बुधवार, 23 मार्च 2011

23 मार्च शहीद दिवस के मौके पर विशेष-2- मेरा साथी ,मित्र और नेता भगतसिंह -शिव वर्मा


                            (शहीद भगत सिंह)



दो-तीन दिन बाद विजय ने आकर जेल में बिस्मिल पर होने वाली सख्ती और अधिकारियों की सतर्कता का समाचार दिया और बतलाया कि फिलहाल उन्हें छुड़ाने के अपने मंसूबे हमें त्यागने पड़ेंगे। इस समाचार ने भगत सिंह की सारी योजनाएं चौपट कर दीं, उसके सारे ख्वाब तोड़ दिए। बहुत कुछ कोशिशों के बाद बिस्मिल की लिखी एक गज़ल ही विजय के हाथ लग पायी थी। वह गज़ल हमारी योजनाओं को कार्यान्वित होने में देरी होते देख उन्होंने शायद उलाहने के तौर पर लिखी थी; जिसे अधिकारियों ने संभवत: प्रेम की एक साधारण कविता समझ कर पास कर दिया था। इस समय गज़ल की कुछ ही पंक्तियां मुझे याद हैं जो इस प्रकार थीं: 

मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या,
दिल की बरबादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या!
 मिट गई जब सब उमीदें मिट गए सारे खयाल,
 उस घड़ी गर नामावार लेकर पयाम आया तो क्या!
 ऐ दिले नादान मिट जा अब तू कूये यार में,

फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या!
 काश अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते,
 बरसरेतुरबत कोई महशरखराम आया तो क्या!
 आखिरी शव दीद के क़ाबिल थी बिस्मिल की तड़प,
 सुबेहदम कोई अगर बालायेबाम आया तो क्या!

भगत सिंह ने विजय के हाथ से लेकर पर्चा पढ़ा। बिस्मिल का इशारा साफ था-कुछ करना है तो जल्दी करो, बाद में रस्से से लटकती मेरी लाश को तुमने अगर छुड़ा भी लिया तो वह तुम्हारे किस काम आएगी। कागज का वह टुकड़ा उसके हाथ से छूट कर जमीन पर गिर पड़ा और वह माथे पर हाथ रख कर पत्थर की निर्जीव मूर्ति की भांति दीवार के सहारे लुढ़क गया। अब और अधिक बातचीत उस दिन किसी के लिए भी संभव न थी। विजय और सुरेंद्र चले गए और भगत सिंह बगैर कुछ बोले चुप-चाप उठ कर गंगा की ओर चला गया। 

काफी रात बीत जाने पर जब मैं और जयदेव उसकी तलाश में गंगा के किनारे पहुंचे तो उस समय भी वह माथे पर हाथ रक्खे ठंडी रेत पर उसी तरह पत्थर की मूर्ति बना बैठा था। हमने पास जाकर उसके कंधे पर हाथ रक्खा और कमरे में चलने के लिए कहा। वह उठा और परछाई की भांति हमारे पीछे हो लिया, बोला फिर भी नहीं। 

कई महीने के परिश्रम से उसने जहां कुछ भी न था वहां संगठन का एक ढांचा खड़ा किया, योजना बनाई, हथियार जमा किए, साथी जुटाए और जब मंजिल नजदीक आने लगी और उसे लगा कि वह कुछ कर सकने में समर्थ हो सकेगा तो अचानक सब कुछ उलट गया-रह गया था केवल बिस्मिल का उलाहना। भगत सिंह को इससे गहरा आघात लगा, लेकिन एक ही दिन में उसने अपने ऊपर काबू पा लिया। 

दूसरे दिन वह स्वयं ही बोला, ''असफलताओं के सामने सर झुका कर बैठ जाने से तो मार्ग ही अवरुध्द हो जाएगा और तब रास्ते के रोड़े हटा कर बढ़ने के बजाय हम स्वयं ही दूसरों के लिए रोड़ा बन जायेंगे।'' उसने सब साथियों को एकत्रा कर संगठन तथा प्रचार की समस्याओं पर बातचीत की, आगे का कार्यक्रम बनाया और जल्द वापस आने का वादा कर पंजाब चला गया। यह 1927 के शुरू के दिनों की बात है। 

