नामवरजी दल बदलें,मंच बदलें,विचारधारा बदलें,हमें इससे कोई परेशानी नहीं है,उनको संवैधानिक हक है,लेकिन संविधान में प्रतिक्रियावाद की गोद में जाने का प्रावधान नहीं है।संविधान धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का वायदा करता है,लेकिन नामवरजी आप यह सब भूल गए।इसे कहते हैं रामजी के चरणामृत का असर!
कल से फेसबुक पर मित्रलोग हल्ला कर रहे हैं नामवरजी ने 28जुलाई 2016 को राजनाथ सिंह की मौजूदगी में जो बोला वह कमाल का बोला!हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं,नामवरजी ने वहां जो कुछ सुना और उसकी अनसुनी की,मंत्रियों की संघी विचारधारात्मक धारणाओं के सामने जिस तरह समर्पण किया उसने प्रेमचंद को उलटा कर दिया,उनके आचरण ने गिरीश्वर मिश्र के बयान को उलटा कर दिया। कम से कम गिरीश्वर मिश्र ने तो संतुलित कहा,लेकिन नामवरजी आपने तो हद कर दी !
नामवरजी के भाषण की जो मुख्य बातें हैं उन पर थोड़ा गंभीरता से विचार करें,यह विचार करना इसलिए जरूरी है क्योंकि नामवरजी अपने भाषण से लेखकों के लिए फासिस्ट मोदीमार्ग का निर्माण करके गए हैं। मोदीमार्ग पर चलने का पहले कु-फल यह हुआ कि नामवरजी लिखकर लाए और विचारधाराहीन भाव से उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त किया।वे जब बोल रहे थे तो अपनी ´जुबान पर काबू´ रखकर बोल रहे थे, उन्होंने कहा भी ´बोलने में जुबान पर काबू नहीं रहता´,इसलिए लिखकर बोल रहा हूँ।यहाँ मुख्य जोर ´जुबान पर काबू रखने पर था´!यही बात तो मंत्री महेश शर्मा ने कही थी मंच से,यही बात अभिव्यक्ति की आजादी के सिलसिले में अरूण जेटली कह चुके हैं।यही बात कई बार मोदीजी बोल चुके हैं।कमाल की संगतिपूर्ण दूसरी परम्परा है यह !
भक्तों का कहना है नामवरजी ने राजनाथ सिंहजी को नाम से सम्बोधित नहीं किया।कमाल है राजनाथ सिंह से सम्मान लिया,इससे बड़ी बात और क्या होगी!राजनाथ सिंह की हिमायतें सुनीं और मानीं,इतना आज्ञाकारी लेखक तो पहले कभी नहीं देखा! नामवरजी ने अपने जीवन का सबसे छोटा लिखित वक्तव्य पढ़कर सुनाया।इसे ´एसएमएस भाषण´ कहें तो बेहतर होगा।नामवरजी पर यह डिजिटल का सीधा असर है। वे बोले ´मेरी दूसरी परम्परा की खोज,साहित्य के लोकतंत्र में प्रतिपक्ष की तलाश है।´ सवाल यह है इसकी चुनौतियां क्या हैं ॽ अथवा यह भी कोई श्रृंगार साहित्य की तरह है जिसमें सिर्फ आनंद है,भाषायी कुलाचें हैं लेकिन किसी सामाजिक-राजनीतिक चुनौती से इसका कोई लेना-देना नहीं है।ऐसा चुनौतीहीन लोकतंत्र कम से कम आधुनिककाल में संभव नहीं है।लोकतंत्र में पहले ´लोक´ है फिर तंत्र है।´पक्ष´ है और फिर ´प्रतिपक्ष´ है।लेकिन नामवरजी जिस लोकतंज्ञ और प्रतिपक्ष की बात कर रहे थे वो तो राजनीतिविहीन है। यह हम नहीं कह रहे उन्होंने ही अपने भाषण के अंतमें बड़ी ही ईमानदारी के साथ कहा ´उनका जो काम वो एहिले सियायत जाने´,यह है नए किस्म के रीतिवाद का चरमोत्कर्ष !
