मंगलवार, 15 मार्च 2011

भाषा, इतिहास और वर्गसंघर्ष- 1- डेविड मेक्नेलि


भाषा और नव आदर्शवाद
भाषा विचार की तत्काल परिणति है। जिस प्रकार दार्शनिकों ने विचार को एक स्वतंत्र अस्तित्व दिया, भाषा को भी एक स्वतंत्र वजूद देना उनकी मजबूरी हो गई।
मार्क्स और एंगेल्स, 'दि जर्मन आइडियोलॉजी'
आज हम एक ऐसे नव आदर्शवाद का सामना कर रहे हैं जो वाम बुध्दिजीवियों के एक बड़े वर्ग को प्रभावित कर रहा है। जिसने भाषा को न केवल एक स्वतंत्र क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया है वरन इसे सर्वव्यापी क्षेत्र भी बना दिया है। इतना अधिक सर्वव्यापी, इतना प्रभावशाली मानो इसने मानव एजेंसी को ही लगभग अस्तित्वहीन कर दिया हो। आप कह सकते हैं, सब कुछ विमर्श है और विमर्श ही सब कुछ है; क्योंकि मनुष्य एक भाषिक जीव है; वह जिस दुनिया में कार्य करता है उसे भाषा के माध्यम से जानता है और परिभाषित करता है। कथित रूप से निष्कर्ष यह हुआ कि भाषा के दायरे से बाहर कुछ भी नहीं। जो हम जानते हैं, जो कल्पना करते हैं, जो कर सकते हैं, इन सबको हमारी भाषा 'विमर्श' या पाठ परिभाषित तथा सीमित करते हैं; शब्दावली बदलती है संप्रेषण नहीं।
यहां एक राजनीतिक सिध्दांत भी है। ऐसा कहा जाता है कि दमन अंतत: उस रूप में बध्दमूल है जिसमें हम तथा दूसरे भाषिक दृष्टि से परिभाषित होते हैं; जिस रूप में हम शब्दों द्वारा अन्य शब्दों या कोड, जिसे 'भाषा के साथ संरचित' कहा जाता है, के सापेक्ष अवस्थित होते हैं। हमारा अस्तित्व, हमारी स्थायी अस्मिता और 'आत्मपरकता' भाषा के माध्यम से निर्मित होती हैं। जैसा कि एक नवाचारी साहित्यिक सिध्दांतवादी, 'डेविड लाज' के उपन्यास 'नाइस वर्क' में कहता है, आप केवल वही नहीं जो आप बोलते हैं; नहीं, बल्कि नव आदर्शवाद के अनुसार, 'आप वह हैं जो आपको बोलता है।' इस प्रकार भाषा ही अंतिम 'बंदीगृह' है। वहां हमारी कैद विरोध से परे है। जो हमारा निर्माण करती है उससे बच निकल पाना असंभव है।
यह नव आदर्शवाद राजनीतिक क्षितिजों के व्यापक विघटन से मेल खाता है। यह वामपंथियों के पश्चगमन की अवधि का छद्म आमूलपरिवर्तनवाद है। बिना कार्रवाई केशब्दों का मौखिक आमूलपरिवर्तनवाद, या यों कहें शब्द ही कार्रवाई है। दमन और शोषण की वास्तविक संरचनाओं तथा आचरणों के प्रत्युत्तर में यह केवल आलंकारिक भाव, या मुहावरों का व्यंग्यपूर्ण रूप प्रस्तुत करता है। इसीलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं होता जब नव आदर्शवाद के प्रमुख विचारक, जाक देरीदा कहते हैं 'उन्हें मुक्ति जैसे शब्दों का उपयोग करने में झिझक होगी।'1 भाषा के भीतर कैद हम शब्दों से खेल तो सकते हैं लेकिन स्वयं भाषा में बध्दमूल दमन की अपरिवर्तनीय संरचनाओं से अपने आपको मुक्त नहीं करा सकते।
