रविवार, 31 जुलाई 2016

प्रेमचंद और ईश्वर

        हमारे कई फेसबुक मित्रों ने कहा है कि प्रेमचंद तो ईश्वर को मानते थे। हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं कि वे ईश्वर या ऐसे किसी तत्व की उपस्थिति मानने को तैयार नहीं थे जिसे देखा न हो।यह भी सवाल उठा है प्रेमचंद ने इस्लाम धर्म की आलोचना कहां की है ॽ हम इन दोनों सवालों के जवाब खोजने की कोशिश करेंगे। हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव का विस्तार से जिक्र करने के बाद प्रेमचंद ने ´मनुष्यता का अकाल´(जमाना, फरवरी 1924) निबंध में लिखा , ´इतिहास में उत्तराधिकार में मिली हुई अदावतें मुश्किल से मरती हैं,लेकिन मरती हैं,अमर नहीं होतीं।´

उपरोक्त निष्कर्ष निकालने के पहले प्रेमचंद ने ´मनुष्यता का अकाल´ में ही लिखा, ´हमको यह मानने में संकोच नहीं है कि इन दोनों सम्प्रदायों में कशमकश और सन्देह की जड़ें इतिहास में हैं। मुसलमान विजेता थे,हिन्दू विजित।मुसलमानों की तरफ से हिन्दुओं पर अकसर ज्यादतियाँ हुईं और यद्यपि हिन्दुओं ने मौका हाथ आ जाने पर उनका जवाब देने में कोई कसर नहीं रखी,लेकिन कुल मिलाकर यह कहना ही होगा कि मुसलमान बादशाहों ने सख्त से सख्त जुल्म किये। हम यह भी मानते हैं कि मौजूदा हालात में अज़ान और कुर्बानी के मौक़ों पर मुसलमानों की तरफ से ज्यादतियाँ होती हैं और दंगों में भी अक्सर मुसलमानों ही का पलड़ा भारी रहता है।ज्यादातर मुसलमान अब भी ´मेरे दादा सुल्तान थे´नारे लगाता है और हिन्दुओं पर हावी रहने की कोशिश करता रहता है।´

इसी निबंध में पहलीबार धार्मिक प्रतिस्पर्धा को निशाना बनाते हुए उन्होंने तीखी आलोचना लिखी।उस तरह की आलोचना सिर्फ ऐसा ही लेखक लिख सकता है जिसकी ईश्वर की सत्ता में आस्था न हो,उन्होंने लिखा ,´ दुनियावी मामलों में दबने से आबरू में बट्टा लगता है,दीन-धर्म के मामले में दबने से नहीं।´ आगे लिखा ´यह किसी मज़हब के लिए शान की बात नहीं है कि वह दूसरों की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाये।गौकशी के मामले में हिन्दुओं ने शुरू से अब तक एक अन्यापूर्ण ढंग अख़्तियार किया है। हमको अधिकार है कि जिस जानवर को चाहें पवित्र समझें लेकिन यह उम्मीद रखना कि दूसरे धर्म को माननेवाले भी उसे वैसा ही पवित्र समझें,ख़ामख़ाह दूसरों से सर टकराना है।गाय सारी दुनिया में खायी जाती है,इसके लिए क्या आप सारी दुनिया को गर्दन मार देने क़ाबिल समझेंगेॽ यह किसी खूँ-खार मज़हब के लिए भी शान की बात नहीं हो सकती कि वह सारी दुनिया से दुश्मनी करना सिखाये।´

आगे लिखा ´ हिन्दुओं को अभी यह जानना बाक़ी है कि इन्सान किसी हैवान से कहीं ज्यादा पवित्र प्राणी है,चाहे वह गोपाल की गाय हो या ईसा का गधा,तो उन्होंने अभी सभ्यता की वर्णमाला भी नहीं समझी।हिन्दुस्तान जैसे कृषि-प्रधान देश के लिए गाय का होना एक वरदान है,मगर आर्थिक दृष्टि के अलावा उसका और कोई महत्व नहीं है।लेकिन गोरक्षा का सारे हो-हल्ले के बावजूद हिन्दुओं ने गोरक्षा का ऐसा सामूहिक प्रयत्न नहीं किया जिससे उनके दावे का व्यावहारिक प्रमाण मिल सकता।गौरक्षिणी सभाएँ कायम करके धार्मिक झगड़े पैदा करना गो रक्षा नहीं है।´

प्रेमचंद का मानना है ´वर्तमान समय में धर्म विश्वासों के संस्कार का साधन नहीं,राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि का साधन बना लिया गया है।उसकी हैसियत पागलपन की-सी हो गयी है जिसका वसूल है कि सब कुछ अपने लिए और दूसरों के लिए कुछ नहीं।जिस दिन यह आपस की होड़ और दूसरे से आगे बढ़ जाने का ख़याल धर्म से दूर हो जायेगा,उसदिन धर्म-परिवर्तन पर किसी के कान नहीं खड़े होंगे।´

प्रेमचंद ने हिन्दू और मुसलमानों को धर्म के नाम पर भड़काने वालों और धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों की तीखी आलोचना की है ।´मिर्जापुर कांफ्रेस में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव´(अप्रैल1931) में लिखा ´जब तक अपना हिन्दू या मुसलमान होना न भूल जायेंगे ,जब तक हम अन्य धर्मावलम्बियों के साथ उतना ही प्रेम न करेंगे जितना निज धर्मवालों के साथ करते हैं,सारांश यह कि जब तक हम पंथजनित संकीर्णता से मुक्त न हो जायेंगे,इस बेड़ी को तोड़कर फेंक न देंगे,देश का उद्धार होना असंभव है।´इसमें ही वे आगे कहते हैं ´धर्म को राजनीति से गड़बड़ न कीजिए´। एक अन्य निबंध ´गोलमेज़ परिषद में गोलमाल´ (अक्टूबर1931) में लिखा ´भारत का उद्धार अब इसी में है कि हम राष्ट्र-धर्म के उपासक बनें,विशेष अधिकारों के लिए न लड़कर,समान अधिकारों के लिए लड़ें।हिन्दू या मुसलमान,अछूत या ईसाई बनकर नहीं,भारतीय बनकर संयुक्त उन्नति की ओर अग्रसर हों,अन्यथा हिन्दू मुसलमान,अछूत और सिक्ख सब रसातल को चले जायेंगे।´

