कुछ लोग हैं जिनको प्रेमचंद की जन्मदिन पर याद आती है और फिर भूल जाते हैं,लेकिन इस तरह के लेखक-पाठक भी हैं जो हमेशा याद करते हैं। प्रेमचंद हिन्दी के सदाबहार लेखक हैं,उनको सारा देश ही नहीं सारी दुनिया जानती है,वे किसी सरकार के प्रमोशन के जरिए,विश्वविद्यालय में प्रोफेसरी के जरिए,चेलों की जमात के जरिए महान नहीं बने,बल्कि कलम के बलबूते पर जनप्रिय बने। सवाल यह प्रेमचंद को कौन सी चीज है जो महान बनाती है ॽ प्रेमचंद को महान बनाया उनकी भारतीय समाज की गहरी समझ और यथार्थ चित्रण के प्रति गहरी आस्था ने।
हिन्दी में अनेक लेखक हैं जो चित्रण करना जानते हैं लेकिन समाज की गहरी समझ का अभाव है इसके कारण उनके चित्रण में वह गहराई नहीं दिखती जो प्रेमचंद के यहां दिखती है। प्रेमचंद की महानता का दूसरा बड़ा कारण है उनका गरीबों,किसानों और धर्मनिरपेक्ष समाज के प्रति गहरा लगाव।वे साहित्य के जरिए प्रचार करने से डरते नहीं थे। उन्होंने लिखा ´सभी लेखक कोई न कोई प्रोपेगेंडा करते हैं- सामाजिक, नैतिक या बौद्धिक।अगर प्रोपेगेंडा न हो तो संसार में साहित्य की जरूरत न रहे,जो प्रोपेगेंडा नहीं कर सकता वह विचारशून्य है और उसे कलम हाथ में लेने का कोई अधिकार नहीं।मैं उस प्रोपेगेंडा को गर्व से स्वीकार करता हूँ।´उनका यह कथन फेसबुक लेखन के संदर्भ में आज और भी प्रासंगिक हो उठा है।
आज समाज के सामने साम्प्रदायिकता का खतरा सबसे बड़ी चुनौती है,कल तक साम्प्रदायिक ताकतें सत्ता के बाहर थीं आज वे सत्ता पर काबिज हैं,ऐसी स्थिति में उनके वैचारिक चरित्र को समझने में प्रेमचंद हमारे मददगार हो सकते हैं, प्रेमचंद ने लिखा है "साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है।उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था,संस्कृति का खाल ओढ़कर आती है।"
हमारे समाज में ऐसे लोग भी हैं जो अच्छी और बुरी साम्प्रदायिकता का विभाजन करते हैं। इस नजरिए की आलोचना में प्रेमचंद ने लिखा "हम तो साम्प्रदायिकता को समाज का कोढ़ समझते हैं,जो हर एक संस्था में दलबंदी कराती है और अपना छोटा-सा दायरा बना सभी को उससे बाहर निकाल देती है।"
भारत के आधुनिक समाज की सबसे कठिन समस्या है अंधविश्वास । क्या हमारे पास अंधविश्वासों से लड़ने का कोई मार्ग है ? अंधविश्वासों के प्रति सामाजिक आस्थाएं कमजोर होने की बजाय और भी पुख्ता बनी हैं ?मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है "हममें मस्तिष्क से काम लेने की मानों शक्ति ही नहीं रही। दिमाग को तकलीफ नहीं देना चाहते। भेड़ों की तरह एक-दूसरे के पीछे दौड़े चले जाते हैं,कुएँ में गिरें या खन्दक में,इसका गम नहीं। जिस समाज में विचार मंदता का ऐसा प्रकोप हो,उसको सँभलते बहुत दिन लगेंगे।"
समाज में इन दिनों अतीत के महिमामंडन पर बहुत जोर दिया जा रहा है।इस पर कथाकार प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है "बन्धनों के सिवा और ग्रंथों के सिवा हमारे पास क्या था। पंडित लोग पढ़ते थे और योद्धा लोग लड़ते थे और एक-दूसरे की बेइज्जती करते थे और लड़ाई से फुरसत मिलती थी तो व्यभिचार करते थे। यह हमारी व्यावहारिक संस्कृति थी। पुस्तकों में वह जितनी ही ऊँची और पवित्र थी,व्यवहार में उतनी ही निन्द्य और निकृष्ट।"
