भारतीय मध्यवर्ग में सामाजिक संकीर्णतावाद इन दिनों चरम पर है। हर रंगत,जातीयता और धर्म के लोगों में इसे सहज ही देख सकते हैं। मध्यवर्ग में यह संकीर्णतावाद सबसे पहले सामाजिक आचार-व्यवहार में दाखिल हुआ,बाद में उसने राजनीति में अपने को अभिव्यक्त किया।मध्यवर्ग के जो लोग सामाजिक संकीर्णतावाद को पालते-पोसते रहे हैं,वे ही राजनीति में साम्प्रदायिक-उग्रवादी-आतंकी-पृथकतावादी भावों –विचारों की ओर मुखातिब हुए। यही वह मध्यवर्ग है जिसने बडे पैमाने पर विभिन्न रंगत के उग्रवादी राजनीतिक रूझानों को सामाजिक आधार प्रदान किया। जो लोग यह सवाल कर रहे हैं कि शिक्षित परिवारों के बच्चे आईएस में कैसे जा रहे हैं ॽ वे जरा गौर करें सभी किस्म के उग्रवादी राजनीतिक विचारों को इसी वर्ग के युवाओं ने अपनाया।उग्रवादी विचारों की ओर मध्यवर्ग के युवाओं का रूझान सामाजिक संकीर्णतावाद की स्वाभाविक राजनीतिक प्रतिक्रिया है।इसी वर्ग के युवाओं को हमने देश के विभिन्न पृथकतावादी ,साम्प्रदायिक और आतंकी संगठनों में बड़ी संख्या में उत्तर- पूर्व के राज्यों से लेकर पंजाब तक,कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक देखा है।मिलिटेंसी वस्तुतःमध्यवर्गीय सामाजिक संकीर्णतावाद की राजनीतिक अभिव्यक्ति है।आज वही सबसे बड़ा हिन्दुत्ववादी है जो सामाजिक संकीर्णतावादी है।
आजाद भारत में मध्यवर्ग में सामाजिक संकीर्णतावाद सबसे पहले बंगाली जाति में दाखिल हुआ और यही वजह है कि सबसे पहले नक्सलवाडी आंदोलन में उसने अपने को अभिव्यक्त किया,बंगाली जाति विचारों और सामाजिक संस्कारों में उदार थी,इस उदारता को सबसे गहरी चुनौती नक्सलवाड़ी ने दी,बंगाल के नवोदित आजाद मध्यवर्ग के युवाओं के एक बड़े वर्ग ने सभी किस्म के उदारतावादी विचारों और राजनीति को ठुकराते हुए नक्सलवाड़ी का रास्ता चुना इसके कारण बड़े पैमाने पर बंगाली युवा तबाह हुआ,सैंकड़ों युवाओं को एनकाउंटर और राजनीतिक मुठभेड़ों के जरिए मौत के घाट उतार दिया गया।अफसोस की बात है कि हमने मध्यवर्ग के अंदर पनप रहे सामाजिक संकीर्णतावाद को कभी प्रमुख मुद्दा ही नहीं बनाया।
आज स्थिति यह है कि बंगाली मध्यवर्ग पूरी तरह क्षत-विक्षत अवस्था में है।उसने अपराधीदलों के सामने पूरी तरह समर्पण कर दिया है।जिन इलाकों में क्रांति थी वहां माफिया वर्चस्व है।नक्सलवाडी तस्करी का केन्द्र है। तमाम किस्म के दो नम्बरी कामों में मध्यवर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा फंसा पड़ा है। चिटफंड का धंधा,जबरिया पैसा वसूली, राजनीतिक आतंक, बाल विवाह,स्त्री शिक्षा का अभाव,औरतों की बिक्री, मध्यवर्ग का पलायन,सलासी खाप पंचायतों के उत्पीडन, नवोदित मध्यवर्गीय नेपाली जाति में उग्रवादी रूझान,तमाम किस्म अंधविश्वासों और संतों की बाढ़ आदि इसके व्यापक फलक को समेटे हैं। इन सबका ग्राफ क्रमशःबढ़ा है।बंगाली जाति की समूची भद्र अस्मिता का अब लंपट –उग्रवादी अस्मिता में रूपान्तरण हो चुका है।अफसोस की बात है बंगाल में इस सबको कभी चुनौती नहीं दी गयी।इसका दुष्परिणाम यह निकला है कि बंगाली जाति को आज कोई पहचान ही नहीं सकता।उसकी अस्मिता को संकीर्णतावाद के दुर्गुणों ने हजम कर लिया है। इन दुर्गुणों को बंगाली मध्यवर्ग के बुद्धिजीवियों ने कभी चुनौती नहीं दी,यहां तक कि अखबारों में कभी इन समस्याओं पर गंभीरता से लेख तक नहीं लिखे गए।
आजाद भारत में मध्यवर्ग में सामाजिक संकीर्णतावाद सबसे पहले बंगाली जाति में दाखिल हुआ और यही वजह है कि सबसे पहले नक्सलवाडी आंदोलन में उसने अपने को अभिव्यक्त किया,बंगाली जाति विचारों और सामाजिक संस्कारों में उदार थी,इस उदारता को सबसे गहरी चुनौती नक्सलवाड़ी ने दी,बंगाल के नवोदित आजाद मध्यवर्ग के युवाओं के एक बड़े वर्ग ने सभी किस्म के उदारतावादी विचारों और राजनीति को ठुकराते हुए नक्सलवाड़ी का रास्ता चुना इसके कारण बड़े पैमाने पर बंगाली युवा तबाह हुआ,सैंकड़ों युवाओं को एनकाउंटर और राजनीतिक मुठभेड़ों के जरिए मौत के घाट उतार दिया गया।अफसोस की बात है कि हमने मध्यवर्ग के अंदर पनप रहे सामाजिक संकीर्णतावाद को कभी प्रमुख मुद्दा ही नहीं बनाया।
आज स्थिति यह है कि बंगाली मध्यवर्ग पूरी तरह क्षत-विक्षत अवस्था में है।उसने अपराधीदलों के सामने पूरी तरह समर्पण कर दिया है।जिन इलाकों में क्रांति थी वहां माफिया वर्चस्व है।नक्सलवाडी तस्करी का केन्द्र है। तमाम किस्म के दो नम्बरी कामों में मध्यवर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा फंसा पड़ा है। चिटफंड का धंधा,जबरिया पैसा वसूली, राजनीतिक आतंक, बाल विवाह,स्त्री शिक्षा का अभाव,औरतों की बिक्री, मध्यवर्ग का पलायन,सलासी खाप पंचायतों के उत्पीडन, नवोदित मध्यवर्गीय नेपाली जाति में उग्रवादी रूझान,तमाम किस्म अंधविश्वासों और संतों की बाढ़ आदि इसके व्यापक फलक को समेटे हैं। इन सबका ग्राफ क्रमशःबढ़ा है।बंगाली जाति की समूची भद्र अस्मिता का अब लंपट –उग्रवादी अस्मिता में रूपान्तरण हो चुका है।अफसोस की बात है बंगाल में इस सबको कभी चुनौती नहीं दी गयी।इसका दुष्परिणाम यह निकला है कि बंगाली जाति को आज कोई पहचान ही नहीं सकता।उसकी अस्मिता को संकीर्णतावाद के दुर्गुणों ने हजम कर लिया है। इन दुर्गुणों को बंगाली मध्यवर्ग के बुद्धिजीवियों ने कभी चुनौती नहीं दी,यहां तक कि अखबारों में कभी इन समस्याओं पर गंभीरता से लेख तक नहीं लिखे गए।
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