1926 में भगत सिंह, सुखदेव, भगवतीचरण, यशपाल आदि ने लाहौर में नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। यह क्रांतिकारी आंदोलन का एक प्रकार का खुला मंच था जिसका काम था आम सभाओं, बयानों, पर्चों आदि के माध्यम से क्रांतिकारियों के और उनके विचारों का प्रचार करना। शोषण, दरिद्रता, असमानता आदि की संसार व्यापी समस्या पर अध्ययन एवं विचार कर वे लोग इस परिणाम पर पहुंचे थे कि भारत की पूर्ण स्वाधीनता के लिए केवल राजनैतिक ही नहीं बल्कि आर्थिक स्वाधीनता भी आवश्यक है। मैजिक लैंटर्न द्वारा क्रांतिकारी शहीदों के चित्रों का प्रदर्शन और उसके साथ-साथ कमेंटरी के रूप में क्रांतिकारी आंदोलन के संक्षिप्त इतिहास से जनता को अवगत कराना भी उसका एक काम था। प्रचार का वह एक सशक्त माध्यम था। 

नौजवान भारत सभा की स्थापना गुप्त संगठन के कार्य का क्षेत्र तैयार करने और जनता में साम्राज्यवाद विरोधी उग्र राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए की गयी थी। भगत सिंह और भगवतीचरण वोहरा उसके मुख्य सूत्राधार थे। भगत सिंह उसके प्रथम महामंत्राी (जनरल सेक्रेटरी) और भगवतीचरण वोहरा प्रथम प्रचारमंत्री चुने गए थे। सुखदेव, धन्वन्तरी, यशपाल और एहसान इलाही भी सभा के प्रमुख एवं सक्रिय सदस्यों में से थे। उस समय समाजवाद की ओर रुझान रखने वाले कांग्रेस के प्राय: सभी नौजवान खिंच कर सभा में आ गए थे।

सभा के कार्यकर्ताओं के राजनैतिक एवं सामाजिक ष्दृष्टिकोण को परिमार्जित करने और उन्हें वैज्ञानिक भौतिकवाद से परिचित कराने में 'सर्वेंट्स आफ़ पीपल्स सोसाइटी' के प्रिंसिपल छबीलदास का विशेष हाथ था। उनकी एक छोटी सी पुस्तिका 'क्या पढें' ने उस समय अध्ययन के लिए पुस्तक चुनने में हमारी काफी सहायता की थी। इनके अलावा कुछ कांग्रेसी तथा गैर कांग्रेसी नेताओं का सहयोग भी सभा को मिलता रहता था। इनमें डॉ. सत्यपाल, डॉ. किचलू, केदारनाथ सहगल और सोहन सिंह जोश के नाम उल्लेखनीय हैं। 

भगत सिंह जब भी कानपुर आता तो अन्य पुस्तकों के साथ नौजवान भारत सभा का कुछ न कुछ साहित्य अपने साथ अवश्य लाता था। राधामोहन गोकुलजी और सत्यभक्त के संपर्क ने कानपुर के हम सभी साथियों में समाजवाद की ओर रुझान पैदा कर दिया था। शचींद्रनाथ सान्याल के माध्यम से श्रीराधामोहन गोकुलजी और सत्यभक्त से भगत सिंह का संपर्क काकोरी से पहले ही स्थापित हो चुका था और यह चारों 

समाजवाद तथा कम्युनिज्म पर काफी विचार विनिमय कर चुके थे। स्वर्गीय श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के नेतृत्व में हम लोगों ने कानपुर मजदूर सभा में भी दिलचस्पी लेनी आरंभ कर दी थी। आगे चल कर भगत सिंह ने हमारे उस रुझान को बल दिया और समाजवाद का अध्ययन तथा उस पर बहस आदि करने की प्रेरणा प्रदान की।