नामवरजी के लोकतंत्र में राजनीति तो राजनेताओं का खेल है,साहित्यकार का काम है सिर्फ मोहब्बत!मोहब्बत! नामवरजी यही तो श्रृंगारशास्त्रियों ने किया था,आप अंतमें उनके ही मार्ग पर क्यों चले गए ॽक्या लोकतंत्र में राजनीति करते हुए साहित्य और साहित्यकार मोहब्बत का संदेश नहीं दे सकता ॽ क्या साहित्य को राजनीति से अलग करके कोई बहस संभव है ॽयदि नहीं तो फिर अपने लोकतंत्र में यह श्रृंगारवादी रूप क्यों धारण किया ॽ वैसे यह रूप प्रचार के लिहाज से सही है।सारे देश में राजनीतिविहीन साहित्य का,राजनीतिविहीन मोहब्बत का मीडिया ´फ्लो´आपकी मदद कर रहा है,आपने जो कुछ कहा वह मीडिया के ´फ्लो´में ही कहा। आरएसएस के लोगों ने आपके जन्मदिन को इवेंट बनाया,खबर बनाया, जाहिर है खबर तो तब ही फबती है जब मीडिया के ´फ्लो´में आए।
नामवरजी आपने राजनाथ सिंह की उपस्थिति में जो भाषण दिया वह मोदी नीति की संगति में सुंदर भाषण था,इसका प्रतिपक्ष से कोई लेना देना नहीं है,इसका लोकतंत्र से भी कोई लेना-देना नहीं है,यह आपकी दूसरी परम्परा में भी नहीं आता,यह तो आरएसएस की फासिस्ट परंपरा में आता है।दिलचस्प बात यह है पहले आप बोलते थे तो सोचकर बोलते थे,कभी फिसलते थे तो आलोचना के शिकार होते थे,बाद में स्टैंड बदल लेते थे,इसने आपको वैचारिक दल-बदल करने में मदद की,इसे आपके भक्तों ने उदारता नाम दे दिया।लेकिन आप पहले भी उदार नहीं थे,पहले जो थे वही राजनाथ सिंह के सामने नजर आए यानी वैचारिक दल-बदलू!
हम चाहते हैं आप हजारों साल जिएं।हम कलियुग के नजरिए से आपको नहीं देखते,कलियुग के नजरिए से तो प्रतिगामी लोग देखते हैं।उस दिन मंच पर राजनाथ सिंह इसी नजरिए से देख रहे थे।वे आपकी उम्र के पैमाने कलियुग से,ज्योतिष से उधार लेकर आए और कलियुगी कामना कर रहे थे।आप सच मानें मैं आपको बेइंतिहा प्यार करता हूँ।फेसबुक पर आप पर इतना लिख चुका हूँ कि इसकी वजह से आपके सबसे प्रिय छात्रों से आए दिन फेसबुक पर ताने सुनता रहता हूँ।
मैंने वीडियो में आपका भाषण गंभीरता से सुना है और सुनकर बेहद निराशा हाथ लगी।आपकी दूसरी परम्परा में कौन है और कौन नहीं है,इस पर मैं विवाद नहीं करना चाहता लेकिन आप रवीन्द्रनाथ टैगोर का नाम लेना क्यों भूल गए ॽ यह साधारण चूक नहीं है! आपकी दूसरी परम्परा की खोज रवीन्द्रनाथ की परम्परा से प्रेरणा लेकर जन्म लेती है लेकिन आरएसएस नियंत्रित मंच पर आते-आते आप टैगोर को भूल गए।आप मुझसे बेहतर जानते हैं हजारी प्रसाद द्विवेदी के नजरिए के मूल में टैगोर हैं। टैगोर का नाम न लेकर आप क्या बताना चाहते हैं ॽ यह साधाऱण चूक नहीं है,यह सुनियोजित चूक है।इसका सम-सामयिक फासिज्म के राजनीतिक परिदृश्य से गहरा संबंध है।मैं सोच रहा था कम से कम आप जैसा विलक्षण वक्ता,मौलिक वक्ता मंच पर मंत्रियों ने जो बकबास कही उसका उत्तर जरूर देगा।लेकिन आपने किसी भी चीज का उत्तर नहीं दिया,आप कह ही सकते हैं कि मैं साहित्य का सफाई कर्मचारी नहीं हूँ कि हर चीज की सफाई देता फिरूँ! (यह नामवरजी का पुराना जुमला है)