नव आदर्शवाद तथा जिस तरह की राजनीति की यह मांग करता है, वे महज हानिरहित उत्सुकताएं नहीं हैं। वे राजनीतिक दायित्व का परित्याग हैं, विशेष रूप से ऐसे समय में जब उग्र पूंजीवादी पुनर्संरचना हो रही हो; जब अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ती जा रही हो, जब सामाजिक प्रोग्रामों के विरुध्द शासक वर्ग की कार्रवाइयां बढ़ रही हों। वे विरोध तथा प्रतिरोध के जन आंदोलनों के पुनर्गठन में भी बाधक हैं। बहरहाल इस लेख का उद्देश्य भाषा संबंधी आदर्शवाद की एक और समालोचना प्रस्तुत करना नहीं है। इसे आप चाहे उत्तरसंरचनावाद, उत्तरआधुनिकतावाद या उत्तरमार्क्सवाद का नाम दें। बल्कि मैं बहस को दूसरी जमीन की ओर मुड़ना चाहूंगा, जहां मेरा ध्येय यह दरशाना होगा कि मार्क्सवाद इन बौध्दिक धाराओं की आलोचना करने से कहीं अधिक सार्थक कुछ कर सकता है। मैं यह दरशाना चाहूंगा कि मार्क्सवाद के पास भाषा के विवरण तथा मानवीय आचरण, जो कि इन आदर्शवादी विचारों से अधिक समृध्द और अधिक व्यापक है, के समूह के बीच इसके स्थान के बारे में वर्णन के लिए पर्याप्त संसाधन है। यह विवरण भाषा को अन्य बातों के साथ-साथ सामाजिक अन्योन्यक्रिया के एक स्थल के रूप में समझ सकता है जो कि कार्य तथा संघर्ष के संबंधों यानी वर्ग संघर्ष द्वारा निर्धारित होता है।
सामाजिक श्रम और 'वास्तविक जीवन की भाषा'
मार्क्स और एंगेल्स ने किसी भाषा के सिध्दांत का विकास नहीं किया। फिर भी उन्होंने जो कुछ भी थोड़ा-बहुत कहा खासकर ऐसे समय में इस विषय पर प्रकाश डालता है जब ऐतिहासिक भौतिकवाद के कुछ मूलभूत सिध्दांतों के संबंध में व्यापक भ्रम है।
सबसे पहले हमारे लिए यह स्मरण करना उपयोगी होगा कि 'दि जर्मन आइडियोलाजी' जैसी आरंभिक अवधारणा मानव जीवन में चेतना की भूमिका से इनकार नहीं करती। बल्कि भौतिकवादी अवधारणा, श्रमिक, सामाजिक उत्पादन तथा संपूर्ण मानवीय व्यावहारिक गतिविधियों से चेतना, विचार और वैचारिक क्षेत्र को अलग करने का विरोध करती है। आदर्शवाद विचार और भाषा को गंभीरता से लेता है। इसके लिए मार्क्स और एंगेल्स इसकी आलोचना नहीं करते, बल्कि इन्हें 'स्वतंत्र अस्तित्व' देने की वकालत करते हैं, जैसा कि इस लेख का आरंभिक उध्दरण दरशाता है। वे इस बात पर बल देते हैं कि मनुष्य अपनेजीवन की स्थितियों की समग्रता के निर्माण के एक भाग के रूप में विचारों को जन्म देता है। अत: विचारों तथा अवधारणाओं का निर्माण भौतिक गतिविधि तथा लोगों के बीच होने वाले भौतिक लेन-देन से प्रत्यक्षत: अंतर्ग्रथित है। उनका सुझाव है कि दरअसल यही 'वास्तविक जीवन की भाषा' है।
मानव जीवन को परिभाषित करने वाला एक गुण है सामाजिक श्रम। हम इसी के माध्यम से अलग-अलग व्यक्तियों के अंत:संबध्द उत्पादन संबंधी कार्यों को संगठित करते हैं ताकि हम भौतिक रूप से पुन: उत्पादन कर सकें। जिस प्रकार चेतना मानव कार्य की पूर्वशर्त है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के बीच संप्रेषण यानी विचारों के आदान-प्रदान की क्षमता आवश्यक है ताकि सामाजिक श्रम के बीच समन्वय स्थापित किया जा सके। और भाषा ही इस प्रकार के संप्रेषण का माध्यम है। यह मानव चेतना का मूल तत्व है। मनुष्य विलक्षण सामाजिक प्राणी है और भाषा उस विशिष्ट मानवीय चेतना का एक रूप है। यानी 'भाषा उतनी ही पुरानी है, जितनी चेतना; यह व्यावहारिक, वास्तविक चेतना है जो अन्य मनुष्यों के लिए भी होती है।'