रविवार, 20 मार्च 2011

होली पर विशेष- नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे - सूर्यकान्त त्रिपाठी ' निराला'



 नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे,खेली होली !
जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप ,कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली-
                मली मुख-चुम्बन-रोली।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गयी चोली,
एक-वसन रह गयी मन्द हँस अधर -दशन अनबोली-
                      कली -सी काँटे की तोली।

मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक,मुँद गये पलक-दल,श्रम-सुख की हद हो ली-
                          बनी रति की छवि भोली।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल,मुख-लट,पट,दीप बुझा,हँस बोली
                      रही यह एक ठठोली।
(सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की यह कविता 'जागरण' ,पाक्षिक,काशी,22मार्च 1932 को होली शीर्षक से छपी थी )


1 टिप्पणी:

  1. रंगों की चलाई है हमने पिचकारी
    रहे ने कोई झोली खाली
    हमने हर झोली रंगने की
    आज है कसम खाली

    होली की रंग भरी शुभकामनाएँ

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