नामवरजी जब राजनाथ सिंह ने मंच पर ´आलोचक´ मानने से इंकार किया ,´आलोचना´ को बैरभाव से लिखी चीज कहा तो आपको नहीं लगा कि यह आपका सरेआम अपमान किया जा रहा है ! आलोचना के शिखरपुरूष के सामने ´आलोचना´की धारणा को विकृत किया जा रहा है ! मैं जानता हूँ आप पढ़ाते समय बार-बार कहते थे अवधारणाओं में सोचो,अवधारणा के विकृतिकरण के खिलाफ संघर्ष करो,अवधारणा को बचाओ।लेकिन राजनाथ सिंह के सामने आप चुप क्यों रहे ॽ आपने प्रतिवाद में इतना ही कह दिया होता राजनाथजी मैं आपसे असहमत हूँ,महेश शर्माजी आपने असहमत हूँ।इसमें आपकी कोई बड़ी क्षति नहीं होती,लेकिन आपने इतना तक नहीं कहा।
आप जानते हैं आपने पढ़ाया है साहित्य में जो बताया जाता है ,उस पर बात करो,लेकिन जो छिपाया जाता है वह ज्यादा गंभीर होता।उसका उद्घाटन करो।यह है दूसरी परम्परा।लेकिन आपको हम मंच पर बहुत कुछ छिपाते हुए देख रहे थे,यह कुल मिलाकर वैसे ही हो रहा था जैसे कोई बच्चा खेल खेल में अपने हाथ में,कपड़े में,पीट के पीछे,बनियान के अंदर,मुँह के अंदर अपनी चीजे छिपा लेता है।आपके इस छिपाने वाले भाव पर मैं तो फिदा हो गया हूँ ! आपसे बताने की,उद्घाटन की कला सीखी, अब इस उम्र में छिपाने की कला भी आपसे से ही सीख रहा हूँ !
आप सच में महान हैं।छिपाना साधारण काम नहीं है,राजनीति छिपाओ, विचारधारा छिपाओ,लिखे को छिपाओ,बोले को छिपाओ!आपके कल छिपाने वाले भाव का लोकतंत्र और साहित्य के प्रतिपक्ष के साथ तीन-तेरह का संबंध है।आपकी छिपाने की कला का साहित्य से कम और फासिज्म की कला से ज्यादा गहरा संबंध है।आप जानते हैं फासिस्ट कला मार्ग कलाओं का अंत है।अभिव्यक्ति की आजादी का अंत है।आप इसके पुरोधा बनकर सामने आए हैं दुख इसी बात का है! हम फिर भी चाहते हैं आप सौ साल जिएं लेकिन अब आप नहीं अन्य लोग आपको दलेंगे।यह त्रासदी आप वैसे ही झेलें जैसे टीएस इलियट ने अपने जीवन में फासिज्म की पराजय के बाद झेली थी।
कल से फेसबुक पर मित्रलोग हल्ला कर रहे हैं नामवरजी ने 28जुलाई 2016 को राजनाथ सिंह की मौजूदगी में जो बोला वह कमाल का बोला!हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं,नामवरजी ने वहां जो कुछ सुना और उसकी अनसुनी की,मंत्रियों की संघी विचारधारात्मक धारणाओं के सामने जिस तरह समर्पण किया उसने प्रेमचंद को उलटा कर दिया,उनके आचरण ने गिरीश्वर मिश्र के बयान को उलटा कर दिया। कम से कम गिरीश्वर मिश्र ने तो संतुलित कहा,लेकिन नामवरजी आपने तो हद कर दी !
नामवरजी के भाषण की जो मुख्य बातें हैं उन पर थोड़ा गंभीरता से विचार करें,यह विचार करना इसलिए जरूरी है क्योंकि नामवरजी अपने भाषण से लेखकों के लिए फासिस्ट मोदीमार्ग का निर्माण करके गए हैं। मोदीमार्ग पर चलने का पहले कु-फल यह हुआ कि नामवरजी लिखकर लाए और विचारधाराहीन भाव से उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त किया।वे जब बोल रहे थे तो अपनी ´जुबान पर काबू´ रखकर बोल रहे थे, उन्होंने कहा भी ´बोलने में जुबान पर काबू नहीं रहता´,इसलिए लिखकर बोल रहा हूँ।यहाँ मुख्य जोर ´जुबान पर काबू रखने पर था´!यही बात तो मंत्री महेश शर्मा ने कही थी मंच से,यही बात अभिव्यक्ति की आजादी के सिलसिले में अरूण जेटली कह चुके हैं।यही बात कई बार मोदीजी बोल चुके हैं।कमाल की संगतिपूर्ण दूसरी परम्परा है यह !