यह भी लिखा ´धर्म का सम्बन्ध मनुष्य से और ईश्वर से है।उसके बीच में देश,जाति और राष्ट्र किसी को भी दखल देने का अधिकार नहीं।हम इस विषय में स्वाधीन हैं।´

शिवरानी देवी से बातचीत करते हुए प्रेमचंद ने ईश्वर के बारे में कहा ´ईश्वर पर विश्वास नहीं होता कि अगर वह सचमुच ईश्वर है तो क्या दुखियों को दुख देने में ही उसे मजा आता है ॽ फिर भी लोग उसे दयालु कहते हैं.वह सबका पिता है.फला-फूला बाग उजाड़कर वह देखता है और खुश होता है.दया तो उसे आती नहीं .लोगों को रोते देखकर शायद से खुशी ही होती है.जो अपने आश्रितों के दुख पर दुखी न हो.वह कैसा ईश्वर है।´

आगे वकौल शिवरानी देवी प्रेमचन्द पूछते हैं ´तब कैसे ईश्वर हमसे अन्याय कराता है.जो अच्छा समझे वही हमसे कराये,हम जिससे दुखी न हो सकें.कुछ नहीं.यह सब धोखे में डालने वाली भावनायें हैं,बस अपने को धोखे में डालने के लिए यह सब प्रपंच रचे गए हैं.और नहीं तो हम प्रत्यक्षतःकोई बुरा काम नहीं करते तो लोग कहते हैं .अगले जन्म में बुरा काम किया होगा,उसी का फल है.और मैं कहता हूँ,यह सब गोरखधंधा है।´

प्रेमचंद मानते थे ´भगवान मन का भूत है,जो इन्सान को कमजोर कर देता है.ईश्वर का आधार अन्धविश्वास है और इस अंधविश्वास में पड़ने से तो रही सही अक्ल भी मारी जाती है।´

प्रेमचंद का जैनेन्द्र के साथ लगातार पत्र-व्यवहार होता था,दोनों गहरे मित्र थे।प्रेमचन्द ने 9दिसम्बर 1935 को जैनेन्द्र कुमार को लिखा ,´ईश्वर पर विश्वास नहीं आता,कैसे श्रद्धा होती.तुम आस्तिकता की ओर जा रहे हो,जा ही नहीं रहे हो.बल्कि भगत बन गये हो मैं संदेह से पक्का नास्तिक होता जा रहा हूँ।´ और एक दिन जैनेन्द्र कुमार को दो-टूक उत्तर दे दिया, ´जब तक संसार में यह व्यवस्था है,मुझे ईश्वर पर विश्वास नहीं आने काःअगर मेरे झूठ बोलने से किसी की जान बचती है तो मुझे कोई संकोच नहीं होगा.मैं प्रत्येक कार्य को उसके मूल कारण से परखता हूँ.जिससे दूसरों का भला न हो.जिससे दूसरों का नुकसान हो वही झूठ है।´

मृत्यु से कुछ दिन पहले रोग-शैय्या पर पड़े हुए प्रेमचंद ने जैनेन्द्र कुमार से कहा ´जैनेन्द्रःलोग इस समय ईश्वर को याद किया करते हैं.मुझे भी याद दिलाई जाती है.पर अभी तक मुझे ईश्वर को कष्ट देने की जरूरत नहीं मालूम हुई।´ , ´जैनेन्द्र ! मैं कहचुका हूं.मैं परमात्मा तक नहीं पहुँच सकता.मैं उतना उत्साह नहीं कर सकता.कैसे करूँ जब देखता हूँ,बच्चा बिलख रहा है,रोगी तड़प रहा है.यहाँ भूख है,क्लेश है,ताप है,वह ताप इस दुनिया में कम नहीं है.तब उस दुनिया में मुझे ईश्वर का साम्राज्य नहीं दीखे तो मेरा क्या कसूर हैॽमुश्किल तो है कि ईश्वर को मानकर उसको दयालु भी मानना होगा.मुझे वह दयालुता नहीं दीखती ,तब उस दया सागर में विश्वास कैसे हो.´

ईश्वरतंत्र पर प्रहार करते हुए प्रेमचंद ने लिखा ´ईश्वर के नाम पर उनके उपासकों ने भूमण्डल पर जो अनर्थ किये हैं,और कर रहे हैं,उनके देखते इस विद्रोह को बहुत पहले उठ खड़ा होना चाहिए था.आदमियों के रहने के लिये शहरों में स्थान नहीं है.मगर ईश्वर और उनके मित्रों और कर्मचारियों के लिए बड़े-बड़े मंदिर चाहिए.आदमी भूखों मर रहे है मगर ईश्वर अच्छे से अच्छा खायेगा,अच्छे से अच्छा पहनेगा और खूब विहार करेगा।´

´कर्मभूमि´में गजनवी के मुँह से प्रेमचंद कहलवाते हैं ´मज़हब का दौर खत्म हो रहा है बल्कि यों कहो कि खत्म हो गया है सिर्फ हिन्दुस्तान में इसकी कुछ जान बाकी है.यह मुआशयात का दौर है.अब कौम में दार ब नदार,मालिक और मजदूर अपनी-अपनी जमातें बनायेंगे।´

शिवरानी देवी से बातचीत के दौरान प्रेमचंद ने नास्तिकता के सम्बन्ध में साफ कहा नास्तिकता का तब तक प्रचार संभव नहीं जब तक जनता सचेत नहीं हो जाती.लिखा ´और फिर जो जनता सदियों से भगवान पर विश्वास किये चली आ रही है,वह यकायक अपने विचार बदल सकती है ॽ अगर एकाएक जनता को कोई भगवान से अलग करना चाहे तो संभव नहीं है।´

आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने ´इस्लाम का विष वृक्ष´किताब लिखी,इस किताब पर प्रेमचंद ने विरोध करते हुए जैनेन्द्र कुमार को लिखा, ´और इन को क्या हो गया है कि ´इस्लाम का विष-वृक्ष´ही लिख डाला.इसकी एक आलोचना तुम लिखो,वह पुस्तक मेरे पास भेजो.इस कम्युनल प्रोपेगेण्डा का जोरों से मुकाबला करना होगा।´

प्रेमचन्द का किसी भी परम्परागत धर्म में विश्वास नहीं था,इस सम्बन्ध में उर्दू के प्रसिद्ध विद्वान मुहम्मद आकिल साहब ने लिखा है ´प्रेमचन्दजी ने मुझसे कहा कि मुझे रस्मी मज़हब पर कोई एतबार (विश्वास)नहीं है,पूजा-पाठ और मन्दिरों में जाने का मुझे शौक नहीं.शुरू से मेरी तबियत का यही रंग है. बाज़ लोगों की तबियत मज़हबी होती है.बाज़ लोगों की ला मज़हबी.मैं मज़हबी तबियत रखने वालों को बुरा नहीं कहता,लेकिन मेरी तबियत रस्मी मजहब की पाबन्दी को बिल्कुल गवारा नहीं करती।´

शिवरानी देवी से मज़हबी सवाल के जवाब में प्रेमचंद ने कहा ´अवश्य मेरे लिए कोई मज़हब नहीं है.मेरा कोई खास मज़हब नहीं है।´ इसका कारण क्या है ॽ इसका कारण हैः´धर्म से ज्यादा द्वेष पैदा करने वाली वस्तु संसार में नहीं है.´ , ´आज दौलत जिस तरह आदमियों का खून बहा रही है,उसी तरह उससे ज्यादा बेदर्दी धर्म ने आदमियों का खून बहाकर की.दौलत कम से कम इतनी निर्दयी नहीं होती,इतनी कठोर नहीं होती,दौलत वही कर रही है जिसकी उससे आशा थी,लेकिन धर्म तो प्रेम का संदेश लेकर आता है और काटता है आदमियों के गले.वह मनुष्य के बीच ऐसी दीवार खड़ी कर देता है,जिसे पार नहीं किया जा सकता।’



शिवरानी जी ने प्रेमचंद से सवाल किया आप मुसलमानों की ओर हैं या हिन्दुओं की ओर ॽजवाब दियाः´मैं एक इन्सान हूँ और जो इन्सानियत रखता हो,इन्सान का काम करता हो,मैं वही हूँ और मैं उन्हीं लोगों को चाहता हूँ.मेरे दोस्त अगर हिन्दू हैं तो मेरे कम दोस्त मुसलमान भी नहीं हैं और इन दोनों में मेरे नजदीक कोई खास फ़र्क नहीं है.मेरे लिए दोनों बराबर हैं।´

साम्प्रदायिकता अंधविश्वास और प्रेमचंद

प्रेमचंद की महानता इस बात में है कि वे साम्प्रदायिकता के जहर को अच्छी तरह पहचानते थे। उन्होंने उस धारणा का खण्डन किया जिसके तहत अच्छी और बुरी साम्प्रदायिकता का वर्गीकरण करके अनेक लोग काम चलाते हैं। दुर्भाग्य यह है भारत में अनेक लोगों को साम्प्रदायिक दल में अपने हित,समाज के हित भी सुरक्षित नजर आने लगे हैं। इस तरह के लोगों को ध्यान में रखकर प्रेमचंद ने लिखा-

"इंडियन सोशल रिफ़ार्मर अंग्रेजी का समाज सुधारक पत्र है और अपने विचारों की उदारता के लिए मशहूर है। डाक्टर आलम के ऐंटी - कम्युनल लीग की आलोचना करते हुए, उसने कहा है कि साम्प्रदायिकता अच्छी भी है बुरी भी । बुरी साम्प्रदायिकता को उखाड़ फेंकना चाहिए।मगर अच्छी साम्प्रदायिकता वह है ,जो अपने क्षेत्र में बड़ा उपयोगी काम कर सकती है,उनकी क्यों अवहेलना की जाय। अगर साम्प्रदायिकता अच्छी हो सकती है,तो पराधीनता भी अच्छी हो सकती है,मक्कारी भी अच्छी हो सकती है,झूठ भी अच्छा हो सकता है,क्योंकि पराधीनता में जिम्मेदारी से बचत होती है,मक्कारी से अपना उल्लू सीधा किया जाता है और झूठ से दुनिया को ठगा जाता है। हम तो साम्प्रदायिकता को समाज का कोढ़ समझते हैं , जो हर एक संस्था में दलबन्दी कराती है और अपना छोटा -सा दायरा बना सभी को उससे बाहर निकाल देती है।"

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प्रेमचंद ने भेड़चाल पर लिखा था- " हममें मस्तिष्क से काम लेने की मानों शक्ति ही नहीं रही। दिमाग को तकलीफ नहीं देना चाहते । भेड़ों की तरह एक दूसरे के पीछे दौड़े चले जाते हैं,कुएँ में गिरें या खन्दक में,इसका गम नहीं। जिस समाज में विचार मंदता का ऐसा प्रकोप हो,उसको सँभलते बहुत दिन लगेंगे। "

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"देश में जब ऐसी आर्थिक दशा फैली हुई है कि करोड़ों मनुष्यों को एक वक्त सूखा चना भी मयस्सर नहीं,दस हजार का घी और सुगन्ध जला डालना न धर्म है , न न्याय है।हम तो कहेंगे ,यह सामाजिक अपराध है। "

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प्रेमचंद -" ग्रहण स्नान और सोमवती स्नान और लाखों तरह के स्नानों की बला हिन्दुस्तान के सिर से कभी टलेगी भी या नहीं,समझ में नहीं आता।आज भी संसार में ऐसे अन्धविश्वास की गुंजाइश है तो भारत में । अब भी करोड़ों आदमी यही समझते हैं कि सूरज भगवान और चन्द्र भगवान पर संकट आता है और उस संकट पर गंगा स्नान करना प्रत्येक प्राणी का धर्म है। कितने अच्छे खासे पढ़े -लिखे लोग भी इतनी आस्था में गंगा में डुबकियाँ लगाते हैं,मानो यही स्वर्ग द्वार हो। लाखों आदमी अपनी गाढ़े पसीने की कमायी खर्च करके ,धक्के खाकर, पशुओं की भाँति रेल में लादे जाकर,रेले में जानें गँवाकर,नदी में डूबकर स्नान करते हैं,केवल अन्धविश्वास में पड़कर।"

