शनिवार, 6 मार्च 2010

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर विशेष- औरत को बांटने वाली शक्तियां



महिलाओं का सन् 1947 के विभाजन ने जो अ-राजनीतिकरण किया उसी का कालान्तर में हिन्दुत्ववादी संगठनों ने जुझारू साम्प्रदायिक विचारधारा के साथ इस्तेमाल किया। यह विडम्बना ही कही जाएगी कि जिस समय औरतें अपनी राजनीतिक जमीन तैयार कर रही थीं,राजनीतिक स्पेस तैयार करने में लगी थीं, औरतों के व्यापक हितों से जुड़े सवाल उठा रही थीं,अपना जनाधार व्यापक बनाने की कोशिश कर रही थीं। औरतों के लिए राजनीतिक माहौल अनुकूल बन रहा था,ठीक उसी समय औरतों को साम्प्रदायिक विभाजन और साम्प्रदायिक हिंसा का सबसे ज्यादा सामना करना पड़ा। 
    
    यही वह दौर है जिसमें औरत को अगड़े और पिछड़े के आधार पर, हिन्दू और मुसलमान के आधार पर विभाजित करके पेष किया गया। जेण्डर के रूप में औरत की समग्र पहचान को तोड़ा गया। अब एक ऐसी औरत सामने आयी जिसे दंगाई औरत भी कह सकते हैं। दंगा करती औरत, आग लगाती औरत ,पूरी तरह साम्प्रदायिक औजारों से लैस औरत। इस औरत की छवि भारत में पहले कभी नहीं देखी गई थी।

औरत की जेण्डर के रूप में पहचान को अस्वीकार करने वाली समस्त धारणाएं अंतत: मर्दवादी विचारधारा की शरण में जाती हैं। इसे मर्दवाद का प्रच्छन्न लक्षण कहना गलत नहीं होगा।औरत के इस विभाजनकारी रूप ने जेण्डर के रूप में महिला की राजनीतिक और सामाजिक पहचान को जबर्दस्त क्षतिग्रस्त किया है। महिला आन्दोलन की राजनीतिक षक्ति को कमजोर किया है। विचारधारा के क्षेत्र में पुंसवाद के खिलाफ संघर्ष को कमजोर किया और सामाजिक कट्टरता को पुख्ता बनाया है।
    
    औरत की धारणा को लेकर साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों में पुरूष-संदर्भ अभी भी वर्चस्व बनाए हुए है। औरत अभी भी साहित्य में बेटी,बहन,बीबी,बहू ,माँ,दादी,चाची,फूफी, मामी आदि रूपों में ही आ रही है। औरत को हमारे साहित्यकारऔर राजनीतिज्ञ परिवार के रिश्ते के बिना देख नहीं पाते ,पुरुष -संदर्भ के बिना देख नहीं पाते। कहीं-कही औरत की आर्थिक यूनिट के रूप में छवि नजर आती है।
    इस प्रसंग में हिन्दी आलोचना के बारे में सबसे पहली आपत्ति यह है कि उसमें स्त्री का एक अनुशासन (डिसिपिलीन) के रूप अभी तक अध्ययन ही नहीं किया गया। सच यह भी है कि हिन्दी में बहुत कम विषय हैं -कविता और इतिहास को छोड़कर -जिनका अनुशासन के रूप में अध्ययन-अध्यापन किया गया है।
      कायदे से ज्ञान के अनुशासन के रूप में औरत के अध्ययन-अध्यापन पर जोर दिया जाना चाहिए। हम अनुशासन के रूप अध्ययन पर जोर क्यों दे रहे हैं ? इसका प्रधान कारण है कि जब आप किसी विषय का अनुशासन के रूप में अध्ययन करते हैं तो विषय का दायरा परिभाषित करते हैं। तब ही उसका अध्ययन कर पाते हैं। जब उसके लिए विशिष्ट पध्दति चुनते हैं तो विश्लेषण के माध्यम से भाषा और अवधारणात्मक औजारों का निर्माण करते हैं। बिना यह किए आप जेण्डर या औरत को परिभाषित नहीं कर सकते।

स्त्री के सामाजिक यथार्थ को रूपायित करने के लिए स्त्री-पुरूष की सही इमेज या अवस्था की सटीक समझ परमावश्यक है। औरत की सही समझ के अभाव में समूचा विवेचन अमूर्त्त हो जाता है, प्रभावहीन हो जाता है ,औरत अमूर्त्त या अदृश्य हो जाती है। औरत की अदृश्य स्थिति के कारण विकृत विश्लेषण जन्म लेता है, और जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं वे अप्रामाणिक और अधूरे होते हैं। यह स्थिति आज भी हमारे साहित्य में मौजूद है।

     साहित्य में वर्णित ज्यादातर लेखन स्त्री के प्रति अमूर्त्त समझ को व्यक्त करता है। इसका प्रधान कारण है जेण्डर की सही सैध्दान्तिकी के ज्ञान का अभाव। असल में जेण्डर तय गतिशील अभ्यासों का प्रतिनिधित्व है। स्त्री के जब राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात की जाती है और उसे समस्या के समाधान के रूप में पेश किया जाता है तो उसके राजनीतिक क्षेत्र में कम प्रतिनिधित्व की बात को उठाया जाता है।ऐसी अवस्था में जेण्डर एक वैध राजनीतिक केटेगरी के रूप में उभरकर सामने आती है।

    यह इस बात का भी संकेत है कि औरतों का सामाजिक प्रतिनिधित्व घट रहा है।समाज में स्त्री का जो स्थान है उसके प्रति सवाल उठ खड़े हुए हैं। औरतों की आर्थिक,सामाजिक और राजनीतिक अवस्था संतोषजनक नहीं है। औरत के चर्चा में आने या बने रहने का अर्थ है कि औरत के मसले अभी सुलझ नहीं पाए हैं। औरत के मसले क्यों उलझते हैं क्योंकि आम लोगों में उसकी वास्तविकता का ज्ञान नहीं होता। औरत के प्रति पूर्वाग्रह काम करते रहते हैं। औरत के प्रति समाज में व्याप्त पूर्वाग्रहों को खत्म करने के लिए औरत की जेण्डर के रूप में पहचान को समग्रता में विश्लेषित किया जाना चाहिए। इस कार्य में अर्थशास्त्र और राजनीति में जेण्डर विमर्श की सही समझ का होना जरूरी है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. वर्ग भेद पर आधारित व्यवस्था हर मौलिक एकीकरण को बांटती है। उसी में उस की लम्बी उम्र का राज छिपा है।

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  2. sapne hum band aankhon se dekhte hain, par hakikat ki jamin barri nirmam hoti hai.kahne ko to stri aadhi aabadi hai, par uske adhikaro ki jab baat aati hai hum use ardhangini kahkar, apna kartavya poora samajh lete hain.aaj samay ki maang hai ki hum use poori gambhirta ke saath lein..mujhe lagta hai ki jagdishwarji ne ek sarthak aur thos pahal ki hai........sadhanyawad

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