भारत में स्त्रीवादी विचारकों ने आरंभ में स्त्री के जबरिया श्रम का दस्तावेजीकरण किया।इसके बाद ऐतिहासिक नजरिए से क्षेत्र विशेष में सेंनसस औए गजट आदि के आंकड़ों के आधार पर स्त्री का मूल्यांकन किया गया। औरतों की शिरकत में आयी गिरावट को तकनीकी परिवर्तनों के साथ जोड़कर देखा गया। इसके कारण औरतों के काम के क्षेत्रों के खत्म हो जाने को रेखांकित किया गया। खासकर खनन,कपड़ा आदि क्षेत्रों में औरत के काम के अवसर खत्म हो जाने की ओर ध्यान खींचा गया। इसके अलावा उपनिवेशवाद और निजीकरण के प्रभाव का भी अध्ययन किया गया। सन् 1974 में पहलीबार महिलाओं की अवस्था पर जो राष्ट्रीय रिपोर्ट आयी उसमें स्त्री की गिरती हुई अवस्था पर गहरी चिन्ता व्यक्त की गई। साथ ही परंपरागत अर्थव्यवस्था में औरत के स्पेस के सवाल पर पहलीबार गंभीरता से विचार किया गया।
इसी रिपोर्ट में पहलीबार यह दरशाया गया कि औरतें घर में क्या-क्या काम करती हैं। इसके आंकड़े पहलीबार सामने आए।ये आंकड़े अर्थषास्त्र का हिस्सा बने,इस प्रकार स्त्री का श्रम पहलीबार अर्थषास्त्र में दाखिल हुआ। बाद में स्त्री के किन कार्यों में पगार कम मिलती है, सेंसस में औरतों के आंकड़े किस तरह मेनीपुलेट किए जाते रहे हैं , कृशि क्षेत्र में औरतों के श्रम से जुड़ी समस्याएं क्या हैं, मानव विकास जेण्डर डवलपमेंट इण्डेक्स की महत्ता, भूमंडलीकरण और नव्य उदारतावादी आर्थिक नीतियों के औरतों पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में अध्ययन हुए हैं।
सन् 1996 में पहलीबार महिला आरक्षण विधेयक पेश किया गया था। तबसे लोकसभा -में मांग उठती रही है। पंचायतों में 33 फीसदी आरक्षण लागू हो चुका है।हाल ही में केन्द्रीय मंत्रीमंडल ने इसे स्वीकृति दे दी है और उम्मीद की जा रही है कि 8मार्च 2010 को इसे संसद से स्वीकृति मिल जाएगी। इस समय कांग्रेस,भाजपा,वाम,टीडीपी,बीजू जनतादल वगैरह का इस विधेयक को समर्थन मिल चुका है। सपा,बसपा,जद आदि विरोध कर रहे हैं।
इस प्रक्रिया का सर्वसम्मत परिणाम है महिला की राजनीतिक केटेगरी के रूप में स्वीकृति। यह इस बात का संकेत है कि समाज में औरतें आज भी काफी पीछे हैं। उन्हें अभी तक समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिला है। जेण्डर की केटेगरी के राजनीतिक क्षेत्र में प्रयोग के बारे में ऐतिहासिक तौर पर विचार करें तो पाएंगे कि स्त्री को राजनीतिक केटेगरी के रूप में गांधीजी के प्रथम असहयोग आन्दोलन में पहलीबार स्वीकार किया गया।
बाद में दूसरीबार 90 के दशक में राजनीतिक केटेगरी के रूप में स्वीकार किया गया। इसके अलावा सब समय स्त्री की उपेक्षा हुई है उसे राजनीतिक केटेगरी के रूप में देखने से हम इंकार करते रहे हैं।
सारी दुनिया के जितने भी जनतांत्रिक देश हैं वे महिलाओं को मतदान का अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। उदारवादी पूंजीवादी नजरिया यह मानता रहा है कि समाज,राजनीति,संस्कृति,तर्क, न्याय,दर्शन, पावर, स्वाधीनता आदि मर्द के क्षेत्र हैं। स्त्री और पुरूष दोनों अलग हैं। इनमें वायनरी अपोजीशन है। औरत की जगह प्राइवेट क्षेत्र में है। उसका स्थान निजी, व्यक्तिगत,प्रकृति,भावना,प्रेम,नैतिकता, इलहाम आदि में हैं।खासकर समर्पण में उसकी जगह है। यहां तक कि स्पेयर्स की सैध्दान्तिकी स्त्री को नागरिकता से वचित करती है। इस सवाल पर औरतों ने 18वीं षताब्दी से लेकर आज तक लम्बी लड़ाईयां लड़ी हैं जिनके परिणामस्वरूप स्त्रियों को बीसवीं के आरंभ में खासकर प्रथम विश्व युध्द की समाप्ति के बाद मतदान का अधिकार मिला। इन संघर्षों का विभिन्न देशों पर अलग-अलग असर हुआ।