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प्रेमचंद और भाषा समस्या

एक है मीडिया की भाषा और दूसरी जनता की भाषा,मीडिया की भाषा और जनता की भाषा के संप्रेषण को एकमेक करने से बचना चाहिए।

प्रेमचंद ने भाषा के प्रसंग में एक बहुत ही रोचक उपमा देकर भाषा को समझाने की कोशिश की है, उन्होंने लिखा है ´यदि कोई बंगाली तोता पालता है तो उसकी राष्ट्रभाषा बँगला होती है।उसी तोते की सन्तान किसी हिन्दी बोलनेवाले के यहाँ पलकर हिन्दी को ही अपनी मादरी-जबान बना लेता है।बाज़ तोते तो अपनी असली भाषा यहाँ तक भूल जाते हैं कि ´´ टें-टें´´ भी कभी नहीं कहते।ठीक इसी प्रकार कुछ नये रंग के भारतीय हिन्दी इतनी भूल जाते हैं कि अपने माँ-बाप को भी वे अँग्रेजी में खत लिखा करते हैं। विलायत से लौटकर ´´तुम´´को ´´टुम´´कहना मामूली बात है।हम भारतीय भाषा के विचार में भी अंग्रेजों के इतने दास हो गए हैं कि अन्य अति धनी तथा सुन्दर भाषाओं का भी हमें कभी ध्यान नहीं आता।´

प्रेमचन्द ने ´´शान्ति तथा व्यवस्था´´की भाषा के प्रसंग में अंग्रेजी मीडिया के अखबारों पर जो बात कही है वह आज के बहुत सारे अंग्रेजी मीडिया पर शत-प्रतिशत लागू होती है।प्रेमचंद ने लिखा है ´विलायती समाचार-पत्र डेली टेलीग्राफ या डेली मिरर या डेली न्यूज (तीनों ही लन्दन के हैं तथा अनुदापदल के प्रमुखपत्र हैं)जो अंग्रेजी में ही छपते हैं,पर इंग्लैंड की राजनीति के अधिकांश सूत्र प्रायःइन्हीं के हाथ में हैं और इनकी भाषा प्रायःसबसे अधिक कटु,दुष्ट,जहरीली और निंद्य होती है।´ अंग्रेजी मीडिया की भाषा को जिस रूप में यहां विश्लेषित किया गया है वह बात आज भी अनेक मीडिया के संदर्भ में अक्षरशःसच है।भारत में टाइम्स नाउ टीवी चैनल इसका आदर्श नमूना है।

उत्तर-आधुनिक विमर्श की शुरूआत संस्कृति के क्षेत्र से हुई। यही वजह है इसकी शैतानियों का जन्म भी यहीं हुआ। आज भी विवाद का क्षेत्र यही है। प्रश्न उठता है संस्कृति के क्षेत्र में ही यह उत्पात शुरू क्यों हुआ?असल में संस्कृति का क्षेत्र आम जीवन की हलचलों का क्षेत्र है और साम्राज्यवादी विस्तार की अनन्त संभावनाओं से भरा है। पूंजी,मुनाफा, और प्रभुत्व के विस्तार की लड़ाईयां इसी क्षेत्र में लडी जा रही हैं।भाषा व्यक्तिगत तथा ऐतिहासिक स्मरण की वस्तु है। यह न केवल वर्षों के स्थायी आत्म-अनुभव को संजोने में सक्षम बनाती है बल्कि भविष्य में अपने आपको अवस्थित करने में, ऐतिहासिक स्मरण का उपयोग करने में सहायता करती है।भाषा हमें भविष्य की ओर उन्मुख रहते हुए अतीत में जाने में सक्षम बनाती है। अतीत के अनुभव लाभ-हानि, जय-पराजय, खुशी-गम, वर्तमान की परिस्थिति के बारे में कुछ कह सकते हैं; वे प्रेरणा, सबक तथा वर्तमान के लिए उम्मीद की किरण दे सकते हैं। भविष्य में पहुंचने के क्रम में हम अतीत में वापस आ सकते हैं, और ऐसा करने में भाषा हमारी मदद करती है।

भाषा हमें उन अर्थों के निर्माण के लिए संसाधन प्रदान करती है जो भविष्य की ओर अग्रसर होते हैं। ये उन संभावनाओं की ओर इशारा करते हैं जो वर्तमान में हमारे अनुभव से परे होती है और कई संसाधन जो भाषा हमें उपलब्ध कराती है, अतीत के उन अर्थों से व्युत्पन्न होते हैं जो हमारे लिए समाप्त हुए नहीं रहते, बल्कि वे हमारी भाषा में, हमारी संस्कृति में, हमारे अनुभव में जीवित रहते हैं।

भारत में अधिकांश प्रतिष्ठित समाजविज्ञानी बुद्धिजीवी अपनी भाषा में नहीं लिखते,यह किस बात का सबूत है ?एक जमाने में मध्यवर्ग बंगाली मातृभाषा में बोलना-लिखना गौरव की बात समझता था,महान वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु और सत्येन्द्र बसु जैसे लोग बंगला में विज्ञान की नई खोजों पर लिखते थे, लेकिन इन दिनों अनेक बड़े बंगाली बुद्धिजीवी हैं जो बंगला में नहीं लिखते, यह हम सबके लिए चिन्ता की बात है।

एक अन्य समस्या है वह है संचार क्रांति की मूलभाषा अंग्रेजी है । अंग्रेजी कम्प्यूटर की मूलभाषा है, इसमें जनभाषाओं की देर से शुरूआत हुई है,इसका कु-फल है कि कम्प्यूटर में जनभाषाएं हैं लेकिन भारतवासी उनका न्यूनतम इस्तेमाल करते हैं।सिर्फ किताब-पत्र-पत्रिका प्रकाशन में जनभाषाओं की मदद लेते हैं।बाकी सब काम अंग्रेजी में कर रहे हैं।यह स्थिति बदलनी चाहिए। प्रतिष्ठित लेखक-प्रोफेसर-पत्रकार-एम.ए,बी.ए. लोग अभी तक इंटरनेट पर यूनीकोड हिन्दी या भारतीय भाषा के फॉण्ट में नहीं लिखते, यह स्थिति जितनी जल्दी बदले उतना ही अच्छा है। कहीं यह मातृभाषा की विदाई की सूचना तो नहीं है ?