2 हालांकि यह विवरण अपूर्ण प्रतीत हो सकता है, लेकिन वैसी किसी भी धारणा के लिए अपरिहार्य है जो व्यावहारिक मानवीय क्रियाकलाप को समग्रता से अलग किए बिना भाषा को गंभीरता से लेना चाहती है। फिर भी मार्क्स और एंगेल्स भाषा को समझने के लिए एक चौखाने (फ्रेमवर्क) से ज्यादा कुछ भी उपलब्ध नहीं कराते। सौभाग्यवश मार्क्सवादी परंपरा के बाद के लेखकों ने इस विश्लेषण का विकास और विस्तार करने का प्रयास किया है। इससे भाषा का भौतिकवादी सिध्दांत और भी समृध्द
हुआ है।
संकेत, बोली और वर्ग संघर्ष
इन प्रयासों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य वी.एन. वोलोशिनोव की पथप्रदर्शक पुस्तक 'मार्क्सिज्म एंड दि फिलोसाफी ऑफ लैंग्वेज' (1929) है। वोलोशिनोव ने अपनी पुस्तक उस दरम्यान लिखी थी जब 1917 की अक्तूबर की क्रांति के परिणामस्वरूप साहित्य, कला, भाषा और संस्कृति के बारे में जोरदार बहस हो रही थी। स्तालिन की तानाशाही के बढ़ने के साथ ही वह बहस बंद हो गई। वोलोशिनोव स्वयं भी 1930 के दशक के दौरान किए गए शुध्दीकरण में विलुप्त हो गए। हालांकि हाल के बरसों में वोलोशिनोव तथा मिखाइल बख्तिन, एक ऐसे साहित्यकार जिन्होंने वोलोशिनोव की लेखनी को प्रभावित किया, के लेखों को पुनर्जागरण जैसा महत्व मिला है।3
वोलोशिनोव के भाषा संबंधी विचारों के लिए तीन आरंभिक प्रस्थापनाएं आवश्यक हैं। पहली, शब्दों से लेकर ट्रैफिक संकेतों तक सभी संकेत भौतिक हैं। वे किसी न किसी भौतिक रूप में अभिव्यक्त किए जाते हैं। दूसरी, संकेतों की प्रकृति सामाजिक होती है। वे व्यक्तियों के बीच परिसीमाओं पर स्थित होते हैं और उनके बीच संप्रेषणात्मक अन्योन्यक्रियाके बाहर इनका कोई अर्थ नहीं होता। तीसरी, चूंकि संकेत सामाजिक होते हैं इसलिए भाषा संबंधी कोई भी विशद दृष्टिकोण बोली पर केंद्रित होना चाहिए; उस माध्यम पर केंद्रित होनी चाहिए जिससे अधिकांश भाषाई अन्योन्यक्रियाएं होती हैं। बोली के बाहर भाषा निर्जीव है, यह स्वयं संप्रेषण क्रिया के बिना संप्रेषण के साधनों का संग्रह है यानी साररहित रूप। अत: भाषा का जीवन; इसकी गतिशीलता बोली में, लोगों की शाब्दिक अन्योन्यक्रिया में होती है।
लेकिन सामाजिक अन्योन्यक्रिया महज तर्कमूलक नहीं होती। बोली ऐसा क्षेत्र नहीं जिसका 'स्वतंत्र अस्तित्व' हो। यह सामाजिक संबंधों के बहुरूपीय अंतर्संबंधों का एक पहलू है। यानी संकेत उन संबंधों में निहित होते हैं जो विभिन्न मनुष्यों के बीच होते हैं। विशेष रूप से व्यक्तियों के बीच पदसोपानी संबंधों का भाषा और बोली पर गहरा प्रभाव होता है। वोलोशिनोव लिखते हैं, 'संकेतों के रूप सबसे अधिक इसमें भाग लेने वालों के सामाजिक संघटन द्वारा निर्धारित होते हैं।' (पृ. 21) अत: बोली का अनुकूलन पदसोपान तथा वर्चस्व द्वारा और इनके प्रतिरोध द्वारा होता है। विभिन्न समूह शब्दों का स्वराघात उन रूपों में करने का प्रयास करते हैं जो उनकी सामाजिक अन्योन्यक्रिया तथा सामाजिक आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करते हों। यह विशेष रूप से उन लोगों के साथ लागू होता है जिनमें स्पष्ट रूप से अलग वर्ग संबंध हों। लेकिन यह केवल उनके साथ ही लागू होता है, ऐसा भी नहीं है। परिणामस्वरूप, 'संकेत वर्ग संघर्ष का एक क्षेत्र बन जाता है।'
