मथुरा पर जब भी बात होती है आमतौर पर जीवनशैली में रचे-बसे पहलुओं पर बातें नहीं होतीं,मथुरा की जीवनशैली में दूध और दूधवाले गहरे तक रचे बसे थे।इधर 35साल में बहुत कुछ बदला, उसकी चर्चा मैं कभी फुर्सत से करूँगा।लेकिन मैं 1979 के पहले के समय को आज याद करता हूँ तो पाता हूँ शहर के विभिन्न गली-मुहल्लों के नुक्कड़ ,गली या मुख्य बाजार में कई दूधवालों की दुकानें थीं इनके ग्राहक बंधे हुए थे,इनमें हरेक के दूध का स्वाद भी अलग हुआ करता था।ऐसी भी दुकाने थीं जो मिलावटी दूध बेचती थीं ,इनकी गिनती कम थी।लेकिन असली दूध बेचने वालों की दुकानें बहुत ज्यादा हुआ करती थीं।
मथुरा के सांस्कृतिक और व्यापारिक विकास को समझने के लिए इन दूध वालों का कायदे से अध्ययन किया जाना चाहिए।यह देखें कि इनमें से कितने व्यापार में आगे गए और कितने पीछे खिसकते चले गए या शहर छोड़कर चले गए। इन दूधवाले दुकानदारों द्वारा सृजित व्यापारिक संस्कृति का अध्ययन जरूर किया जाना चाहिए।इन दूधवालों की शहर में व्यापारिक ईमानदारी और निष्ठा ने ईमानदार संस्कृति को बनाने में बहुत मदद की।ऐसा नहीं है कि ये दूधवाले व्यापार करके मुनाफा नहीं कमाते थे,मुनाफा कमाते थे,लेकिन ईमानदारी के साथ।दूध के व्यापार में मुनाफे और ईमानदारी में संतुलन की कला के दर्शन मैंने इन दूधवालों के यहां किए।
दिलचस्प बात है कि हमारे मंदिर (चर्चिका देवी) पर तकरीबन सभी दूधवाले दर्शन करने आते थे।इनमें से सभी लोग बेइंतहा शरीफ और मधुरभाषी थे।इस तरह के जनप्रिय दुकानदारों में चौक में भरतपुरिया,द्वराकाधीश की गली में गोपाल पारूआ.छत्ता बाजार में भानु पहलवान आदि कुछ नाम ही फिलहाल याद आ रहे हैं।इन दूध वालों के यहाँ दूध का मजा असल में रात को आता था।जब आप गरम-गरम दूध कुल्हड़ में ऊपर से मलाई डालकर बाजार में खड़े होकर पीते थे।यह मथुरा के लोगों की खानपान की रात्रि संस्कृति का एक जरूर हिस्सा था। इधर वर्षों से यह दृश्य में उपभोग करने से वंचित रहा हूँ।जितनीबार में चौक या द्वारकाधीश की गली या छत्ता बाजार से निकला हूँ,दूध की पुरानी बड़ी कडाही नजर नहीं आतीं,रात की वह रौनक नजर नहीं आती।
मथुरा के सांस्कृतिक और व्यापारिक विकास को समझने के लिए इन दूध वालों का कायदे से अध्ययन किया जाना चाहिए।यह देखें कि इनमें से कितने व्यापार में आगे गए और कितने पीछे खिसकते चले गए या शहर छोड़कर चले गए। इन दूधवाले दुकानदारों द्वारा सृजित व्यापारिक संस्कृति का अध्ययन जरूर किया जाना चाहिए।इन दूधवालों की शहर में व्यापारिक ईमानदारी और निष्ठा ने ईमानदार संस्कृति को बनाने में बहुत मदद की।ऐसा नहीं है कि ये दूधवाले व्यापार करके मुनाफा नहीं कमाते थे,मुनाफा कमाते थे,लेकिन ईमानदारी के साथ।दूध के व्यापार में मुनाफे और ईमानदारी में संतुलन की कला के दर्शन मैंने इन दूधवालों के यहां किए।
दिलचस्प बात है कि हमारे मंदिर (चर्चिका देवी) पर तकरीबन सभी दूधवाले दर्शन करने आते थे।इनमें से सभी लोग बेइंतहा शरीफ और मधुरभाषी थे।इस तरह के जनप्रिय दुकानदारों में चौक में भरतपुरिया,द्वराकाधीश की गली में गोपाल पारूआ.छत्ता बाजार में भानु पहलवान आदि कुछ नाम ही फिलहाल याद आ रहे हैं।इन दूध वालों के यहाँ दूध का मजा असल में रात को आता था।जब आप गरम-गरम दूध कुल्हड़ में ऊपर से मलाई डालकर बाजार में खड़े होकर पीते थे।यह मथुरा के लोगों की खानपान की रात्रि संस्कृति का एक जरूर हिस्सा था। इधर वर्षों से यह दृश्य में उपभोग करने से वंचित रहा हूँ।जितनीबार में चौक या द्वारकाधीश की गली या छत्ता बाजार से निकला हूँ,दूध की पुरानी बड़ी कडाही नजर नहीं आतीं,रात की वह रौनक नजर नहीं आती।
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