भारत को प्रेमचंद के नजरिए से देखो-


"हमारे नबी का हुक्म है कि शादी-ब्याह में अमीर-गरीब का विचार न होना चाहिए, पर उनके हुक्म को कौन मानता है नाम के मुसलमान, नाम के हिन्दू रह गए हैं। न कहीं सच्चा मुसलमान नजर आता है, न सच्चा हिन्दू।"

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"हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जिस तत्परता से फीस वसूल की जाती है, शायद मालगुजारी भी उतनी सख्ती से नहीं वसूल की जाती। महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है। उस दिन फीस का दाखिला होना अनिवार्य है। या तो फीस दीजिए, या नाम कटवाइए, या जब तक फीस न दाखिल हो, रोज कुछ जुर्माना दीजिए। कहीं-कहीं ऐसा भी नियम है कि उसी दिन फीस दुगुनी कर दी जाती है, और किसी दूसरी तारीख को दुगुनी फीस न दी तो नाम कट जाता है। काशी के क्वीन्स कॉलेज में यही नियम था। सातवीं तारीख को फीस न दो, तो इक्कीसवीं तारीख को दुगुनी फीस देनी पड़ती थी, या नाम कट जाता था। ऐसे कठोर नियमों का उद्देश्य इसके सिवा और क्या हो सकता था, कि गरीबों के लड़के स्कूल छोड़कर भाग जाएं- वही हृदयहीन दफ्तरी शासन, जो अन्य विभागों में है, हमारे शिक्षालयों में भी है। वह किसी के साथ रियायत नहीं करता। चाहे जहां से लाओ, कर्ज लो, गहने गिरवी रखो, लोटा-थाली बेचो, चोरी करो, मगर फीस जरूर दो, नहीं दूनी फीस देनी पड़ेगी, या नाम कट जाएगा। जमीन और जायदाद के कर वसूल करने में भी कुछ रियायत की जाती है। हमारे शिक्षालयों में नर्मी को घुसने ही नहीं दिया जाता। वहां स्थायी रूप से मार्शल-लॉ का व्यवहार होता है। कचहरी में पैसे का राज है, हमारे स्कूलों में भी पैसे का राज है, उससे कहीं कठोर, कहीं निर्दय। देर में आइए तो जुर्माना न आइए तो जुर्माना सबक न याद हो तो जुर्माना किताबें न खरीद सकिए तो जुर्माना कोई अपराध हो जाए तो जुर्माना शिक्षालय क्या है, जुर्मानालय है। यही हमारी पश्चिमी शिक्षा का आदर्श है, जिसकी तारीफों के पुल बांधे जाते हैं। यदि ऐसे शिक्षालयों से पैसे पर जान देने वाले, पैसे के लिए गरीबों का गला काटने वाले, पैसे के लिए अपनी आत्मा बेच देने वाले छात्र निकलते हैं, तो आश्चर्य क्या है-"(कर्मभूमि)

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"हमारी स्वाधीनता लौकिक और इसलिए मिथ्या है। आपकी स्वाधीनता मानसिक और इसलिए सत्य है। असली स्वाधीनता वही है, जो विचार के प्रवाह में बाधक न हो।"(रंगभूमि)

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"खेती सबसे उत्तम है, बान उससे मद्धिम है; बस, इतना ही फरक है। बान को पाप क्यों कहते हैं, और क्यों पापी बनते हो? हाँ सेवा निरघिन है, और चाहो तो उसे पाप कहो। अब तक तो तुम्हारे ऊपर भगवान् की दया है, अपना-अपना काम करते हो; मगर ऐसे बुरे दिन आ रहे हैं, जब तुम्हें सेवा और टहल करके पेट पालना पड़ेगा, जब तुम अपने नौकर नहीं, पराए के नौकर हो जाओगे, तब तुममें नीतिधरम का निशान भी न रहेगा।" (रंगभूमि)

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"जिस देश में भीख माँगना लज्जा की बात न हो, यहाँ तक कि सर्वश्रेष्ठ जातियाँ भी जिसे अपनी जीवन-वृत्ति बना लें, जहाँ महात्माओं का एकमात्र यही आधार हो, उसके उद्धार में अभी शताब्दियों की देर है।"

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निंदा, क्रोध और घृणा ये सभी दुर्गुण हैं, लेकिन मानव जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकल दीजिए, तो संसार नरक हो जायेगा। यह निंदा का ही भय है, जो दुराचारियों पर अंकुश का काम करता है। यह क्रोध ही है, जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है। निंदा का भय न हो, क्रोध का आतंक न हो, घृणा की धाक न हो तो जीवन विश्रृंखल हो जाय और समाज नष्ट हो जाय। इनका जब हम दुरुपयोग करते हैं, तभी ये दुर्गुण हो जाते हैं, लेकिन दुरुपयोग तो अगर दया, करुणा, प्रशंसा और भक्ति का भी किया जाय, तो वह दुर्गुण हो जायेंगे। अंधी दया अपने पात्र को पुरुषार्थ-हीन बना देती है, अंधी करुणा कायर, अंधी प्रशंसा घमंडी और अंधी भक्ति धूर्त। प्रकृति जो कुछ करती है, जीवन की रक्षा ही के लिए करती है। आत्म-रक्षा प्राणी का सबसे बड़ा धर्म है और हमारी सभी भावनाएँ और मनोवृत्तियाँ इसी उद्देश्य की पूर्ति करती हैं। कौन नहीं जानता कि वही विष, जो प्राणों का नाश कर सकता है, प्राणों का संकट भी दूर कर सकता है। अवसर और अवस्था का भेद है। मनुष्य को गंदगी से, दुर्गन्ध से, जघन्य वस्तुओं से क्यों स्वाभाविक घृणा होती है? केवल इसलिए कि गंदगी और दुर्गन्ध से बचे रहना उसकी आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक है। जिन प्राणियों में घृणा का भाव विकसित नहीं हुआ, उनकी रक्षा के लिए प्रकृति ने उनमें दबकने, दम साथ लेने या छिप जाने की शक्ति डाल दी है। मनुष्य विकास-क्षेत्र में उन्नति करते-करते इस पद को पहुँच गया है कि उसे हानिकर वस्तुओं से आप ही आप घृणा हो जाती है। घृणा का ही उग्र रूप भय है और परिष्कृत रूप विवेक। ये तीनों एक ही वस्तु के नाम हैं, उनमें केवल मात्रा का अंतर है।

