अजीब बात है मथुरा जैसे धार्मिक शहर में हम मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग से आने वाले युवाओं के पास उस समय मंदिर,पंडे,पुजारी,जनसंघ,कांग्रेस,बगीची,अखाड़े,यमुना नदी का किनारा और घाट के किस्से हुआ करते थे। अचानक 1974 का बिहार आंदोलन शुरू हुआ,मैं निजी तौर पर राजनीति नहीं जानता था लेकिन बाबू जयप्रकाश नारायण के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित था, समाजवाद के विचार से उस समय तक मेरा कोई परिचय नहीं था।
मुझे सबसे पहले समाजवादी सोवियत संघ का साहित्य पढ़ने को अपने संस्कृत कॉलेज माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय में पढ़ने को मिला और यह साहित्य पढ़ने को दिया मथुरानाथ चतुर्वेदी ने,जो उस समय मथुरा जनसंघ के अध्यक्ष थे, बाद में नगरपालिका अध्यक्ष भी रहे,आरएसएस के मथुरा में सबसे बड़े समय नेता हुआ करते थे।मेरे कॉलेज में सोवियत साहित्य और पत्रिकाएं मुफ्त में आती थीं,वे ही उनको संभालकर रखते थे,उनसे ही 1972-73 में सोवियत साहित्य पहलीबार पढ़ने को मिला,वे हमारे कॉलेज की लाइब्रेरी के भी इंचार्ज थे,अतः पुस्तकालय से आसानी से किताबें भी मिल जाया करती थी।वहीं से पहलीबार सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का लिखा महाभारत पढ़ा,जो बच्चों के लिए लिखा गया था। सोवियत भूमि,सोवियत नारी और संभवतः सोवियत दर्पण पत्रिका नियमित मथुरानाथजी ही देते थे।इस तरह अनजाने ही सही लेकिन समाजवादी साहित्य पहलीबार हमारे शिक्षक के हाथों मेरे पास पहुँचा।यह बेहद दिलचस्प बात है कि मथुरानाथजी ने कभी मुझे पांचजन्य पढ़ने को नहीं दिया,जबकि वह अखबार वे नियमित पढ़ते थे।यहीं से मुझे नियमित दैनिक अखबार पढ़ने की आदत पड़ी।सबसे दिलचस्प बात यह कि मेरे गुरूजी और ज्योतिष के शिक्षक संकटाप्रसाद उपाध्याय की राजनीतिक विषयों में गहरी दिलचस्पी थी, उनके बनारस के घर के आसपास के इलाके में उन दिनों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गहरा असर था,अतः उनके विचारों का झुकाव वाम की ओर था। मथुरानाथजी तो जनसंघ के नेता ही थे,लेकिन इन दोनों के राजनीतिक विचार नहीं मिलते थे,इन दोनों शिक्षकों से समय-समय पर राजनीतिक विषयों पर जमकर बातें होती थीं,इसके कारण मेरी राजनीतिक विषयों में दिलचस्पी पैदा हो गयी।
एक दिन अचानक वियतनाम के आजाद होने की खुशी में कोई एक कार्यक्रम शिवदत्त चतुर्वेदी ने भाकपा के कार्यालय पर आपातकाल में रखा और मुझे उसने पहल करके अपना मित्र बनाया और उस कार्यक्रम में बुलाया उसमें मेरी अनेक कॉमरेडों से पहलीबार मुलाकात हुई।यह मेरे जीवन का पहला सेमीनार,गोष्ठी भी था। इसमें का.सव्यसाची भी थे।वे उस समय माकपा के जिलामंत्री थे। इसी कार्यक्रम में चौधरी वीरेन्द्र सिंह से मुलाकात हुई जो एसएफआई के सचिव थे।आपातकाल में इतने कॉमरेडों का मिलना सुखद आश्चर्य था ,इस मुलाकात ने मेरी राजनीतिक शिक्षा की विधिवत शुरूआत की।सव्यसाची ने उस कार्यक्रम में बहुत अच्छा भाषण दिया,मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ,बाद में उनसे मिला, तो बोले कुछ किताबें जरूर पढो।मैंने पूछा क्या पढूँ,बोले हावर्ड फास्ट का ´आदिविद्रोही´ उपन्यास पढ़ो।संभवतःयह मेरे जीवन की पहली क्रांतिकारी किताब है जिसे मुझे सव्यसाची ने पढ़ने को दिया उसके बाद,हावर्ड फास्ट का ही ´समरगाथा´ उपन्यास दिया,इसके बाद ´सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास´ दिया,बाद में रोदेरिजो रोखास के लिखे चिली के फासिस्टों के अत्याचार की कहानी की किताब ´चिली के सरफरोश´दी। मैंने करीब से देखा कि सव्यसाची ने तकरीबन सभी युवाओं को ´आदिविद्रोही´ उपन्यास पढ़ने को दिया। हम जितने युवालोग सव्यसाची के साथ काम करते थे सभी ने ´आदिविद्रोही´ पढ़ा था, इसके अलावा गोर्की का ´माँ ´ उपन्यास भी पढ़ा था।संभवतः ´आदिविद्रोही´ ने हम सबको वैकल्पिक संस्कार दिए, प्रतिवाद की भाषा दी,जनता के साथ लगाव रखने और जनता से प्रेम करने का संस्कार दिया।