(पृ. 23)
यहां इस बात पर बल दिया जाना चाहिए कि यह तर्क उत्तर-संरचनावादी विवेचना से काफी अलग है जो कि कुछ मामलों में समान दिख सकता है। उदाहरण के लिए मिशेल के अनुसार भाषा शक्ति और वर्चस्व का क्षेत्र है जो विशेष रूप से अस्पतालों, अनाथालयों और बंदीगृहों जैसे सामाजिक संस्थाओं में निरूपित होती है। और विशेष रूप से अपने बाद के लेखनों में ंफूको वर्चस्व के आचरणों के विरुध्द प्रतिरोध की संभावना व्यक्त करते प्रतीत होते हैं। ंफूको का शक्ति पर जोर देना उन थ्योरीज की राजनीतिक शून्यता का विरोध करने का प्रयास था जो सामाजिक संबंधों को भाषा-विषयक रूपों में सीमित कर देती हैं। देरीदा को दिए एक जोरदार जवाब में उन्होंने विरचनावादियों पर यह आरोप लगाया कि वे सब कुछ पाठों में ढूंढ़ते हैं 'ताकि तर्कमूलक प्रयोग वापस उन परिवर्तन के क्षेत्रों में नहीं लाए जा सकें जहां ये किए जाते हैं।'4 उनका यह विचार काफी सशक्त है। फिर भी, पाठ के अंत:क्षेत्र को अस्वीकार करते समय ंफूको स्वयं इससे बाहर निकलने में विफल रहते हैं कि विमर्श खुद ही एक बंद क्षेत्र है। वास्तव में उनकी 'सत्ता-ज्ञान' (पावर-नॉलेज) की पूरी अवधारणा इस विचार को दरशाना चाहती है कि शक्ति संबंध मनुष्यों के 'जानने' के आचरणों के माध्यम से तथा इन आचरणों में बनते हैं। और लोगों के वर्गीकरण, मापन तथा सर्वेक्षण के ये प्रयोग विमर्श के उस क्षेत्र से उत्पन्न होते हैं जहां लोगों के विचार तथा वर्णन भिन्न-भिन्न श्रेणी के होते हैं। इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि 'मानवता का विकासअधिनिरूपणों की एक शृंखला है।' अत: सामाजिक संस्थाओं तथा उनके वर्चस्व के आचरणों में अपनी तमाम अंतर्दृष्टियों के बावजूद ंफूको तर्कमूलक नियमनवाद के अपने पाठ की ओर लौट आते हैं; वह अपने विचार के तर्क से इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि 'कोई भी व्यक्ति अनिवार्यत: विमर्श के आयाम के भीतर ही रहता है।'5
जहां तक 'जॉक लकां' और उसके मनोविश्लेषण के उत्तर-संरचनावादी अध्ययन का संबंध है, इस संबंध में शायद और अधिक प्रेक्षण की आवश्यकता है। प्राय: अवचेतन मस्तिष्क तथा इसके नियामकों पर 'लकां' द्वारा बल दिए जाने को भाषा-विषयक नियमनवाद की अस्वीकृति के रूप में देखा जाता है। फिर भी, चीजें इतनी स्पष्ट और सीधी नहीं हैं क्योंकि लकां अवचेतन की एक भाषिक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। ऐसा करने में वह भौतिकवादी आवेग से बिलकुल अलग विचार व्यक्त करते हैं। भौतिकवादी आवेग कई रूपों में फ्रायड के सर्वाधिक उग्र और विध्वंसक पहलू, उसकी शारीरिक सहज प्रेरणा और मनस्तत्व के सिध्दांत को दरशाता है जो आनंद की मांग करता है। सचमुच फ्रायड इन मनस्तत्वों को सामाजिक रूप से माध्यमीकृत, लचीला तथा अभिव्यक्ति के विभिन्न रूप लेने में सक्षम मानते हैं। फ्रायड इस बात पर जोर देते हैं कि मानव मस्तिष्क एक ऐसा स्थल है जहां शारीरिक सजह प्रेरणा अपने को व्यक्त