तो घृणा स्वाभाविक मनोवृति है और प्रकृति द्वारा आत्म-रक्षा के लिए सिरजी गयी है। या यों कहो कि वह आत्म-रक्षा का ही एक रूप है। अगर हम उससे वंचित हो जाएँ, तो हमारा अस्तित्व बहुत दिन न रहे। जिस वस्तु का जीवन में इतना मूल्य है, उसे शिथिल होने देना, अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारना है। हममें अगर भय न हो तो साहस का उदय कहाँ से हो। बल्कि जिस तरह घृणा का उग्र रूप भय है, उसी तरह भय का प्रचंड रूप ही साहस है। जरूरत केवल इस बात की है कि घृणा का परित्याग करके उसे विवेक बना दें। इसका अर्थ यही है कि हम व्यक्तियों से घृणा न करके उनके बुरे आचरण से घृणा करें। धूर्त से हमें क्यों घृणा होती है? इसलिए कि उसमें धूर्तता है। अगर आज वह धूर्तता का परित्याग कर दे, तो हमारी घृणा भी जाती रहेगी। एक शराबी के मुँह से शराब की दुर्गन्ध आने के कारण हमें उससे घृणा होती है, लेकिन थोड़ी देर के बाद जब उसका नशा उतर जाता है और उसके मुँह से दुर्गन्ध आना बंद हो जाती है, तो हमारी घृणा भी गायब हो जाती है। एक पाखंडी पुजारी को सरल ग्रामीणों को ठगते देखकर हमें उससे घृणा होती है, लेकिन कल उसी पुजारी को हम ग्रामीणों की सेवा करते देखें, तो हमें उससे भक्ति होगी। घृणा का उद्देश्य ही यह है कि उससे बुराइयों का परिष्कार हो। पाखंड, धूर्तता, अन्याय, बलात्कार और ऐसी ही अन्य दुष्प्रवृत्तियों के प्रति हमारे अंदर जितनी ही प्रचंड घृणा हो उतनी ही कल्याणकारी होगी। घृणा के शिथिल होने से ही हम बहुधा स्वयं उन्हीं बुराइयों में पड़ जाते हैं और स्वयं वैसा ही घृणित व्यवहार करने लगते हैं। जिसमें प्रचंड घृणा है, वह जान पर खेलकर भी उनसे अपनी रक्षा करेगा और तभी उनकी जड़ खोदकर फेंक देने में वह अपने प्राणों की बाजी लगा देगा। महात्मा गाँधी इसलिए अछूतपन को मिटाने के लिए अपने जीवन का बलिदान कर रहे हैं कि उन्हें अछूतपन से प्रचण्ड घृणा है।

जीवन में जब घृणा का इतना महत्व है, तो साहित्य कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता है, जो जीवन का ही प्रतिबिंब है? मानव-हृदय आदि से ही सु और कु का रंगस्थल रहा है और साहित्य की सृष्टि ही इसलिए हुई कि संसार में जो सु या सुंदर है और इसलिए कल्याणकर है, उसके प्रति मनुष्य में प्रेम उत्पन्न हो और कु या असुंदर और इसलिए असत्य वस्तुओं से घृणा। साहित्य और कला का यही मुख्य उद्देश्य है। कु और सु का संग्राम ही साहित्य का इतिहास है। प्राचीन साहित्य धर्म और ईश्वर द्रोहियों के प्रति घृणा और उनके अनुयायियों के प्रति श्रद्धा और भक्ति के भावों की सृष्टि करता रहा।

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राष्ट्र का सेवक -प्रेमचंद

राष्ट्र के सेवक ने कहा - देश की मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है नीचों के साथ भाईचारे का सलूक, पतितों के साथ बराबरी का बर्ताव। दुनिया में सभी भाई हैं, कोई नीच नहीं, कोई ऊँच नहीं।

दुनिया ने जय-जयकार की - कितनी विशाल दृष्टि है, कितना भावुक हृदय!

उसकी सुंदर लड़की इंदिरा ने सुना और चिंता के सागर में डूब गई।

राष्ट्र के सेवक ने नीची जाति के नौजवान को गले लगाया।

दुनिया ने कहा - यह फरिश्ता है, पैगंबर है, राष्ट्र की नैया का खेवैया है।

इंदिरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा।

राष्ट्र का सेवक नीची जाति के नौजवान को मंदिर में ले गया, देवता के दर्शन कराए और कहा - हमारा देवता गरीबी में है, जिल्लत में है, पस्ती में है।

दुनिया ने कहा - कैसे शुद्ध अंतःकरण का आदमी है! कैसा ज्ञानी!

इंदिरा ने देखा और मुसकराई।

इंदिरा राष्ट्र के सेवक के पास जाकर बोली - श्रद्धेय पिताजी, मैं मोहन से ब्याह करना चाहती हूँ।

राष्ट्र के सेवक ने प्यार की नजरों से देखकर पूछा - मोहन कौन है?

