गुरुवार, 4 नवंबर 2010

सिर फोड़ने का सलीका

      हिन्दुत्व का स्वप्नलोक बदल रहा है। स्वप्नलोक से यहां तात्पर्य है यूटोपिया से। जो लोग भारत को हिन्दूराष्ट्र बनाना चाहते हैं उनके पास हिन्दू राष्ट्र और हिन्दुत्व की समग्र परिकल्पना है,ऐसा उनका दावा है। वे सिर्फ एक मौका चाहते हैं। उनका दावा है कि वे यदि केन्द्र सरकार सिर्फ अपने बलबूते पर बनाने में सफल हो जाते हैं तो वे हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार कर देंगे। सिर्फ एक मौका मिल जाए।
     हिन्दुत्व के यूटोपिया की सबसे बुनियादी समस्या है भारत का संविधान जो धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद को प्रत्येक स्तर पर सुनिश्चित बनाता है। भारत को यदि वे हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं तो उन्हें साफ तौर पर जनता के बीच संविधान परिवर्तन के प्रस्तावों को अपने चुनावी मैनिफैस्टो में लेकर जाना होगा। उन्हें बताना होगा कि आखिरकार वे भारत को हिन्दू राष्ट्र में रूपान्तरित करने के लिए किस तरह का संविधान देंगे और मौजूदा संविधान की किन बातों को वे नहीं मानते। लेकिन जहां तक हमारा अनुभव है जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी ने ,जो संघ परिवार से जुड़ा राजनीतिक दल है,उसने संविधान में क्या बदलाव जरूरी हैं इन्हें केन्द्र में रखकर कोई बहस नहीं चलायी है उलटे उसने मौजूदा संविधान के प्रति अपनी आस्थाएं व्यक्त करते हुए भाजपा का चुनाव आयोग में पंजीकरण कराया है।
    जैसाकि सभी लोग जानते हैं कि माओवादियों की भारत के संविधान में कोई आस्था नहीं है। वे संविधान को पूरी तरह अस्वीकार करते हैं,इसी तरह और भी कई पृथकतावादी संगठन हैं उत्तरपूर्वी राज्यों और कश्मीर में जो भारत के संविधान और जम्मू-काश्मीर के कानूनों को एकसिरे से अस्वीकार करते हैं। सवाल उठता है कि संघ परिवार ने जब जनसंघ-भाजपा के जरिए राजनीति आरंभ की तो उसने मौजूदा संविधान के सामने नतमस्तक होकर काम करने की प्रतिज्ञा क्यों की ? वे यदि सचमुच में यह मानते हैं कि संविधान उनके हिन्दूराष्ट्र के यूटोपिया के लक्ष्यों की पूर्ति नहीं करता तो उन्हें यह कहने का हक था कि वे हिन्दू राष्ट्र की अवधारणाओं के अनुरूप नया संविधान बनाने के लिए संघर्ष जारी रखेंगे और चुनाव में भाग नहीं लेंगे। लेकिन उन्होंने यह सब नहीं किया। भाजपा और संघपरिवार ने जिस दिन भारत के संविधान को मान लिया उसी दिन हिन्दू राष्ट्र के सपने का बुनियादी तौर पर अंत हो गया था।
    असल में हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र का सपना वोटबैंक राजनीति का प्रौपेगैण्डा अस्त्र है। यह यूटोपिय़ा नहीं है। असल में वे हिन्दुत्व का प्रचार करते हुए बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के दायित्वों से भागना चाहते हैं।यहां तक कि हिन्दू समाज को बदलने के दायित्वों से पलायन कर रहे हैं।  वे हिन्दुत्व-हिन्दुत्व की रट लगाकर आम लोगों का ध्यान उनकी सामाजिक जिम्मेदारियों से हटाना चाहते हैं।  वे इसके जरिए पूंजीवादी शोषण से ध्यान हटाना चाहते हैं। इस अर्थ में वे पूंजीवाद के खिलाफ पैदा हो रहे गुस्से को सामाजिक और सामूहिक तौर पर एकत्रित नहीं होने देते।  
 
