीय है जोखिम के अभाव में आलोचना प्रभावहीन और रूढिबद्ध होती है। आलोचना में बागी भाव का अर्थ है वर्तमान पर बोलना। आलोचनात्मक माहौल बनाना।
आलोचना में बागी भाव को अभिव्यक्त करने की बजाय अतीत का आख्यान खूब लिखा गया है। अतीत में जाने का प्रधान कारण था वर्तमान और बागी भाव से पलायन। हिन्दी में जिन लेखकों ने बागी भाव को अभिव्यक्ति दी और वर्तमान पर केन्द्रित नजरिए को प्रतिपादित किया उनकी व्यापक उपेक्षा हुई। यहां तक कि आलोचना ने उन्हें किसी न किसी बहाने ठंडे बस्ते में डाल दिया। ऐसे अनेक लेखक हैं जो हिन्दी में बागी भाव को व्यक्त करते हैं। किंतु उन लेखकों में से सुविधानुसार चुनकर ही तदर्थवादी ढंग से चर्चाएं हुई हैं।
बागी लेखन के कुछ साझा तत्व है, 1. मनुष्य के शोषण को खत्म करना ,2. मनुष्य को स्वाभाविक अवस्था में देखना ,3. परिवर्तनकामी बहुलतावाद की हिमायत। हिन्दी में बागी और क्रांतिकारी दोनों ही किस्म के लेखक हैं। हिन्दी में बागी और क्रांतिकारी लेखकों में कोई टकराहट नहीं है। ये दोनों ही हिन्दी साहित्य की साझा धरोहर हैं। बागी और क्रांतिकारी साहित्य को पर्याप्त रूप से आलोचना के द्वारा न समझ पाने का प्रधान कारण है आलोचना का सत्ता विमर्श और अतीत विमर्श में उलझे रहना। इसके अलावा सांस्कृतिक भिन्नता और वर्चस्व की संरचनाओं की गंभीर समझ का अभाव। बागी और क्रांतिकारी लेखकों के यहां बगावत और क्रांति का अनेक स्थानों पर छद्म रूपायन भी मिलता है। इस छद्म क्रांतिकारिता और बागीपन की गंभीर आलोचना होनी चाहिए। इसके महिमामंडन से बचना चाहिए।
बागी और क्रांतिकारी लेखकों की सकारात्मक विशेषता है कि वे शोषण और पतनशीलता के खिलाफ हैं। वे इन दो चीजों के सामने समर्पण करने को तैयार नहीं हैं। जाहिर है बागी और क्रांतिकारी साहित्य से क्रांतिकारी राजनीतिक संरचनाएं पैदा नहीं होतीं किंतु इस तरह की रचनाएं क्रांतिकारी और परिवर्तनकामी शक्तियों के लिए वैचारिक माहौल बनाती हैं। दूसरी बुनियादी बात यह कि रचना अथवा कला में हिंसा या सेक्स की अभिव्यक्ति नहीं होती। रचना तो महज रचना है उसे हिंसा के प्रचारक अथवा हिंसा की अभिव्यक्ति के रूप में देखना बेवकूफी है। बागी और क्रांतिकारी रचनाकार सही मायनों में अभिव्यक्ति की आजादी के सर्जक हैं। इन्हें रोमैंटिक क्रांतिकारी या हिंसा के प्रचारक कहकर खारिज करना सही नहीं होगा। ये सही अर्थों में वर्तमान की नब्ज और स्वतंत्रता की शक्ति को पहचानते हैं।
मनबहलाव के लिए एक कहानी पढ़िए। http://bhadas4media.com/book-story/4298-anil-yadav-story.html
जवाब देंहटाएंऔर आग्रह है कि कृपया अपनी राय बताइए।
आप दरअसल खिड़की से झांक कर लौट आए। वहीं होम पेज पर दाहिनी तरफ क्योंकि नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़ती का एक पैनल है। पूरी कहानी छप चुकी है।
जवाब देंहटाएंएक लिंक यह भी हैं-http://www.bhadas4media.com/book-story/4234-anil-yadav-story.html