सोमवार, 25 जुलाई 2016

नामवरजी का नायकीय व्यक्तिवाद

       नामवरजी के पढ़ाए और सताए सैंकड़ों छात्र हैं,इससे ज्यादा उनके प्रशंसक और भक्त छात्र हैं।वे जब तक भारतीय भाषा केन्द्र ,भाषा संस्थान,जेएनयू में प्रोफेसर के रूप में पढ़ाते रहे उनके व्यक्तित्व के सामने विभाग के अन्य किसी शिक्षक का व्यक्तित्व निखरकर सामने नहीं आ पाया,वे सभी के व्यक्तित्व पर छाए रहे।वे 90साल के हो गए हैं।स्वस्थ हैं और सक्रिय हैं,हम सबके लिए यह सुखद बात है।हम सब यही चाहेंगे कि और भी अधिक लंबी उम्र तक जिंदा रहें।

नामवरजी के अंदर एक चीज है जिसे ´नायकीय व्यक्तिवाद´ कहते हैं। वे जहां रहे,नायक की तरह रहे,नायक की तरह काम किया,अच्छा या बुरा जो भी काम किया नायक की तरह काम किया।उनके संदर्भ में ´नायकीय व्यक्तिवाद´ का अर्थ क्या है ॽ यदि वे साहित्य पर बोल रहे हैं तो उनके शब्द साहित्य की पहचान और व्याख्या को प्रभावित करते हैं।वे जब बोलते हैं तो लगता है नामवर प्रमुख हैं साहित्य गौण है।श्रोतागण धार्मिक कर्मकांड की तरह उनको सुनते हैं। धार्मिक आस्था के साथ बैठे रहते हैं। वे जब किसी कार्यक्रम में रहते हैं तो अपनी मौजूदगी को वैध ठहराते हैं।लगता है नामवरजी को बुला लिया,कार्यक्रम सफल हो गया ! कोई यह नहीं देखता कि वे क्या बोले ॽ अच्छा बोले या खराब बोले!आयोजक और श्रोता इससे खुश कि नामवरजी आ गए! वे अपनी मौजूदगी के अनुभव से उत्तेजना पैदा करते हैं।नामवरजी को यह गुण मार्क्स से नहीं नीत्शे से मिला है।नामवरजी की खूबी है जो बोलते हैं उसका पालन नहीं करते। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने हजारों भाषण दिए हैं,लेकिन गिनती के भाषण स्वयं लिखे हैं। वे अपने भाषण को लिखने से क्यों कतराते रहे इसका आजतक कोई सटीक उत्तर उन्होंने नहीं दिया।

नामवरजी के लिए भाषण देना धार्मिक कर्मकांड की तरह है। भक्त उनको वाचिक परंपरा का अंतिम आचार्य कहते हैं।प्रश्न यह है उनके भाषण उनके जीवन का अंग हैं या नहीं ॽ यदि जीवन का अंग हैं तो भाषणों की संगति में वे अपने जीवन का विकास क्यों नहीं कर पाए ॽयह कैसे हुआ कि जीवनानुभव और ज्ञानानुभव में भयानक अंतराल आ गया !



नामवरजी अपना समूचा कार्य-व्यापार आस्था के आधार पर चलाते रहे हैं,जो उनके प्रति आस्थावान हैं नामवरजी के वे प्रिय हैं! जो उनके प्रति आस्था नहीं रखते नामवरजी उनको घास नहीं डालते,चाहे वह कितना ही योग्य और सक्षम हो।यही आस्था नामवरजी को आरएसएस के आयोजकों तक ले गयी है।आरएसएस वालों में भी वे सब गुण हैं जो किसी आस्थावाले में होते हैं।यही वजह है नामवरजी ने साहित्य और अकादमिक जगत के सभी फैसले आस्था की कसौटी पर कसकर लिए,जो आस्था में खरा उतरा वह उनका हुआ जो आस्थारहित था उसे उन्होंने तिरस्कृत किया।आस्था का पहलू इतना प्रबल है कि नामवरजी की वैचारिक प्रतिबद्धता को उसने हमेशा के लिए दफ्न कर दिया।अब नामवरजी का नायकीय व्यक्तिवाद था और आस्था थी,ये दोनों चीजें जेएनयू में रहते हुए ही जन्म ले चुकी थीं,इन दोनों को उन्होंने खूब पाला-पोसा बड़ा किया।

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