    बुनियादी सवाल यह है कि हिन्दुत्व का यूटोपिया अपूर्ण क्यों है ? इसने समग्रता में यूटोपिया की शक्ल अख्तियार क्यों नहीं की ? हिन्दुत्ववादी ताकतों ने राजनीतिक अवसरवाद का सहारा क्यों लिया ? क्या वे लोग हिन्दुत्व के सपने को लेकर आश्वस्त नहीं थे ? उन्होंने हिन्दुत्व के एजेण्डे को क्यों त्याग दिया । ऐसा राजनीतिक कार्यक्रम क्यों बनाया जिसमें सत्ता संघ के हाथ में हो,या उसके निर्देश पर राज्य सरकार और केन्द्र सरकार में संघी लोग काम करें और राजनीतिक आधार को विस्तार दें ?
    हिन्दुत्व के यूटोपिया और राजनीतिक कार्यक्रम के बिना हिन्दुत्व और उनके दल रीढ़विहीन हैं। दिशाहीन हैं। वे अपनी राज्य सरकारों के जरिए आज तक कोई भी हिन्दू कार्यक्रम लागू नहीं कर पाए हैं। मसलन गुजरात की सरकार को ही लें,उसके पास जितने भी कार्यक्रम हैं वे सबके सब पूंजीवादी कार्यक्रम हैं,यह पूंजीवाद कम से कम हिन्दुत्व की विचारधारा से पैदा नहीं हुआ है। गुजरात सरकार की अधिकांश योजनाएं केन्द्र सरकार यानी कांग्रेस पार्टी की पहल पर तैयार की गयी योजनाएं हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दुत्व अभी तक अपना स्वतंत्र राजनीतिक कार्यक्रम नहीं बना पाया है।   
 हिन्दुत्व के पास आर्थिक कार्यक्रम के अभाव का प्रधान कारण है कि उसने सामाजिक  समस्याओं की कभी गंभीरता के साथ हिन्दूवादी परिप्रेक्ष्य में मीमांसा नहीं की है। उसके पास ऐसे समाजविज्ञानियों का अभाव है जो हिन्दुत्व के नजरिए से सामाजिक मीमांसा तैयार करके दें। फलतः हिन्दुत्व बहुत ही संकीर्ण दायरे में राजनीतिक विचरण करता रहा है।
    हिन्दुत्व की अवधारणा अधूरी है। इसमें सामाजिक शोषण से मुक्ति दिलाने की क्षमता नहीं है। इस अधूरेपन के कुछ आंतरिक कारण हैं और कुछ बाह्य भौतिक कारण हैं। हिन्दुत्व के यूटोपिया न बन पाने का दूसरा बड़ा कारण है हिन्दू समाज और समूचे भारतीय समाज की रूढ़ियों के प्रति उसका मोह और अनालोचनात्मक नजरिया। वे अपने देशप्रेम को अतीत से बांधकर रखते हैं। वे इस बात को कभी पसंद नहीं करते कि वे जिस अतीत को स्वर्णकाल मानते हैं,गौरवपूर्ण मानते हैं अथवा जिस अतीत को बुरा मानते हैं उसके बारे में कोई सवाल खड़े किए जाएं। वे अतीत के हिन्दूसमाज और उसकी विचारधारा और नैतिकता-अनैतिकता,श्लील-अश्लील की कल्पित तस्वीर बनाते हैं और उसमें मगन रहते हैं और यही प्रचार करते हैं उन्होंने जो तस्वीर बनायी है वह सही है उसे कोई बदल नहीं सकता,उस तस्वीर को कोई भी उलट-पलटकर देख नहीं सकता।
    हिन्दुत्व को रूढ़िवाद बेहद प्रिय है। वे जानते हैं कि हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना संभव नहीं है। जानते हैं कि उनके पास कारपोरेट जगत की सेवा करने के अलावा और कोई काम नहीं है। उनका कार्यक्रम हिन्दू अर्थशास्त्र पर आधारित नहीं है बल्कि कारपोरेट पूंजीवादी अर्थशास्त्र पर आधारित है।
   हिन्दुत्ववादी मूलतःयथास्थितिवादी हैं। उनके सोचने का ढ़ंग बड़ा विलक्षण है। उनकी आलोचना की पद्धति विलक्षण है। वे किसी भी बात का खंडन कर देते हैं बगैर प्रमाण दिए। वे अपनी स्थापनाओं को बगैर किसी प्रमाण के पेश करते हैं।