करती है तथा सामाजिक नियमों और परंपराओं से टकराती है। उनकी यह धारणा उन परंपराओं से बिलकुल अलग है जो मस्तिष्क क्षेत्र, भाषा तथा विचार को आवश्यक रूप से आत्म परिपूर्ण मानती हैं। फ्रायड के अनुसार अवेचतन अन्य बातों के साथ-साथ वह स्थल है जहां दबी हुई शारीरिक इच्छाएं अपने को व्यक्त करती रहती हैं। इस धारणा का अधिकांश यदि पूरा नहीं तो, लकां के इस दावे में गुम हो जाता है कि 'अवचेतन की संरचना भाषा के समान है।'6 उन्होंने फ्रायड के सिध्दांत को काफी हद तक अमूर्त बना दिया है। मानव शरीर पर इसकी पकड़ को ढीला किया है तथा भाषागत आधार पर इसकी पुनर्संरचना की है। जब वह मानव प्रकृति का वर्णन 'उन प्रभावों द्वारा बुनी हुई आकृति के रूप में करते हैं जिनमें भाषा की संरचना होती है, तो वह फ्रायड के सिध्दांत को भाषाविज्ञान के मॉडल में ढाल रहे होते हैं। परिणामस्वरूप, भाषा मानव शरीर तथा सामाजिक-भौतिक आचरणों से अलग हो जाती है। लकां का उद्देश्य जो भी हो, वह हमें उसी बंदीगृह में वापस डाल देते हैं जहां भाषा 'मनुष्य के माध्यम' से बोलती है।'7
अब हम वोलोशिनोव की ओर यह देखने के लिए लौटते हैं कि उनका सामाजिक संघर्ष के स्थल के रूप में भाषा पर जोर देना किस प्रकार भाषिक घेरेबंदी में हमें लेने से परहेज करता है। यदि 'संकेत' वर्ग संघर्ष का एक युध्दक्षेत्र है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि विभिन्न सामाजिक वर्गों के सदस्यों के लिए शब्दों (या आम तौर पर संकेतों) का बिलकुल अलग-अलग अर्थ होता है। वोलोशिनोव एक सरल सापेक्षवाद का विरोध करते हैं। साथ ही वह उनकी आलोचना करते हैं जो शब्दों और अर्थों को मूर्त रूप देते हैं; जो सामाजिक अन्योन्यक्रिया तथा संघर्ष के सजीव क्षेत्र को उनसे अलग करते हैं। वह जोर देकर कहते हैंकि शब्दों के अर्थ वैसे ही स्थिर और अमूर्त होते हैं जैसा कि हम शब्दकोश में पाते हैं। लेकिन बोली में अर्थ और विषयवस्तु दोनों शामिल होते हैं। विषयवस्तु का सरोकार उन स्वराघातों और अवधारणाओं से है जो विशिष्ट सामाजिक समूहों द्वारा शब्दों को दी जाती हैं ताकि वे अपने अनुभवों का संप्रेषण कर सकें। दरअसल वे भिन्न-भिन्न संदर्भों में अलग-अलग 'बोली-विधाओं' में भाग लेते हैं जिनके अपने स्वराघात, मानक शब्दावली, स्थानीय भाषा आदि होती है। अत: एक बड़े ऑफिस में एक सेक्रेटरी अपने पर्यवेक्षक से बात करते समय एकदम अलग विधा इस्तेमाल करेगी, जबकि अपने सहकर्मियों के साथ लंच में या काम के बाद यूनियन की बैठक में अन्य विधा का। पहली विधा में प्रतीयमानत: सम्मान और अधीनस्थता के लक्षण होंगे। दूसरी विधा में अपेक्षाकृत समतावादी बोली तथा मालिकों और पर्यवेक्षकों पर विनोदपूर्ण कटाक्ष होंगे। अंतत: तीसरे संदर्भ में अपेक्षाकृत संहिताबध्द विरोधात्मक विमर्श होगा जिसमें एकजुटता दरशाने वाले शब्द (भाइयों और बहनों) तथा मालिकों के विरुध्द प्रतिरोध दरशाने वाले शब्द होंगे।