सन् 1917 में वूमेन्स इण्डियन एसोसिएशन की ओर से सरोजिनी नायडू के नेतृत्व एक प्रतिनिधिमंडल मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड कमेटी से मिलने गया। जिसमें अन्य मांगों के अलावा यह मांग रखी गयी कि औरतों को मर्दों की तरह ही मतदान का अधिकार दिया जाए। इसमें शिक्षा और संपत्ति की शर्त्त लगी हुई थी। उल्लेखनीय है कि स्त्री के लिए सामाजिक क्षेत्र मे अपने लिए जगह बनाने का सवाल लम्बे समय से विवाद के केन्द्र में रहा है। सार्वजनिक स्थान और प्राइवेट स्थान के रूप में लंबे समय से स्त्री-पुरूष के बीच में विभाजन चला आ रहा है। इसे स्वाधीनता संग्राम के दौरान स्त्रियों ने चुनौती दी।
इसी रिपोर्ट में पहलीबार यह दरशाया गया कि औरतें घर में क्या-क्या काम करती हैं। इसके आंकड़े पहलीबार सामने आए।ये आंकड़े अर्थषास्त्र का हिस्सा बने,इस प्रकार स्त्री का श्रम पहलीबार अर्थषास्त्र में दाखिल हुआ। बाद में स्त्री के किन कार्यों में पगार कम मिलती है, सेंसस में औरतों के आंकड़े किस तरह मेनीपुलेट किए जाते रहे हैं , कृशि क्षेत्र में औरतों के श्रम से जुड़ी समस्याएं क्या हैं, मानव विकास जेण्डर डवलपमेंट इण्डेक्स की महत्ता, भूमंडलीकरण और नव्य उदारतावादी आर्थिक नीतियों के औरतों पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में अध्ययन हुए हैं।
सन् 1996 में पहलीबार महिला आरक्षण विधेयक पेश किया गया था। तबसे लोकसभा -में मांग उठती रही है। पंचायतों में 33 फीसदी आरक्षण लागू हो चुका है।हाल ही में केन्द्रीय मंत्रीमंडल ने इसे स्वीकृति दे दी है और उम्मीद की जा रही है कि 8मार्च 2010 को इसे संसद से स्वीकृति मिल जाएगी। इस समय कांग्रेस,भाजपा,वाम,टीडीपी,बीजू जनतादल वगैरह का इस विधेयक को समर्थन मिल चुका है। सपा,बसपा,जद आदि विरोध कर रहे हैं।
इस प्रक्रिया का सर्वसम्मत परिणाम है महिला की राजनीतिक केटेगरी के रूप में स्वीकृति। यह इस बात का संकेत है कि समाज में औरतें आज भी काफी पीछे हैं। उन्हें अभी तक समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिला है। जेण्डर की केटेगरी के राजनीतिक क्षेत्र में प्रयोग के बारे में ऐतिहासिक तौर पर विचार करें तो पाएंगे कि स्त्री को राजनीतिक केटेगरी के रूप में गांधीजी के प्रथम असहयोग आन्दोलन में पहलीबार स्वीकार किया गया।
बाद में दूसरीबार 90 के दशक में राजनीतिक केटेगरी के रूप में स्वीकार किया गया। इसके अलावा सब समय स्त्री की उपेक्षा हुई है उसे राजनीतिक केटेगरी के रूप में देखने से हम इंकार करते रहे हैं।
सारी दुनिया के जितने भी जनतांत्रिक देश हैं वे महिलाओं को मतदान का अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। उदारवादी पूंजीवादी नजरिया यह मानता रहा है कि समाज,राजनीति,संस्कृति,तर्क, न्याय,दर्शन, पावर, स्वाधीनता आदि मर्द के क्षेत्र हैं। स्त्री और पुरूष दोनों अलग हैं। इनमें वायनरी अपोजीशन है। औरत की जगह प्राइवेट क्षेत्र में है। उसका स्थान निजी, व्यक्तिगत,प्रकृति,भावना,प्रेम,नैतिकता, इलहाम आदि में हैं।खासकर समर्पण में उसकी जगह है। यहां तक कि स्पेयर्स की सैध्दान्तिकी स्त्री को नागरिकता से वचित करती है। इस सवाल पर औरतों ने 18वीं षताब्दी से लेकर आज तक लम्बी लड़ाईयां लड़ी हैं जिनके परिणामस्वरूप स्त्रियों को बीसवीं के आरंभ में खासकर प्रथम विश्व युध्द की समाप्ति के बाद मतदान का अधिकार मिला। इन संघर्षों का विभिन्न देशों पर अलग-अलग असर हुआ।
सन् 1917 में वूमेन्स इण्डियन एसोसिएशन की ओर से सरोजिनी नायडू के नेतृत्व एक प्रतिनिधिमंडल मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड कमेटी से मिलने गया। जिसमें अन्य मांगों के अलावा यह मांग रखी गयी कि औरतों को मर्दों की तरह ही मतदान का अधिकार दिया जाए। इसमें शिक्षा और संपत्ति की शर्त्त लगी हुई थी। उल्लेखनीय है कि स्त्री के लिए सामाजिक क्षेत्र मे अपने लिए जगह बनाने का सवाल लम्बे समय से विवाद के केन्द्र में रहा है। सार्वजनिक स्थान और प्राइवेट स्थान के रूप में लंबे समय से स्त्री-पुरूष के बीच में विभाजन चला आ रहा है। इसे स्वाधीनता संग्राम के दौरान स्त्रियों ने चुनौती दी।
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