       हम हिन्दुत्वपंथी ,इस्लामिक,ईसाईयत वाले तत्ववादी ज्ञानियों से सवाल करना चाहते हैं क्या इंसान को धर्म में लपेटकर पढ़ा जाना सही है? क्या मज़हब का ढ़ोल बजाकर इस दुनिया को समझा जा सकता है ? यदि हां,तो एक सवाल का जबाब दो इंसान को भूख पहले भी लगती थी,अब भी लगती है। ताकत का नशा उसे पहले भी था आज भी है,शेरो-शराब का शौकीन पहले भी था आज भी है। आज ऐसा क्या परिवर्तन आय़ा है जिसके कारण इंसान को हम बदला हुआ पाते हैं ? यहां पर मुझे सआदत हसन मंटो के शब्द याद आ रहे हैं।
    मंटो ने लिखा था, ’’ यह नया जमाना  नए दर्दों और नई टीसों का जमाना है। एक नया दौर पुराने दौर का पेट चीरकर पैदा किया जा रहा है। पुराना दौर मौत के सदमे से रो रहा है,नया दौर ज़िंदगी की खुशी से चिल्ला रहा है।दोनों के गले रूँधे पड़े हैं,दोनों की आँखें नमनाक हैं-इस नमी में अपने कलम डुबोकर लिखने वाले लिख रहे हैं। नया अदब ? ज़वान वही है,सिर्फ लहजा बदल गया है। दरअसल इसी बदले हुए लहजे का नाम नया अदव, तरक्कीपसंद अदव,फहशअदव या मजदूरपरस्त अदव है।’’
मंटो ने सवाल उठाया है ‘‘ दुनिया बहुत वसी है। कोई च्यूँटी मारना बहुत बड़ा पाप समझता है, कोई लाखों इंसान हलाक कर देता है और अपने इस फ़अल को बहादुरी और शुजाअत (वीरता) से तावीर करता है।कोई मज़हब को लानत समझता है,कोई इसी को सबसे बड़ी नैमत-इंसान को किस कसौटी पर परखा जाए ? यूँ तो हर मज़हब के पास एक बटिया मौजूद है जिस पर इंसान कसकर परखे जाते हैं मगर वह बटिया कहाँ है ? सब कौमों ,सब मज़हबों,सब इंसानों की वाहिद कसौटी जिस पर आप मुझे और मैं आपको परख सकता हूँ,वह धर्मकाँटा कहाँ है,जिसके पलड़ों में हिन्दू और मुसलमान,ईसाई और यहूदी,काले और गोरे तुल सकते हैं?’’
   ‘‘ यह कसौटी,यह धर्मकाँटा जहाँ कहीं भी है, नया है न पुराना है।तरक्कीपसंद है न तनज्ज़ुलपसंद । उरियाँ है न मस्तूर (गुप्त) ,फ़हश है न मुतहर् (श्लील)- इंसान और इंसान के सारे फ़अल इसी तराजू में तोले जा सकते हैं। मेरे नजदीक किसी और तराजू का तसव्वुर करना बहुत ही बड़ी हिमाकत है।’’
    मंटो ने यह भी लिखा ‘‘ हर इंसान दूसरे इंसान के पत्थर मारना चाहता है,हर इंसान दूसरे इंसान के अफ़आल (करतूतों) परखने की कोशिश करता है। यह उसकी फि़तरत है जिसे कोई भी हादिसा तब्दील नहीं कर सकता। मैं कहता हूँ अगर आप मेरे पत्थर मारना ही चाहते हैं तो खुदारा ज़रा सलीके से मारिए। मैं उस आदमी से हरगिज-हरगिज अपना सिर फुड़वाने के लिए तैयार नहीं जिसे सिर फोड़ने का सलीका नहीं आता। अगर आपको यह सलीका नहीं आता तो सीखिए-दुनिया में रहकर जहाँ आप नमाज़ें पढ़ना,रोज़े रखना और महफ़िलों में जाना सीखते हैं,वहाँ पत्थर मारने का ढ़ंग भी आपको सीखना चाहिए।’’
 ‘‘ आप खुदा को खुश करने के लिए सौ हीले करते हैं। मैं आपके इस क़दर नज़दीक हूँ ,मुझे करना भी आपका फ़र्ज़ है। मैंने आपसे कुछ ज्यादा तलब तो नहीं किया ? मुझे बड़े शौक़ से गालियाँ दीजिए ।मैं गाली को बुरा नहीं समझता ,इसलिए कि यह कोई ग़ैर फितरी चीज़ नहीं,लेकिन ज़रा सलीके से दीजिए। न आपका मुँह बदमज़ा हो और न मेरे ज़ौक़ को सदमा पहुँचे।’’
    अंत में ,फंडामेंटलिस्ट दोस्तों से कहना चाहते हैं कि वे धार्मिक तत्ववाद का मार्ग त्यागकर साहित्य के मार्ग पर चलें। मंटो के ही शब्दों में ‘‘ अदब दर्जाए हरारत है अपने मुल्क का,अपनी कौम का-अदब अपने मुल्क,अपनी कौम,उसकी सेहत और अलालत की खबर देता रहता है-पुरानी अल्मारी के किसी ख़ाने से हाथ बढ़ाकर कोई गर्द आलूद किताब उठाइए,बीते हुए ज़माने की नब्ज़ आपकी उँगलियों के नीचे धड़कने लगेगी।’’

















