सामाजिक विकास के लिए बिजली महत्वपूर्ण है। बिजली नहीं तो आधुनिकता नहीं। जो लोग सोचते हैं बिजली के बिना रैनैसां कर लेंगे वे देखें देश में बिजली जहां पहुँची है वहीं पर रैनेसां हुआ है। बिजली महत्वपूर्ण तत्व है आधुनिकता को समझने के लिए। काश ,हमारे लेखकों-राजनेताओं और रेनैसां नायकों ने बिजली की सत्ता-महत्ता को समझा होता। आज बिन बिजली सब सून।
इसी तरह भारत की सबसे बड़ी बाधा है पुरानी मुर्दा आदतों में जीना। आधुनिक भारत के निर्माण के लिए हमें बाधामुक्त जीवनशैली को अपनाना चाहिए। हमारे विचार नए हैं, संविधान नया है, तनख्बाह नई है, नए माल खाते हैं, लेकिन आदतें और सोचने का ढ़ंग सदियों साल पुराना है और इसके कारण भारत के अंदर एक विलक्षण नस्ल तैयार हुई है जिसके कपड़े नए हैं,दिमाग पुराना है। जिसकी चाहतें नई हैं, उन्हें पाने के उपकरण और आदतें पुरानी हैं। पुरानेपन से भारत को मुक्त करने के लिए शॉक थैरेपी की सख्त जरूरत है।पुराने को पूरी तरह त्यागे आधुनिक नागरिक नहीं बन सकते।इस प्रसंग में किताबें हमारी मदद कर सकती हैं,समाज को बदल सकती है।इस संदर्भ में वाल्टर बेंजामिन की कुछ बातों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।
वाल्टर बेंजामिन ने लिखा हैः "किताबों और रंडियों को देखकर कोई नहीं कह सकता कि समय उनके लिए मूल्यवान होगा। लेकिन उनके करीब जाने पर ही पता लग सकता है कि वे किस कदर जल्दबाजी में होती हैं।जैसे ही आपकी दिलचस्पी उनमें खत्म होती है,वे चलने की तैयारी करने लगती हैं। "
"किताबें और रंडिया बिस्तर पर ले जाई जा सकती हैं।"
" किताबें और रंडियां समय को बदल देती हैं।वे रात को दिन और दिन को रात में बदल देने की कूबत रखती हैं।"
वाल्टर बेंजामिन के अनुसार यह समाज ,जिसका हर सदस्य अपने निजी कल्याण में लगा है,पाशविक असंवेदनशीलता और जड़ पूर्वाभास का शिकार है।मशीनों द्वारा कलाकृति का पुनरूत्पादन कला के प्रति जनता के रूख को भी बदल देता है।पिकासो के चित्र के प्रति प्रतिक्रियावादी रूख चार्ली चैप्लिन के फिल्मों के प्रति प्रगतिशील होजाता है।प्रगतिशील रूख का मतलब है कि आस्वादन और आलोचना दोनों मिलकर एक हो जाते हैं।
वाल्टर बेंजामिन का मानना है -" यूं तो कच्ची चीजें पेट के लिए स्वास्थ्यप्रद होती हैं।उसी तरह कुछ कच्चा ,और खासकर , स्वयं का भोगा हुआ अनुभव लाभकारी होता है।"
बेंजामिन ने लिखा है - "प्रशंसा की बौछार सबसे अधिक रचनाकार को ही संदिग्ध बना देती है
इसी तरह भारत की सबसे बड़ी बाधा है पुरानी मुर्दा आदतों में जीना। आधुनिक भारत के निर्माण के लिए हमें बाधामुक्त जीवनशैली को अपनाना चाहिए। हमारे विचार नए हैं, संविधान नया है, तनख्बाह नई है, नए माल खाते हैं, लेकिन आदतें और सोचने का ढ़ंग सदियों साल पुराना है और इसके कारण भारत के अंदर एक विलक्षण नस्ल तैयार हुई है जिसके कपड़े नए हैं,दिमाग पुराना है। जिसकी चाहतें नई हैं, उन्हें पाने के उपकरण और आदतें पुरानी हैं। पुरानेपन से भारत को मुक्त करने के लिए शॉक थैरेपी की सख्त जरूरत है।पुराने को पूरी तरह त्यागे आधुनिक नागरिक नहीं बन सकते।इस प्रसंग में किताबें हमारी मदद कर सकती हैं,समाज को बदल सकती है।इस संदर्भ में वाल्टर बेंजामिन की कुछ बातों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।
वाल्टर बेंजामिन ने लिखा हैः "किताबों और रंडियों को देखकर कोई नहीं कह सकता कि समय उनके लिए मूल्यवान होगा। लेकिन उनके करीब जाने पर ही पता लग सकता है कि वे किस कदर जल्दबाजी में होती हैं।जैसे ही आपकी दिलचस्पी उनमें खत्म होती है,वे चलने की तैयारी करने लगती हैं। "
"किताबें और रंडिया बिस्तर पर ले जाई जा सकती हैं।"
" किताबें और रंडियां समय को बदल देती हैं।वे रात को दिन और दिन को रात में बदल देने की कूबत रखती हैं।"
वाल्टर बेंजामिन के अनुसार यह समाज ,जिसका हर सदस्य अपने निजी कल्याण में लगा है,पाशविक असंवेदनशीलता और जड़ पूर्वाभास का शिकार है।मशीनों द्वारा कलाकृति का पुनरूत्पादन कला के प्रति जनता के रूख को भी बदल देता है।पिकासो के चित्र के प्रति प्रतिक्रियावादी रूख चार्ली चैप्लिन के फिल्मों के प्रति प्रगतिशील होजाता है।प्रगतिशील रूख का मतलब है कि आस्वादन और आलोचना दोनों मिलकर एक हो जाते हैं।
वाल्टर बेंजामिन का मानना है -" यूं तो कच्ची चीजें पेट के लिए स्वास्थ्यप्रद होती हैं।उसी तरह कुछ कच्चा ,और खासकर , स्वयं का भोगा हुआ अनुभव लाभकारी होता है।"
बेंजामिन ने लिखा है - "प्रशंसा की बौछार सबसे अधिक रचनाकार को ही संदिग्ध बना देती है
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