शनिवार, 9 जुलाई 2016

युवाओं में वैचारिक विभाजन




भारत का मध्यवर्ग आज विचारधारा के आधार पर जितना विभाजित है उतना पहले कभी नहीं था।पहले कुछ मसलों पर मध्यवर्ग में एकता थी,लेकिन इस समय हर विषय पर मोदी समर्थक,संघ समर्थक,कांग्रेस समर्थक,वाम समर्थक आदि के विचारधारात्मक विभाजन को सीधे देखा जा सकता है।मध्यवर्ग में राष्ट्र की अवधारणा और उसकी एकता की धुरी गायब है और उसकी जगह विचारधारा की धुरी आ गयी है।इससे देश के विकास में बाधा पहुँच रही है।विचारधारा के आधार पर समाज का विभाजन काफी पहले शुरू हो गया था,संभवतःआपातकाल के बाद इस तरह की प्रक्रिया के बीज पड़े जिनको 1990-91 के बाद जमकर फलने-फूलने का मौका मिला,इस समय तो विचारधारा के आधार पर सामाजिक विभाजन पूरे चरम पर है।यह सामाजिक कमजोरी का लक्षण है।
       
मजेदार बात यह है कि भारत के युवा जिनकी उम्र17 से 22 साल के बीच है वे सबसे ज्यादा विचारधारात्मक विभाजन के शिकार हैं,इनमें उदार मूल्यों के प्रति एकता कम और अनुदार और प्रतिगामी मूल्यों के प्रति आकर्षण बढ़ा है।इसकी तुलना में अशिक्षित समुदाय आज भी विचारधारात्मक विभाजन से मुक्त है।

मैंने अपने जीवन में वैचारिक विभाजन छात्रजीवन में नहीं देखा,जबकि जेएनयू में पढ़ता था,व्यापक स्तर पर सघन वैचारिक जंग होती थी लेकिन छात्रों में विचारधारात्मक विभाजन नहीं था,लेकिन मौजूदा दौर बेहद खतरनाक है,इसने युवाओं को बांट दिया है।इस समय पुराने जेएनयू वाले मित्र भी बंटे हैं। युवा आपस में बंटे हैं,युवाओं का अपने से बड़ों यानी अभिभावकों से विचारधारात्मक टकराव है।इस स्थिति में लगातार कंजरवेटिव और आक्रामक विचारों की ओर रूझान बढ़ रहा है।स्थिति की भयावहता का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि गृहिणी किस्म की महिलाएं बड़ी संख्या में जो पहले उदारमना होती थीं उनमें राष्ट्रवाद,मोदीवाद टाइप संकीर्ण विचारधाराएं आ गयी हैं।वे राजनीति नहीं जानतीं,लेकिन राष्ट्रवाद के पक्ष में हैं।कहने का अर्थ है राजनीतिविहीन लोगों को विचारधारात्मक विभाजन तेजी से अपनी गिरफ्त में ले रहा है।फलतः पृथकतावादी और साम्प्रदायिक ताकतें खुलकर घरेलू औरतों का दुरूपयोग कर रही हैं।

विश्वविद्यालयों में उदार मूल्यों को मूलाधार बनाकर जो व्यापक सामाजिक एकता या छात्र एकता विकसित हुई थी आज वह पूरी तरह से गायब है।विश्वविद्यालयों में विचारधारात्मक विभाजन सबसे ज्यादा है और उसमें कंजरवेटिव मूल्यों पर एकता बढी है।मूल्यहीन चीजों पर एकता बढ़ी है,इसने विश्वविद्यालय स्नातकों के सामाजिक स्तर का अवमूल्यन किया है।हमने इन छात्रों के अंदर मूल्यों के विघटन के सवालों पर बातें करना बंद कर दिया है।इन दिनों कैंपस का समूचा परिवेश स्थानीय राजनीति का अखाड़ा मात्र बनकर रह गया है।



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