भक्तों का कहना है नामवरजी ने राजनाथ सिंहजी को नाम से सम्बोधित नहीं किया।कमाल है राजनाथ सिंह से सम्मान लिया,इससे बड़ी बात और क्या होगी!राजनाथ सिंह की हिमायतें सुनीं और मानीं,इतना आज्ञाकारी लेखक तो पहले कभी नहीं देखा! नामवरजी ने अपने जीवन का सबसे छोटा लिखित वक्तव्य पढ़कर सुनाया।इसे ´एसएमएस भाषण´ कहें तो बेहतर होगा।नामवरजी पर यह डिजिटल का सीधा असर है। वे बोले ´मेरी दूसरी परम्परा की खोज,साहित्य के लोकतंत्र में प्रतिपक्ष की तलाश है।´ सवाल यह है इसकी चुनौतियां क्या हैं ॽ अथवा यह भी कोई श्रृंगार साहित्य की तरह है जिसमें सिर्फ आनंद है,भाषायी कुलाचें हैं लेकिन किसी सामाजिक-राजनीतिक चुनौती से इसका कोई लेना-देना नहीं है।ऐसा चुनौतीहीन लोकतंत्र कम से कम आधुनिककाल में संभव नहीं है।लोकतंत्र में पहले ´लोक´ है फिर तंत्र है।´पक्ष´ है और फिर ´प्रतिपक्ष´ है।लेकिन नामवरजी जिस लोकतंज्ञ और प्रतिपक्ष की बात कर रहे थे वो तो राजनीतिविहीन है। यह हम नहीं कह रहे उन्होंने ही अपने भाषण के अंतमें बड़ी ही ईमानदारी के साथ कहा ´उनका जो काम वो एहिले सियायत जाने´,यह है नए किस्म के रीतिवाद का चरमोत्कर्ष !
नामवरजी के लोकतंत्र में राजनीति तो राजनेताओं का खेल है,साहित्यकार का काम है सिर्फ मोहब्बत!मोहब्बत! नामवरजी यही तो श्रृंगारशास्त्रियों ने किया था,आप अंतमें उनके ही मार्ग पर क्यों चले गए ॽक्या लोकतंत्र में राजनीति करते हुए साहित्य और साहित्यकार मोहब्बत का संदेश नहीं दे सकता ॽ क्या साहित्य को राजनीति से अलग करके कोई बहस संभव है ॽयदि नहीं तो फिर अपने लोकतंत्र में यह श्रृंगारवादी रूप क्यों धारण किया ॽ वैसे यह रूप प्रचार के लिहाज से सही है।सारे देश में राजनीतिविहीन साहित्य का,राजनीतिविहीन मोहब्बत का मीडिया ´फ्लो´आपकी मदद कर रहा है,आपने जो कुछ कहा वह मीडिया के ´फ्लो´में ही कहा। आरएसएस के लोगों ने आपके जन्मदिन को इवेंट बनाया,खबर बनाया, जाहिर है खबर तो तब ही फबती है जब मीडिया के ´फ्लो´में आए।
नामवरजी आपने राजनाथ सिंह की उपस्थिति में जो भाषण दिया वह मोदी नीति की संगति में सुंदर भाषण था,इसका प्रतिपक्ष से कोई लेना देना नहीं है,इसका लोकतंत्र से भी कोई लेना-देना नहीं है,यह आपकी दूसरी परम्परा में भी नहीं आता,यह तो आरएसएस की फासिस्ट परंपरा में आता है।दिलचस्प बात यह है पहले आप बोलते थे तो सोचकर बोलते थे,कभी फिसलते थे तो आलोचना के शिकार होते थे,बाद में स्टैंड बदल लेते थे,इसने आपको वैचारिक दल-बदल करने में मदद की,इसे आपके भक्तों ने उदारता नाम दे दिया।लेकिन आप पहले भी उदार नहीं थे,पहले जो थे वही राजनाथ सिंह के सामने नजर आए यानी वैचारिक दल-बदलू!