उसका कहना था कि अंग्रेजी दासता के विरुध्द संघर्ष तो हमारे युध्द का पहला मोर्चा है। अंतिम लड़ाई तो हमें शोषण के विरुध्द ही लड़नी पड़ेगी। चाहे वह शोषण मनुष्य द्वारा मनुष्य का हो या एक राष्ट्र द्वारा दूसरे का हो। यह लड़ाई जनता के सहयोग के बगैर नहीं लड़ी जा सकती। इसलिए हमें हर संभव उपायों से जनता के अधिक से अधिक निकट पहुंचने का प्रयास करते रहना चाहिए। नौजवान भारत सभा की स्थापना, मजदूर सभा में काम, पत्रा-पत्रिकाओं में लेख-मालाएं, मैजिक लैंटर्न का प्रयोग, पर्चे और पैम्फलेट आदि इसी प्रयास के अंग थे। 

भगत सिंह से पहले प्रचार तथा जनसंपर्क की दिशा में इतना बड़ा संगठित कदम क्रांतिकारियों ने नहीं उठाया था। यहां तक कि पकड़े जाने के बाद अदालत तक को उसने मुख्यतया अपने विचारों के प्रचार के साधन के रूप में ही इस्तेमाल किया। वह अच्छा योध्दा ही नहीं अच्छा प्रचारक भी था। 

प्रचार के दो मुख्य साधन हैं, वाणी तथा लेखनी। भगत सिंह का दोनों पर समान अधिकार था। आमने-सामने की बातचीत में होने के साथ ही वह अच्छा वक्ता भी था। नौजवानों तथा विद्यार्थियों के बीच मैजिक लैंटर्न पर उसके भाषण तो विशेष रूप से लोकप्रिय थे। 

और कलम का धनी तो वह था ही। हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी पर उसका समान अधिकार था। उन दिनों कामरेड सोहन सिंह जोश अमृतसर में 'किरती' नाम से गुरुमुखी तथा उर्दू में एक मासिक पत्रिाका निकालते थे। भगत सिंह उन में नियमित रूप से लिखता था। विभिन्न नामों से 'किरती' में क्रांतिकारी शहीदों की जो जीवनियां प्रकाशित हुई थीं उनमें से अधिकांश भगत सिंह की ही कलम की देन थीं। हिंदी में उसने अधिकतर 'प्रताप' तथा 'प्रभा' (कानपुर), 'महारथी'(दिल्ली) और 'चांद' (इलाहाबाद) में ही लिखा। 

अंग्रेजी में लिखे हुए उसके लेख, अदालती वक्तव्य, पत्रा, पर्चें, आदि उसकी सशक्त शैली के प्रमाण हैं। नौजवान भारत सभा के घोषणापत्रा का अंग्रेजी मसविदा भगवतीचरण ने भगत सिंह के साथ मिलकर 1928 में तैयार किया था। भाषा-शैली तथा देश के उस समय के राजनैतिक स्तर को देखते हुए विचारों की परिपक्वता की दृष्टि से उस घोषणापत्रा का आज भी एक ऐतिहासिक महत्व है। असेंबली में बम फेंकने के बाद पकड़े जाने पर अदालत में उसने जो बयान दिया था, वह तो उसी समय एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति का दस्तावेज बन गया था। 

उसे पढ़ने-लिखने का भी बेहद शौक था। वह जब भी कानपुर आता तो अपने साथ दो-चार पुस्तकें अवश्य लाता। बाद में फरार जीवन में जब उसके साथ रहने का अवसर मिला तो देखा कि पिस्तौल और पुस्तक का उसका चौबीस घंटे का साथ था। मुझे ऐसा एक भी अवसर याद नहीं पड़ता जब मैंने उसके पास कोई न कोई पुस्तक न देखी हो। 