इंदिरा ने उत्साह भरे स्वर में कहा - मोहन वही नौजवान है, जिसे आपने गले लगाया, जिसे आप मंदिर में ले गए, जो सच्चा, बहादुर और नेक है।

राष्ट्र के सेवक ने प्रलय की आँखों से उसकी ओर देखा और मुँह फेर लिया।

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प्रेमचंद का मानना है "ईश्वर की उपासना का केवल एक मार्ग है और वह है मन,वचन और कर्म की शुद्धता, अगर ईश्वर इस शुद्धता की प्राप्ति में सहायक है,तो शौक से उसका ध्यान कीजिए,लेकिन उसके नाम पर हरेक धर्म में जो स्वाँग हो रहा है,उसकी जड़ खोदना किसी तरह ईश्वर की सबसे बड़ी सेवा है। "

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प्रेमचंद ने लिखा है- " कामशास्त्र की बहुत-सी उपयोगी बातें ऐसी हैं,जिनका ज्ञान प्रत्येक गृहस्थ के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है।उसी का ज्ञान न होने से समाज में आज दिन अधिकतर पशुता का प्रबल्य हो गया है।"

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प्रेमचंद का मानना है - "ऊँचा साहित्य तभी आयेगा,जब प्रतिभा-सम्पन्न लोग तपस्या की भावना लेकर साहित्य-क्षेत्र में आयेंगे,जब किसी अच्छी पुस्तक की रचना राष्ट्र के लिए गौरव की बात समझी जायगी,जब उसकी चाय की मेजों पर चर्चा होगी,जब उसके पात्रों के गुण-दोष पर शिक्षित मित्र-मण्डलियों में आलोचनाएँ होंगी,जब विद्वान् लोग साहित्य में रस लेंगे।"

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यह हिन्दू भारत नहीं प्रेमचंद का भारत है।हिन्दू भारत में -मौत का भय अधिक है,प्रेमचंद के भारत में आजादी का सुख है।हिन्दू भारत में धार्मिकता का शोरगुल है,प्रेमचन्द के भारत में प्रेम का साम्राज्य है।हिन्दू भारत हृदयशून्य लोगों का देश है,प्रेमचन्द का भारत कल्पना,संवेदना और हार्दिकता के लोगों का समाज है।हिन्दू भारत भोगी और बाबाओं का देश है,प्रेमचंद का भारत कमाऊ,श्रम और श्रमिक को प्यार करने वालों का देश है। हिन्दू भारत भिखारियों,खैरात पर जीने वालों,ढोंगी बाबाओं का भारत है जबकि प्रेमचंद का भारत आत्मनिर्भर,विवेकवान लोगों का देश है।हिन्दू भारत परलोक प्रेम और अंधविश्वासों पर टिका है,प्रेमचंद का भारत विज्ञान और इहलोक से प्रेम पर टिका है।तय करो कौन सा भारत बनाना चाहते हो।

प्रेमचंद महान क्यों हैं ॽ

        कुछ लोग हैं जिनको प्रेमचंद की जन्मदिन पर याद आती है और फिर भूल जाते हैं,लेकिन इस तरह के लेखक-पाठक भी हैं जो हमेशा याद करते हैं। प्रेमचंद हिन्दी के सदाबहार लेखक हैं,उनको सारा देश ही नहीं सारी दुनिया जानती है,वे किसी सरकार के प्रमोशन के जरिए,विश्वविद्यालय में प्रोफेसरी के जरिए,चेलों की जमात के जरिए महान नहीं बने,बल्कि कलम के बलबूते पर जनप्रिय बने। सवाल यह प्रेमचंद को कौन सी चीज है जो महान बनाती है ॽ प्रेमचंद को महान बनाया उनकी भारतीय समाज की गहरी समझ और यथार्थ चित्रण के प्रति गहरी आस्था ने।

हिन्दी में अनेक लेखक हैं जो चित्रण करना जानते हैं लेकिन समाज की गहरी समझ का अभाव है इसके कारण उनके चित्रण में वह गहराई नहीं दिखती जो प्रेमचंद के यहां दिखती है। प्रेमचंद की महानता का दूसरा बड़ा कारण है उनका गरीबों,किसानों और धर्मनिरपेक्ष समाज के प्रति गहरा लगाव।वे साहित्य के जरिए प्रचार करने से डरते नहीं थे। उन्होंने लिखा ´सभी लेखक कोई न कोई प्रोपेगेंडा करते हैं- सामाजिक, नैतिक या बौद्धिक।अगर प्रोपेगेंडा न हो तो संसार में साहित्य की जरूरत न रहे,जो प्रोपेगेंडा नहीं कर सकता वह विचारशून्य है और उसे कलम हाथ में लेने का कोई अधिकार नहीं।मैं उस प्रोपेगेंडा को गर्व से स्वीकार करता हूँ।´उनका यह कथन फेसबुक लेखन के संदर्भ में आज और भी प्रासंगिक हो उठा है।

आज समाज के सामने साम्प्रदायिकता का खतरा सबसे बड़ी चुनौती है,कल तक साम्प्रदायिक ताकतें सत्ता के बाहर थीं आज वे सत्ता पर काबिज हैं,ऐसी स्थिति में उनके वैचारिक चरित्र को समझने में प्रेमचंद हमारे मददगार हो सकते हैं, प्रेमचंद ने लिखा है "साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है।उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था,संस्कृति का खाल ओढ़कर आती है।"

हमारे समाज में ऐसे लोग भी हैं जो अच्छी और बुरी साम्प्रदायिकता का विभाजन करते हैं। इस नजरिए की आलोचना में प्रेमचंद ने लिखा "हम तो साम्प्रदायिकता को समाज का कोढ़ समझते हैं,जो हर एक संस्था में दलबंदी कराती है और अपना छोटा-सा दायरा बना सभी को उससे बाहर निकाल देती है।"

भारत के आधुनिक समाज की सबसे कठिन समस्या है अंधविश्वास । क्या हमारे पास अंधविश्वासों से लड़ने का कोई मार्ग है ? अंधविश्वासों के प्रति सामाजिक आस्थाएं कमजोर होने की बजाय और भी पुख्ता बनी हैं ?मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है "हममें मस्तिष्क से काम लेने की मानों शक्ति ही नहीं रही। दिमाग को तकलीफ नहीं देना चाहते। भेड़ों की तरह एक-दूसरे के पीछे दौड़े चले जाते हैं,कुएँ में गिरें या खन्दक में,इसका गम नहीं। जिस समाज में विचार मंदता का ऐसा प्रकोप हो,उसको सँभलते बहुत दिन लगेंगे।"

