लोग पूछते हैं आपने क्या सीखा ,किससे सीखा,कैसे सीखा ॽ उनके लिए मेरे पास कोई जबाव नहीं होता।क्योंकि मैं बड़ा हुआ सामान्य किस्म के लोगों के बीच में।सारी जिन्दगी सामान्य़ किस्म के लोगों में गुजारी,जो कुछ भी सीखा उनसे ही सीखा या फिर लेखकों की किताबों से सीखा।
मैं बहुत कम साहित्यकारों और प्रोफेसरों को जानता हूँ,उससे भी कम संख्या में लेखकों-प्रोफेसरों से निजी परिचय है।आमतौर पर लेखकों –प्रोफेसरों से दूर ही रहा हूँ। यह मेरी सबसे बड़ी कमी कह सकते हैं। हमारे अनेक मित्र साहित्यकार हैं और साहित्यकारों में उनका सम्मानजनक स्थान है।मैंने कभी अपने को न तो साहित्यकार के रूप में महसूस किया और न साहित्यकारों की तरह लिखा,जितनी किताबें लिखीं वे सब पाठक के नाते लिखीं।मैं कईबार इस बात को व्यक्त कर चुका हूँ मुझे नागरिकबोध में जीने में मजा आता है।साहित्यकार,आलोचक,प्रोफेसर या किसी विषय के विशेषज्ञ के रूप में मेरी कभी कोई तैयारी नहीं रही।
मथुरा की निजी चेतना का मूलाधार है ´तन्मयता´,यह मैंने मथुरा से सीखा। मैं जो भी काम करता हूँ,´तन्मयता´और ´एकाग्रता´ के भाव से करता हूँ।यह मथुरा की संस्कृति का सबसे बेहतरीन तत्व है। यह ऐसा तत्व है जो व्यक्ति को भौतिक संसार की ओर ले जाता है। इस तत्व में बांधकर रखने की क्षमता है, दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है ´दिल जीतना´,मथुरा की माटी में ´दिल जीतने´की कला रमी-बसी है।रासलीला ने कई बार इस बात की ओर ध्यान दिलाया था।तीसरा महत्वपूर्ण तत्व है ´वर्गीकरण´करके न देखना,मथुरा के लोग सभ्यता के प्रचलित सामाजिक वर्गीकरणों में न तो सोचते हैं और न बोलते हैं।जो व्यक्ति ´वर्गीकरण´की केटेगरी में बोलता है उसे औचक भाव से देखते हैं।वहां सामान्य शिक्षित समुदाय में भी वर्गीकरण बहुत कम इस्तेमाल नहीं होते हैं।
मथुरा इसलिए अच्छा लगता है कि वहां के मित्रों ने राजनीति सिखाई,संस्कृत साहित्य की विरासत से जुड़ा,मार्क्सवाद वहीं मिला,तंत्र-मंत्र और ज्यौतिषशास्त्र भी वहीं मिला,इससे भी बड़ी बात यह कि वहां के लोगों से बेइन्तहा प्यार मिला,निःस्वार्थ मित्रता की शिक्षा मिली। यह ज्ञान मिला कि जो दूर है उसे पास लाओ, मित्र बनाओ।स्मृति,कष्ट और प्रतिबद्धता को भूलो मत।
मैं बहुत कम साहित्यकारों और प्रोफेसरों को जानता हूँ,उससे भी कम संख्या में लेखकों-प्रोफेसरों से निजी परिचय है।आमतौर पर लेखकों –प्रोफेसरों से दूर ही रहा हूँ। यह मेरी सबसे बड़ी कमी कह सकते हैं। हमारे अनेक मित्र साहित्यकार हैं और साहित्यकारों में उनका सम्मानजनक स्थान है।मैंने कभी अपने को न तो साहित्यकार के रूप में महसूस किया और न साहित्यकारों की तरह लिखा,जितनी किताबें लिखीं वे सब पाठक के नाते लिखीं।मैं कईबार इस बात को व्यक्त कर चुका हूँ मुझे नागरिकबोध में जीने में मजा आता है।साहित्यकार,आलोचक,प्रोफेसर या किसी विषय के विशेषज्ञ के रूप में मेरी कभी कोई तैयारी नहीं रही।
मथुरा की निजी चेतना का मूलाधार है ´तन्मयता´,यह मैंने मथुरा से सीखा। मैं जो भी काम करता हूँ,´तन्मयता´और ´एकाग्रता´ के भाव से करता हूँ।यह मथुरा की संस्कृति का सबसे बेहतरीन तत्व है। यह ऐसा तत्व है जो व्यक्ति को भौतिक संसार की ओर ले जाता है। इस तत्व में बांधकर रखने की क्षमता है, दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है ´दिल जीतना´,मथुरा की माटी में ´दिल जीतने´की कला रमी-बसी है।रासलीला ने कई बार इस बात की ओर ध्यान दिलाया था।तीसरा महत्वपूर्ण तत्व है ´वर्गीकरण´करके न देखना,मथुरा के लोग सभ्यता के प्रचलित सामाजिक वर्गीकरणों में न तो सोचते हैं और न बोलते हैं।जो व्यक्ति ´वर्गीकरण´की केटेगरी में बोलता है उसे औचक भाव से देखते हैं।वहां सामान्य शिक्षित समुदाय में भी वर्गीकरण बहुत कम इस्तेमाल नहीं होते हैं।
मथुरा इसलिए अच्छा लगता है कि वहां के मित्रों ने राजनीति सिखाई,संस्कृत साहित्य की विरासत से जुड़ा,मार्क्सवाद वहीं मिला,तंत्र-मंत्र और ज्यौतिषशास्त्र भी वहीं मिला,इससे भी बड़ी बात यह कि वहां के लोगों से बेइन्तहा प्यार मिला,निःस्वार्थ मित्रता की शिक्षा मिली। यह ज्ञान मिला कि जो दूर है उसे पास लाओ, मित्र बनाओ।स्मृति,कष्ट और प्रतिबद्धता को भूलो मत।
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