मुझे सबसे पहले समाजवादी सोवियत संघ का साहित्य पढ़ने को अपने संस्कृत कॉलेज माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय में पढ़ने को मिला और यह साहित्य पढ़ने को दिया मथुरानाथ चतुर्वेदी ने,जो उस समय मथुरा जनसंघ के अध्यक्ष थे, बाद में नगरपालिका अध्यक्ष भी रहे,आरएसएस के मथुरा में सबसे बड़े समय नेता हुआ करते थे।मेरे कॉलेज में सोवियत साहित्य और पत्रिकाएं मुफ्त में आती थीं,वे ही उनको संभालकर रखते थे,उनसे ही 1972-73 में सोवियत साहित्य पहलीबार पढ़ने को मिला,वे हमारे कॉलेज की लाइब्रेरी के भी इंचार्ज थे,अतः पुस्तकालय से आसानी से किताबें भी मिल जाया करती थी।वहीं से पहलीबार सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का लिखा महाभारत पढ़ा,जो बच्चों के लिए लिखा गया था। सोवियत भूमि,सोवियत नारी और संभवतः सोवियत दर्पण पत्रिका नियमित मथुरानाथजी ही देते थे।इस तरह अनजाने ही सही लेकिन समाजवादी साहित्य पहलीबार हमारे शिक्षक के हाथों मेरे पास पहुँचा।यह बेहद दिलचस्प बात है कि मथुरानाथजी ने कभी मुझे पांचजन्य पढ़ने को नहीं दिया,जबकि वह अखबार वे नियमित पढ़ते थे।यहीं से मुझे नियमित दैनिक अखबार पढ़ने की आदत पड़ी।सबसे दिलचस्प बात यह कि मेरे गुरूजी और ज्योतिष के शिक्षक संकटाप्रसाद उपाध्याय की राजनीतिक विषयों में गहरी दिलचस्पी थी, उनके बनारस के घर के आसपास के इलाके में उन दिनों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गहरा असर था,अतः उनके विचारों का झुकाव वाम की ओर था। मथुरानाथजी तो जनसंघ के नेता ही थे,लेकिन इन दोनों के राजनीतिक विचार नहीं मिलते थे,इन दोनों शिक्षकों से समय-समय पर राजनीतिक विषयों पर जमकर बातें होती थीं,इसके कारण मेरी राजनीतिक विषयों में दिलचस्पी पैदा हो गयी।
एक दिन अचानक वियतनाम के आजाद होने की खुशी में कोई एक कार्यक्रम शिवदत्त चतुर्वेदी ने भाकपा के कार्यालय पर आपातकाल में रखा और मुझे उसने पहल करके अपना मित्र बनाया और उस कार्यक्रम में बुलाया उसमें मेरी अनेक कॉमरेडों से पहलीबार मुलाकात हुई।यह मेरे जीवन का पहला सेमीनार,गोष्ठी भी था। इसमें का.सव्यसाची भी थे।वे उस समय माकपा के जिलामंत्री थे। इसी कार्यक्रम में चौधरी वीरेन्द्र सिंह से मुलाकात हुई जो एसएफआई के सचिव थे।आपातकाल में इतने कॉमरेडों का मिलना सुखद आश्चर्य था ,इस मुलाकात ने मेरी राजनीतिक शिक्षा की विधिवत शुरूआत की।सव्यसाची ने उस कार्यक्रम में बहुत अच्छा भाषण दिया,मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ,बाद में उनसे मिला, तो बोले कुछ किताबें जरूर पढो।मैंने पूछा क्या पढूँ,बोले हावर्ड फास्ट का ´आदिविद्रोही´ उपन्यास पढ़ो।संभवतःयह मेरे जीवन की पहली क्रांतिकारी किताब है जिसे मुझे सव्यसाची ने पढ़ने को दिया उसके बाद,हावर्ड फास्ट का ही ´समरगाथा´ उपन्यास दिया,इसके बाद ´सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास´ दिया,बाद में रोदेरिजो रोखास के लिखे चिली के फासिस्टों के अत्याचार की कहानी की किताब ´चिली के सरफरोश´दी। मैंने करीब से देखा कि सव्यसाची ने तकरीबन सभी युवाओं को ´आदिविद्रोही´ उपन्यास पढ़ने को दिया। हम जितने युवालोग सव्यसाची के साथ काम करते थे सभी ने ´आदिविद्रोही´ पढ़ा था, इसके अलावा गोर्की का ´माँ ´ उपन्यास भी पढ़ा था।संभवतः ´आदिविद्रोही´ ने हम सबको वैकल्पिक संस्कार दिए, प्रतिवाद की भाषा दी,जनता के साथ लगाव रखने और जनता से प्रेम करने का संस्कार दिया।
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