भाषा और बोली के प्रति यह दृष्टिकोण लोगों को विभिन्न प्रकार के संबंधों तथा गतिविधियों में व्यस्त पाता है जिनमें अलग-अलग विधाएं उन्हें अपने अनुभवों को व्यक्त करने तथा चीजों को समझने में अनेक संसाधन मुहैया कराती हैं। कोई एक सर्वमान्य विमर्श नहीं है जो सभी संदर्भों के लिए हो। हालांकि जो सत्ता का उपयोग करते हैं वे अपने अधीनस्थों पर एक ही विमर्श लादने का प्रयास कर सकते हैं। हालांकि वे आपस में मिलते-जुलते हैं इसलिए दमित और शोषित लोग अपनी अलग विधा का सृजन कर लेते हैं जो सामाजिक अनुभव, विरोधपरक अभिवृत्तियों तथा इस प्रकार के पहलुओं को व्यक्त करती हैं, जिन्हें आधिकारिक विमर्श अस्वीकार करने का प्रयास करते हैं। अत: वोलोशिनोव के अनुसार संकेत बहुस्वराघातीय होते हैं। उनके स्वराघात विभिन्न तरीकों से किए जा सकते हैं जो विभिन्न सामाजिक समूहों के अनुभवों को व्यक्त करते हैं। लेकिन आधिकारिक विमर्श और शासक वर्गों के आलंकारिक तंत्र संकेत के बहुस्वराघाती प्रकृति को अस्वीकार करने का प्रयास करते हैं। शासक वर्ग विमर्श के माध्यम से एक ही प्रकार का विश्वदर्शन प्रस्तुत करना चाहता है। फलस्वरूप वह अर्थों तथा विषयवस्तुओं के एकीकृत समूह को चीजों के वर्णन करने के एक मात्र संभव तरीके के रूप में जबरन प्रस्तुत करता है। वोलोशिनोव लिखते हैं, 'शासक वर्ग विचारधारात्मक संकेत को अधिवर्गीय और शाश्वत चरित्र प्रदान करने का प्रयास करता है।' (पृ. 23) दूसरे शब्दों में यह संकेतों को मूर्त रूप देने का प्रयास करता है ताकि उनका स्थायी और अपरिवर्तनीय रूप में इस्तेमाल किया जा सके। शासक वर्ग उन्हें असामान्य, ऐकिक तथा शाश्वत अर्थ में सक्षम बनाने का भी प्रयास करता है।
लेकिन वे चाहे जितना प्रयास कर लें, शासक वर्ग संकेतों के उन रूपों में स्वराघात के प्रयासों को रोक नहीं सकते जिनके अर्थ आधिकारिक विमर्श के बाहर होते हैं। वोलोशिनोव इस बारे में पूरी तरह स्पष्ट नहीं हैं कि ऐसा क्यों है। लेकिन उनका उत्तर सीधा लगता है।मानव श्रम की सारी पध्दतियां एक सीमा या अन्य सीमा तक सामाजिक होती हैं। इतिहास में ऐसी कोई उत्पादन की पध्दति नहीं देखी गई जो अकेले व्यक्ति द्वारा चलाई जाती हो। प्रत्यक्ष उत्पादक वो चाहे किसाने हों, कृषि दास हों या वैज्ञानिक मजदूर, सभी श्रम प्रकिया में तथा काम के बाहर अपने अन्योन्यक्रियाओं में एक दूसरे की सहायता और सहयोग करते हैं। और इन संदर्भों में वे जिन तरीकों से आपस में बातें करते हैं, उन पर उनके शासकों का प्रत्यक्ष नियंत्रण और पर्यवेक्षण नहीं होता। दूसरे शब्दों में, वैकल्पिक विमर्शों का विकास होता है क्योंकि आधिकारिक विमर्श दमित मजदूरों के जीवन के सभी अनुभवों को समाहित नहीं कर पाते। दमित मजदूरों की कई सामाजिक अन्योन्यक्रियाएं हैं जो अपने मालिकों के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से आंशिक रूप में या पूर्णरूपेण मुक्त होती हैं। इन्हीं मुक्त 'स्थानों' में वे उन विमर्शों या विधाओं का विकास करते हैं जो उनकी भावनाओं, उनके मनोवेगों, प्रत्ययों, विचारों तथा आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं, जो अन्यथा आधिकारिक विमर्शों द्वारा स्वीकार नहीं किए जाते।
