फेसबुक पर कुछ
लोग गजब तर्क दे रहे हैं,कह रहे हैं गालियों को धर्म के साथ न जोड़ें,हम यही कहेंगे धर्म के साथ जाति,रोटी,बेटी,नौकरी,हैसियत सब जुडी है फिर गाली ने ऐसा खास क्या
किया है कि धर्म से काटकर गालियों को देखा जाए !
गाली देने वाले
किस धर्म को मानते और जानते हैं,इससे स्वभावतःधर्म के साथ गालियां भी
जुड़ेंगी।इससे भी बड़ा सवाल यह है कि जब राजनीति में गालियों के बिना संप्रेषण
संभव है तो गालियां क्यों दी गयीं ?
फेसबुक पर बिना
गालियों के बातें कह सकते हैं तो मोदीभक्त गंदी-गंदी गालियां क्यों लिखते हैं ?निश्चित तौर पर उनके संघ प्रतिपादित हिन्दू धर्म में गालियां परिशिष्ट के रूप
में सिखाई जाती हों !
इसके विपरीत पश्चिम
बंगाल में सबसे पिछड़े इलाके में भी आम लोग अशिक्षित लोग गालियां देकर बातें नहीं
करते।गालियां समाज में से कैसे जाएं इस पर हमने सोचा ही नहीं।
हिन्दी के पब्लिक
कम्युनिकेशन में गालियां जिस पर तरह प्रचलन में हैं कम से कम बंगला में यह सब नहीं
है।बंगाली कभी आपस में बातें करते हुए गालियां नहीं देते,कलकत्ते में बात करते लोग देखें वे आमतौर पर गालियां नहीं बोलते,फिर हिन्दी में ही गालियां क्यों हैं ?
मैं नहीं जानता
सच्चाई क्या है लेकिन लगता है हिन्दीभाषी मोदीभक्त फेसबुक पर गालियां ज्यादा देते
हैं,उसी तरह आरएसएस से जुड़े संगठनों के हिन्दीभाषी नेता भी
सार्वजनिकतौर पर आए दिन गालियां देते रहते हैं।
जंगली बुद्धि में
गालियां रहती हैं,बुद्धि का यह रूप
कहीं पर भी हो सकता है,लेकिन वहां पर
इसका विकास ज्यादा होता है जहां पर ग्राम्य-बर्बरता बची हुई है।हिन्दीभाषी क्षेत्र
में ग्राम्य-बर्बरता के खिलाफ हमने कोई जंग नहीं लड़ी,इसके विपरीत रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार ईश्वरचन्द्र
विद्यासागर का सबसे बड़ा योगदान था कि उन्होंने ग्राम्य-बर्बरता के खिलाफ जंग लड़ी
और उसे ध्वस्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी,हिन्दीभाषी क्षेत्र में ऐसा कुछ भी न हो सका।बंगाल गालियों
से मुक्त हो गया,लेकिन हिन्दीभाषी
मुक्त न हो सके।हिन्दीभाषी क्षेत्र में गाली वाला नायक है,बंगला में एकदम नापसंद किया जाता है,उससे लोग नफरत करते हैं।ममता के खिलाफ माकपा के कई नेताओं
ने गंदी गालियों का प्रयोग किया था वे नेता और माकपा आज कूड़े के ढ़ेर पर पड़े
हैं।
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