3 टिप्‍पणियां:

  1. उन में इतनी हिम्मत नहीं कि जनता के बीच संविधान परिवर्तन के प्रस्तावों को अपने चुनावी मैनिफैस्टो में लेकर जाएँ।
    उन का उद्देश्य भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना है भी नहीं, वे सिर्फ पूंजीवाद और बचे-खुचे सामंतों के वफादार लठैत हैं। उन्हें तो अपने मालिकों के इशारों पर लाठियाँ भाँजते रहना है।

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  2. सुन्दर!
    --

    प्रेम से करना "गजानन-लक्ष्मी" आराधना।
    आज होनी चाहिए "माँ शारदे" की साधना।।
    --
    आप खुशियों से धरा को जगमगाएँ!
    दीप-उत्सव पर बहुत शुभ-कामनाएँ!!

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  3. अरे कहाँ दिनेशराय जी,

    अभी तो संघ वाले सीख रहे हैं, पश्चिम बंगाल और केरल में जिस तरह माकपा कैडर को पार्टी के "लाभ" वाले मलाईदार कामों में ग्राम स्तर पर ठेका दे रखा है… वैसा "नेटवर्क" सीखने में अभी संघियों को समय लगेगा। यहाँ तक कि "बौद्धिक लठैतों" को भी विभिन्न विश्वविद्यालयों और संस्थाओं में तैनात किया हुआ है… :) :)

    लठैत तो केरल के कन्नूर से लेकर 24 परगना तक भी बहुतेरे हैं जो आये दिन कभी तृणमूल, तो कभी भाजपा कार्यकर्ताओं के सिरों पर लाठियाँ भांजते रहते हैं…

    ये बात और है कि इन्हीं के पाले-पोसे पहले भस्मासुर (माओवादी) ने इन्हें लालगढ़ और सिंगूर में धोकर रखा हुआ है…।

    इनका दूसरा पालतू भस्मासुर (इस्लामिक उग्रवाद) जल्दी ही इनके माथे पर वार करने वाला है, उधर ध्यान दीजिये तो ज्यादा बेहतर होगा…

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