धर्म पहले जीवनशैली का अंग था लेकिन मनुष्य के विकास के क्रम में जीवनशैली बदली धर्म की भूमिका बदली,धर्म को जीवनशैली से अलग किया गया,वह विचार बना,दर्शन बना,विचारधारा बना,लेकिन जीवनशैली से धर्म का निकल जाना सबसे बड़ी मानवीय सफलता थी।आज भी धर्म हमारी जीवनशैली के अधिकांश से बाहर धकेला जा चुका है और यह काम मनुष्य ने स्वेच्छा से किया है,अनुभवों के आधार पर किया है।पूंजीवाद के आने के साथ धर्म की समस्त मान्यताओं,पवित्रताओं के रूपों को नष्ट कर दिया है,धर्म को धंधे और मुनाफे में बदल दिया है।अब धर्म तो है लेकिन उसमें पुराने धर्म जैसी कोई चीज नहीं बची है।अब धर्म भी उद्योग है।
मनुष्य का जीवन जितना अनुभव समृद्ध होता जाता है वह धर्म को त्यागता चला जाता है।धर्म इसी क्रम में ईश्वर बना,मूर्ति बना,अंधविश्वास बना,विचारधारा बना और अंत में डिजिटल बना।
डिजिटल युग में धर्म है लेकिन आभासी रूप में।मसलन्,मैं कहने को हिन्दू हूं लेकिन हिन्दुओं के किसी धार्मिक संस्कार का नियमतःपालन नहीं करता,मैं चोटी नहीं रखता,जनेऊ नहीं पहनता ,उसे उतार चुका हूँ,मंदिर में जाता हूँ मूर्तियों को प्रणाम करता हूं,भेंट भी चढ़ाता हूं ,लेकिन ईश्वर की सत्ता को नहीं मानता।मेरे अधिकांश मित्र हिन्दू हैं और भी वे भी यही करते हैं।लोग सवाल कर सकते हैं कि मैं भगवान को नहीं मानता तो मंदिरों में जाता क्यों हूँ,मैंं मंदिर में इसलिए जाता हूँ कि यह सब हमारी पुरानी सभ्यता के अवशेष हैं।धर्म पहले आदत था,आज भी जिनकी आदतें नहीं बदली हैं उनके जीवन में धर्म बचा है,जिनकी आदतें बदल गयी है,धर्म उनके जीवन से निकल गया है।
पर्यटन और धर्म में अंतर करो.गंगा में डुबकीपर्यटन है,मंदिर दर्शन घूमना है, धर्म नहीं है,इसी तरह कथा सुनना टाइम पास है,धर्म नहीं।भारत की अधिकांश मेहनतकश जनता ईश्वर और उसके तंत्र पर विश्वास नहीं करती, संस्कार नहीं मानती,ईश्वर उनके लिए मनोरंजन है।
कौन बच्चा है जिसने अनेक बार भगवान की मूर्ति न तोड़ी हो! बच्चों से बड़ा ईश्वरद्रोही कोई नहीं है,बच्चे तमाम पंडितों और उनके शास्त्र से ज्यादा ताकत रखते हैं। समाज में खेल संस्कृति जितनी मजबूत होगी,ईश्वर उतना ही कमजोर होगा। ईश्वर को हमने जिस क्षण मूर्ति बनाया उसी क्षण उसे खिलौना बना दिया। ईश्वर का खिलौना बनना उसके लोप का आरंभ है।यह काम किसी और ने नहीं बच्चों ने किया,बच्चों ने खेल ही खेल में ईश्वर की जीवन से विदाई की घोषणा कर दी,इस नजरिए से देखें तो बच्चों ने ईश्वर को समाज से सर्जनात्मकता के जरिए विदा किया।आप सर्जक बनते जाइए ईश्वर स्वतः ही चला गया है आपके अंदर से।
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