अंत में, प्रेमचंद को अकबर का एक शेर पसंद था-देखें- "दिल मेरा जिससे बहलता कोई ऐसा न मिला।बुत के बंदे मिले अल्लाह का बंदा न मिला।।"
हिन्दी में अनेक लेखक हैं जो चित्रण करना जानते हैं लेकिन समाज की गहरी समझ का अभाव है इसके कारण उनके चित्रण में वह गहराई नहीं दिखती जो प्रेमचंद के यहां दिखती है। प्रेमचंद की महानता का दूसरा बड़ा कारण है उनका गरीबों,किसानों और धर्मनिरपेक्ष समाज के प्रति गहरा लगाव।वे साहित्य के जरिए प्रचार करने से डरते नहीं थे। उन्होंने लिखा ´सभी लेखक कोई न कोई प्रोपेगेंडा करते हैं- सामाजिक, नैतिक या बौद्धिक।अगर प्रोपेगेंडा न हो तो संसार में साहित्य की जरूरत न रहे,जो प्रोपेगेंडा नहीं कर सकता वह विचारशून्य है और उसे कलम हाथ में लेने का कोई अधिकार नहीं।मैं उस प्रोपेगेंडा को गर्व से स्वीकार करता हूँ।´उनका यह कथन फेसबुक लेखन के संदर्भ में आज और भी प्रासंगिक हो उठा है।
आज समाज के सामने साम्प्रदायिकता का खतरा सबसे बड़ी चुनौती है,कल तक साम्प्रदायिक ताकतें सत्ता के बाहर थीं आज वे सत्ता पर काबिज हैं,ऐसी स्थिति में उनके वैचारिक चरित्र को समझने में प्रेमचंद हमारे मददगार हो सकते हैं, प्रेमचंद ने लिखा है "साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है।उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था,संस्कृति का खाल ओढ़कर आती है।"
हमारे समाज में ऐसे लोग भी हैं जो अच्छी और बुरी साम्प्रदायिकता का विभाजन करते हैं। इस नजरिए की आलोचना में प्रेमचंद ने लिखा "हम तो साम्प्रदायिकता को समाज का कोढ़ समझते हैं,जो हर एक संस्था में दलबंदी कराती है और अपना छोटा-सा दायरा बना सभी को उससे बाहर निकाल देती है।"
भारत के आधुनिक समाज की सबसे कठिन समस्या है अंधविश्वास । क्या हमारे पास अंधविश्वासों से लड़ने का कोई मार्ग है ? अंधविश्वासों के प्रति सामाजिक आस्थाएं कमजोर होने की बजाय और भी पुख्ता बनी हैं ?मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है "हममें मस्तिष्क से काम लेने की मानों शक्ति ही नहीं रही। दिमाग को तकलीफ नहीं देना चाहते। भेड़ों की तरह एक-दूसरे के पीछे दौड़े चले जाते हैं,कुएँ में गिरें या खन्दक में,इसका गम नहीं। जिस समाज में विचार मंदता का ऐसा प्रकोप हो,उसको सँभलते बहुत दिन लगेंगे।"
समाज में इन दिनों अतीत के महिमामंडन पर बहुत जोर दिया जा रहा है।इस पर कथाकार प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है "बन्धनों के सिवा और ग्रंथों के सिवा हमारे पास क्या था। पंडित लोग पढ़ते थे और योद्धा लोग लड़ते थे और एक-दूसरे की बेइज्जती करते थे और लड़ाई से फुरसत मिलती थी तो व्यभिचार करते थे। यह हमारी व्यावहारिक संस्कृति थी। पुस्तकों में वह जितनी ही ऊँची और पवित्र थी,व्यवहार में उतनी ही निन्द्य और निकृष्ट।"
अंत में, प्रेमचंद को अकबर का एक शेर पसंद था-देखें- "दिल मेरा जिससे बहलता कोई ऐसा न मिला।बुत के बंदे मिले अल्लाह का बंदा न मिला।।"
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