प्रेमचंद की महानता इस बात में है कि वे साम्प्रदायिकता के जहर को अच्छी तरह पहचानते थे। उन्होंने उस धारणा का खण्डन किया जिसके तहत अच्छी और बुरी साम्प्रदायिकता का वर्गीकरण करके अनेक लोग काम चलाते हैं। दुर्भाग्य यह है भारत में अनेक लोगों को साम्प्रदायिक दल में अपने हित,समाज के हित भी सुरक्षित नजर आने लगे हैं। इस तरह के लोगों को ध्यान में रखकर प्रेमचंद ने लिखा-
"इंडियन सोशल रिफ़ार्मर अंग्रेजी का समाज सुधारक पत्र है और अपने विचारों की उदारता के लिए मशहूर है। डाक्टर आलम के ऐंटी - कम्युनल लीग की आलोचना करते हुए, उसने कहा है कि साम्प्रदायिकता अच्छी भी है बुरी भी । बुरी साम्प्रदायिकता को उखाड़ फेंकना चाहिए।मगर अच्छी साम्प्रदायिकता वह है ,जो अपने क्षेत्र में बड़ा उपयोगी काम कर सकती है,उनकी क्यों अवहेलना की जाय। अगर साम्प्रदायिकता अच्छी हो सकती है,तो पराधीनता भी अच्छी हो सकती है,मक्कारी भी अच्छी हो सकती है,झूठ भी अच्छा हो सकता है,क्योंकि पराधीनता में जिम्मेदारी से बचत होती है,मक्कारी से अपना उल्लू सीधा किया जाता है और झूठ से दुनिया को ठगा जाता है। हम तो साम्प्रदायिकता को समाज का कोढ़ समझते हैं , जो हर एक संस्था में दलबन्दी कराती है और अपना छोटा -सा दायरा बना सभी को उससे बाहर निकाल देती है।"
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प्रेमचंद ने भेड़चाल पर लिखा था- " हममें मस्तिष्क से काम लेने की मानों शक्ति ही नहीं रही। दिमाग को तकलीफ नहीं देना चाहते । भेड़ों की तरह एक दूसरे के पीछे दौड़े चले जाते हैं,कुएँ में गिरें या खन्दक में,इसका गम नहीं। जिस समाज में विचार मंदता का ऐसा प्रकोप हो,उसको सँभलते बहुत दिन लगेंगे। "
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"देश में जब ऐसी आर्थिक दशा फैली हुई है कि करोड़ों मनुष्यों को एक वक्त सूखा चना भी मयस्सर नहीं,दस हजार का घी और सुगन्ध जला डालना न धर्म है , न न्याय है।हम तो कहेंगे ,यह सामाजिक अपराध है। "
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प्रेमचंद -" ग्रहण स्नान और सोमवती स्नान और लाखों तरह के स्नानों की बला हिन्दुस्तान के सिर से कभी टलेगी भी या नहीं,समझ में नहीं आता।आज भी संसार में ऐसे अन्धविश्वास की गुंजाइश है तो भारत में । अब भी करोड़ों आदमी यही समझते हैं कि सूरज भगवान और चन्द्र भगवान पर संकट आता है और उस संकट पर गंगा स्नान करना प्रत्येक प्राणी का धर्म है। कितने अच्छे खासे पढ़े -लिखे लोग भी इतनी आस्था में गंगा में डुबकियाँ लगाते हैं,मानो यही स्वर्ग द्वार हो। लाखों आदमी अपनी गाढ़े पसीने की कमायी खर्च करके ,धक्के खाकर, पशुओं की भाँति रेल में लादे जाकर,रेले में जानें गँवाकर,नदी में डूबकर स्नान करते हैं,केवल अन्धविश्वास में पड़कर।"
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"इंडियन सोशल रिफ़ार्मर अंग्रेजी का समाज सुधारक पत्र है और अपने विचारों की उदारता के लिए मशहूर है। डाक्टर आलम के ऐंटी - कम्युनल लीग की आलोचना करते हुए, उसने कहा है कि साम्प्रदायिकता अच्छी भी है बुरी भी । बुरी साम्प्रदायिकता को उखाड़ फेंकना चाहिए।मगर अच्छी साम्प्रदायिकता वह है ,जो अपने क्षेत्र में बड़ा उपयोगी काम कर सकती है,उनकी क्यों अवहेलना की जाय। अगर साम्प्रदायिकता अच्छी हो सकती है,तो पराधीनता भी अच्छी हो सकती है,मक्कारी भी अच्छी हो सकती है,झूठ भी अच्छा हो सकता है,क्योंकि पराधीनता में जिम्मेदारी से बचत होती है,मक्कारी से अपना उल्लू सीधा किया जाता है और झूठ से दुनिया को ठगा जाता है। हम तो साम्प्रदायिकता को समाज का कोढ़ समझते हैं , जो हर एक संस्था में दलबन्दी कराती है और अपना छोटा -सा दायरा बना सभी को उससे बाहर निकाल देती है।"
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प्रेमचंद ने भेड़चाल पर लिखा था- " हममें मस्तिष्क से काम लेने की मानों शक्ति ही नहीं रही। दिमाग को तकलीफ नहीं देना चाहते । भेड़ों की तरह एक दूसरे के पीछे दौड़े चले जाते हैं,कुएँ में गिरें या खन्दक में,इसका गम नहीं। जिस समाज में विचार मंदता का ऐसा प्रकोप हो,उसको सँभलते बहुत दिन लगेंगे। "
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"देश में जब ऐसी आर्थिक दशा फैली हुई है कि करोड़ों मनुष्यों को एक वक्त सूखा चना भी मयस्सर नहीं,दस हजार का घी और सुगन्ध जला डालना न धर्म है , न न्याय है।हम तो कहेंगे ,यह सामाजिक अपराध है। "
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प्रेमचंद -" ग्रहण स्नान और सोमवती स्नान और लाखों तरह के स्नानों की बला हिन्दुस्तान के सिर से कभी टलेगी भी या नहीं,समझ में नहीं आता।आज भी संसार में ऐसे अन्धविश्वास की गुंजाइश है तो भारत में । अब भी करोड़ों आदमी यही समझते हैं कि सूरज भगवान और चन्द्र भगवान पर संकट आता है और उस संकट पर गंगा स्नान करना प्रत्येक प्राणी का धर्म है। कितने अच्छे खासे पढ़े -लिखे लोग भी इतनी आस्था में गंगा में डुबकियाँ लगाते हैं,मानो यही स्वर्ग द्वार हो। लाखों आदमी अपनी गाढ़े पसीने की कमायी खर्च करके ,धक्के खाकर, पशुओं की भाँति रेल में लादे जाकर,रेले में जानें गँवाकर,नदी में डूबकर स्नान करते हैं,केवल अन्धविश्वास में पड़कर।"
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