हम चाहते हैं आप हजारों साल जिएं।हम कलियुग के नजरिए से आपको नहीं देखते,कलियुग के नजरिए से तो प्रतिगामी लोग देखते हैं।उस दिन मंच पर राजनाथ सिंह इसी नजरिए से देख रहे थे।वे आपकी उम्र के पैमाने कलियुग से,ज्योतिष से उधार लेकर आए और कलियुगी कामना कर रहे थे।आप सच मानें मैं आपको बेइंतिहा प्यार करता हूँ।फेसबुक पर आप पर इतना लिख चुका हूँ कि इसकी वजह से आपके सबसे प्रिय छात्रों से आए दिन फेसबुक पर ताने सुनता रहता हूँ।
मैंने वीडियो में आपका भाषण गंभीरता से सुना है और सुनकर बेहद निराशा हाथ लगी।आपकी दूसरी परम्परा में कौन है और कौन नहीं है,इस पर मैं विवाद नहीं करना चाहता लेकिन आप रवीन्द्रनाथ टैगोर का नाम लेना क्यों भूल गए ॽ यह साधारण चूक नहीं है! आपकी दूसरी परम्परा की खोज रवीन्द्रनाथ की परम्परा से प्रेरणा लेकर जन्म लेती है लेकिन आरएसएस नियंत्रित मंच पर आते-आते आप टैगोर को भूल गए।आप मुझसे बेहतर जानते हैं हजारी प्रसाद द्विवेदी के नजरिए के मूल में टैगोर हैं। टैगोर का नाम न लेकर आप क्या बताना चाहते हैं ॽ यह साधाऱण चूक नहीं है,यह सुनियोजित चूक है।इसका सम-सामयिक फासिज्म के राजनीतिक परिदृश्य से गहरा संबंध है।मैं सोच रहा था कम से कम आप जैसा विलक्षण वक्ता,मौलिक वक्ता मंच पर मंत्रियों ने जो बकबास कही उसका उत्तर जरूर देगा।लेकिन आपने किसी भी चीज का उत्तर नहीं दिया,आप कह ही सकते हैं कि मैं साहित्य का सफाई कर्मचारी नहीं हूँ कि हर चीज की सफाई देता फिरूँ! (यह नामवरजी का पुराना जुमला है)
नामवरजी जब राजनाथ सिंह ने मंच पर ´आलोचक´ मानने से इंकार किया ,´आलोचना´ को बैरभाव से लिखी चीज कहा तो आपको नहीं लगा कि यह आपका सरेआम अपमान किया जा रहा है ! आलोचना के शिखरपुरूष के सामने ´आलोचना´की धारणा को विकृत किया जा रहा है ! मैं जानता हूँ आप पढ़ाते समय बार-बार कहते थे अवधारणाओं में सोचो,अवधारणा के विकृतिकरण के खिलाफ संघर्ष करो,अवधारणा को बचाओ।लेकिन राजनाथ सिंह के सामने आप चुप क्यों रहे ॽ आपने प्रतिवाद में इतना ही कह दिया होता राजनाथजी मैं आपसे असहमत हूँ,महेश शर्माजी आपने असहमत हूँ।इसमें आपकी कोई बड़ी क्षति नहीं होती,लेकिन आपने इतना तक नहीं कहा।
आप जानते हैं आपने पढ़ाया है साहित्य में जो बताया जाता है ,उस पर बात करो,लेकिन जो छिपाया जाता है वह ज्यादा गंभीर होता।उसका उद्घाटन करो।यह है दूसरी परम्परा।लेकिन आपको हम मंच पर बहुत कुछ छिपाते हुए देख रहे थे,यह कुल मिलाकर वैसे ही हो रहा था जैसे कोई बच्चा खेल खेल में अपने हाथ में,कपड़े में,पीट के पीछे,बनियान के अंदर,मुँह के अंदर अपनी चीजे छिपा लेता है।आपके इस छिपाने वाले भाव पर मैं तो फिदा हो गया हूँ ! आपसे बताने की,उद्घाटन की कला सीखी, अब इस उम्र में छिपाने की कला भी आपसे से ही सीख रहा हूँ !
आप सच में महान हैं।छिपाना साधारण काम नहीं है,राजनीति छिपाओ, विचारधारा छिपाओ,लिखे को छिपाओ,बोले को छिपाओ!आपके कल छिपाने वाले भाव का लोकतंत्र और साहित्य के प्रतिपक्ष के साथ तीन-तेरह का संबंध है।आपकी छिपाने की कला का साहित्य से कम और फासिज्म की कला से ज्यादा गहरा संबंध है।आप जानते हैं फासिस्ट कला मार्ग कलाओं का अंत है।अभिव्यक्ति की आजादी का अंत है।आप इसके पुरोधा बनकर सामने आए हैं दुख इसी बात का है! हम फिर भी चाहते हैं आप सौ साल जिएं लेकिन अब आप नहीं अन्य लोग आपको दलेंगे।यह त्रासदी आप वैसे ही झेलें जैसे टीएस इलियट ने अपने जीवन में फासिज्म की पराजय के बाद झेली थी।
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