1923-24 में भगत सिंह के पिता उसका विवाह करने पर तुल गए थे। पिता की जिद से बचने के लिए वह भाग कर कानपुर चला आया। कुछ दिन दिल्ली भी रहा। यहां उसने बड़ी मुसीबतों में दिन बिताए। दिल्ली, कानपुर से जब वह लाहौर वापस गया तो उसकी पगड़ी का स्थान एक छोटे अंगौछे ने ले लिया था। उसकी कमीज उसके शरीर का साथ छोड़ गयी थी और जब उसका बंद गले का खद्दर का कोट कमीज का काम दे रहा था। कोट की आस्तीनें फट जाने पर उसने पायजामे की टांगें आस्तीन की जगह जोड ली थीं और पायजामे का स्थान उसकी चादर ने ले लिया था। जिसे वह लुंगी की तरह इस्तेमाल करने लगा था। लेकिन इस हालत में भी उसके कोट की जेब में कोई न कोई पुस्तक अवश्य रहती थी। 

भगत सिंह को सौंदर्य, संगीत तथा कला से भी बेहद प्यार था। आगरा केंद्र पर जब कभी पंजाब से सुखदेव आ जाता तो वे दोनों एक दूसरे में ऐसे खो जाते मानो और कोई हो ही नहीं। उस समय पंजाब कांग्रेस की गतिविधि, उसके नेताओं की आपसी पैंतरेबाजियां, नौजवान भारत सभा का काम, बुध्दिजीवियों का मानसिक चढ़ाव-उतार, क्रांतिकारी आंदोलन की समस्याएं, मजदूरों के संघर्ष आदि विषयों से लेकर किसने क्या पढ़ा है, पठित पुस्तकों के लेखकों की शैली और उसके विचार, नयी पिक्चर्स, अभिनेताओं की ऐक्टिंग आदि सभी बातों पर बहस होती।

भगत सिंह से पहले क्रांतिकारियों का उद्देश्य था केवल मात्र देश की आजादी। लेकिन इस आजादी से हमारा क्या अभिप्राय है इस पर उससे पहले हमारे दिमाग साफ न थे। क्या अंग्रेज वायसराय को हटा कर उसके स्थान पर किसी भारतीय को रख देने से आजादी की समस्या का समाधान हो जाएगा? क्या समाज में आर्थिक असमानता और उस पर आधारित मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के बरकरार रहते हम सही मायने में आजादी का उपभोग कर सकेंगे? आजादी के बाद की सरकार किस की होगी और भावी समाज की रूपरेखा क्या होगी आदि प्रश्नों पर क्रांतिकारियों में काफी अस्पष्टता थी। भगत सिंह ने सबसे पहले क्रांतिकारियों के बीच इन प्रश्नों को उठाया और समाजवाद को दल के ध्येय के रूप में सामने लाकर रखा। उसका कहना था कि देश की राजनैतिक आजादी की लड़ाई लक्ष्य की ओर केवल पहला कदम है और अगर हम वहीं पर जाकर रुक गए तो हमारा अभियान अधूरा ही रह जाएगा। सामाजिक एवं आर्थिक आजादी के अभाव में राजनैतिक आजादी दरअसल थोड़े से व्यक्तियों के द्वारा बहुमत को चूसने की ही आजादी होगी। शोषण और असमानता के उन्मूलन के सिध्दांत पर गठित समाजवादी समाज और समाजवादी राजसत्ता ही सही अर्थों में राष्ट्र का चौमुखी विकास कर सकेगी। समाजवाद उस समय युग की आवाज थी। क्रांतिकारियों में भगत सिंह ने सबसे पहले उस आवाज को सुना और पहचाना। यहीं पर वह अपने दूसरे साथियों से बड़ा था।(क्रमशः)

( लेखक शिववर्मा ,भगतसिंह के साथी हैं और भारत कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े रहे हैं)







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