संकेत एकाश्मिक होने के बजाए अंतर्विरोधी स्वराघातों से पूर्ण होते हैं। हालांकि अधिकांश समय में यह प्रतीयमान नहीं होता। वोलोशिनोव तर्क देते हैं कि 'जीवन की सामान्य स्थितियों में विचारधारात्मक संकेत में अंतर्निहित विरोधाभास पूरी तरह उभर कर सामने नहीं आ सकते।' (पृ. 23) लेकिन सामाजिक संकट या क्रांतिकारी उथल-पुथल के समयों में जब शासक वर्ग की वैधता पर आक्रमण किया जाता है, ये विरोधाभास उभर कर सामने आ जाते हैं क्योंकि प्रबल विमर्शों को क्रांतिकारियों द्वारा चुनौती दी जाती है। ये क्रांतिकारी वैकल्पिक तथा विरोधपरक विमर्शों के लिए अधिक से अधिक सार्वजनिक स्थान की मांग करते हैं। यही कारण है कि जन आंदोलनों की प्रकृति, लेनिन के शब्दों में, 'दमित लोगों के त्योहार' की होती है। कभी-कभी जब नियंत्रण और प्रतिबंध की संरचनाएं टूटने लगती हैं, प्रतिरोध और विरोध के विचारों तथा विमर्शों को व्यक्त करने के क्षेत्र अत्यधिक बढ़ जाते हैं। फिर भी, विद्रोह के जश्न के दौरान जो दुनिया के उलट-पुलट होने के बिंब उभर कर सामने आते हैं वे तात्क्षणिक सर्जना नहीं होते। वे उन विधाओं से उत्पन्न होते हैं जिनकी रचना दमित तथा शोषित समूहों ने पूरे इतिहास के दौरान की है ताकि वे अपने अनुभवों को व्यक्त कर सकें और विरोध के आचरणों को, असमान रूप से ही, एक कर सकें।
अत: वोलोशिनोव का भाषा का सिध्दांत सर्वाधिक ऐतिहासिक है। यह नव आदर्शवाद में मौजूद स्थैतिक तथा अनैतिहासिक धारणाओं का एक शक्तिशाली दोषनिवारक है। यह आश्चर्यजनक है कि भाषा के आदर्शवादी निरूपण उस समय भी अत्यधिक अनैतिहासिक होते हैं, जब वे विमर्शों की ऐतिहासिकता पर बल दे रहे होते हैं, जैसा करने के लिए फूको जाने जाते हैं। उनके लिए इतिहास तर्कमूलक 'विभेदों' की एक शृंखला प्रतीत होता है; भाषिक प्रतिमानों का एक असंबध्द अनुक्रम, न कि एक गतिशील प्रक्रिया जिसका सृजन ठोस सामाजिक संबंधों में रह रहे लोगों के बीच अन्योन्यक्रियाओं तथा संघर्षों द्वारा होता है।वोलोशिनोव हम लोगों को संप्रेषण के जीवंत क्षेत्र में ले जाते हैं, सामाजिक जीवन के तनावों और अंतर्विरोधों में जी रहे लोगों की मौखिक अन्योन्यक्रियाओं के बीच। ऐसा करके वह इतिहास, सामाजिक अन्योन्यक्रिया और वर्ग संघर्ष को भाषा के अध्ययन क्षेत्र में पुन: स्थापित करते हैं। फिर भी उनका विश्लेषण काफी सामान्य स्तर पर है और इसे अपेक्षाकृत अधिक ठोस आधार देने की आवश्यकता है। ऐसा करना दो प्रमुख क्षेत्रों के संबंध में आवश्यक है। पहला, सामाजिक व्यवहारों की प्रकृति के संबंध में, जिससे दमित और शोषित अपनी बोली की विधाओं का विकास करते हैं। और दूसरा राजनीतिक आचरण के लिए उनके विश्लेषण के निहितार्थों के संबंध में। पहले विषय के संदर्भ में मैं यह दरशाना चाहूंगा कि कैसे एक समृध्द ऐतिहासिक लेखन व्यवहार में तथा विमर्श में प्रतिरोध की द्वंद्वात्मकता को समझने में हमारी मदद कर सकते हैं। दूसरे प्रश्न के लिए मैं अंतोनियो ग्राम्शी द्वारा अपनी पुस्तक 'प्रिजन नोटबुक्स' में भाषा संचेतना, राजनीतिक संघटन के बारे में विकसित कुछ प्रमुख तर्कों का सहारा लेना चाहूंगा।(क्रमशः)

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