समाज में इन दिनों अतीत के महिमामंडन पर बहुत जोर दिया जा रहा है।इस पर कथाकार प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है "बन्धनों के सिवा और ग्रंथों के सिवा हमारे पास क्या था। पंडित लोग पढ़ते थे और योद्धा लोग लड़ते थे और एक-दूसरे की बेइज्जती करते थे और लड़ाई से फुरसत मिलती थी तो व्यभिचार करते थे। यह हमारी व्यावहारिक संस्कृति थी। पुस्तकों में वह जितनी ही ऊँची और पवित्र थी,व्यवहार में उतनी ही निन्द्य और निकृष्ट।"

अंत में, प्रेमचंद को अकबर का एक शेर पसंद था-देखें- "दिल मेरा जिससे बहलता कोई ऐसा न मिला।बुत के बंदे मिले अल्लाह का बंदा न मिला।।"







शनिवार, 30 जुलाई 2016

नामवरजी का संघियों से संवाद

        नामवरजी दल बदलें,मंच बदलें,विचारधारा बदलें,हमें इससे कोई परेशानी नहीं है,उनको संवैधानिक हक है,लेकिन संविधान में प्रतिक्रियावाद की गोद में जाने का प्रावधान नहीं है।संविधान धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का वायदा करता है,लेकिन नामवरजी आप यह सब भूल गए।इसे कहते हैं रामजी के चरणामृत का असर!

कल से फेसबुक पर मित्रलोग हल्ला कर रहे हैं नामवरजी ने 28जुलाई 2016 को राजनाथ सिंह की मौजूदगी में जो बोला वह कमाल का बोला!हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं,नामवरजी ने वहां जो कुछ सुना और उसकी अनसुनी की,मंत्रियों की संघी विचारधारात्मक धारणाओं के सामने जिस तरह समर्पण किया उसने प्रेमचंद को उलटा कर दिया,उनके आचरण ने गिरीश्वर मिश्र के बयान को उलटा कर दिया। कम से कम गिरीश्वर मिश्र ने तो संतुलित कहा,लेकिन नामवरजी आपने तो हद कर दी !

नामवरजी के भाषण की जो मुख्य बातें हैं उन पर थोड़ा गंभीरता से विचार करें,यह विचार करना इसलिए जरूरी है क्योंकि नामवरजी अपने भाषण से लेखकों के लिए फासिस्ट मोदीमार्ग का निर्माण करके गए हैं। मोदीमार्ग पर चलने का पहले कु-फल यह हुआ कि नामवरजी लिखकर लाए और विचारधाराहीन भाव से उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त किया।वे जब बोल रहे थे तो अपनी ´जुबान पर काबू´ रखकर बोल रहे थे, उन्होंने कहा भी ´बोलने में जुबान पर काबू नहीं रहता´,इसलिए लिखकर बोल रहा हूँ।यहाँ मुख्य जोर ´जुबान पर काबू रखने पर था´!यही बात तो मंत्री महेश शर्मा ने कही थी मंच से,यही बात अभिव्यक्ति की आजादी के सिलसिले में अरूण जेटली कह चुके हैं।यही बात कई बार मोदीजी बोल चुके हैं।कमाल की संगतिपूर्ण दूसरी परम्परा है यह !

भक्तों का कहना है नामवरजी ने राजनाथ सिंहजी को नाम से सम्बोधित नहीं किया।कमाल है राजनाथ सिंह से सम्मान लिया,इससे बड़ी बात और क्या होगी!राजनाथ सिंह की हिमायतें सुनीं और मानीं,इतना आज्ञाकारी लेखक तो पहले कभी नहीं देखा! नामवरजी ने अपने जीवन का सबसे छोटा लिखित वक्तव्य पढ़कर सुनाया।इसे ´एसएमएस भाषण´ कहें तो बेहतर होगा।नामवरजी पर यह डिजिटल का सीधा असर है। वे बोले ´मेरी दूसरी परम्परा की खोज,साहित्य के लोकतंत्र में प्रतिपक्ष की तलाश है।´ सवाल यह है इसकी चुनौतियां क्या हैं ॽ अथवा यह भी कोई श्रृंगार साहित्य की तरह है जिसमें सिर्फ आनंद है,भाषायी कुलाचें हैं लेकिन किसी सामाजिक-राजनीतिक चुनौती से इसका कोई लेना-देना नहीं है।ऐसा चुनौतीहीन लोकतंत्र कम से कम आधुनिककाल में संभव नहीं है।लोकतंत्र में पहले ´लोक´ है फिर तंत्र है।´पक्ष´ है और फिर ´प्रतिपक्ष´ है।लेकिन नामवरजी जिस लोकतंज्ञ और प्रतिपक्ष की बात कर रहे थे वो तो राजनीतिविहीन है। यह हम नहीं कह रहे उन्होंने ही अपने भाषण के अंतमें बड़ी ही ईमानदारी के साथ कहा ´उनका जो काम वो एहिले सियायत जाने´,यह है नए किस्म के रीतिवाद का चरमोत्कर्ष !

नामवरजी के लोकतंत्र में राजनीति तो राजनेताओं का खेल है,साहित्यकार का काम है सिर्फ मोहब्बत!मोहब्बत! नामवरजी यही तो श्रृंगारशास्त्रियों ने किया था,आप अंतमें उनके ही मार्ग पर क्यों चले गए ॽक्या लोकतंत्र में राजनीति करते हुए साहित्य और साहित्यकार मोहब्बत का संदेश नहीं दे सकता ॽ क्या साहित्य को राजनीति से अलग करके कोई बहस संभव है ॽयदि नहीं तो फिर अपने लोकतंत्र में यह श्रृंगारवादी रूप क्यों धारण किया ॽ वैसे यह रूप प्रचार के लिहाज से सही है।सारे देश में राजनीतिविहीन साहित्य का,राजनीतिविहीन मोहब्बत का मीडिया ´फ्लो´आपकी मदद कर रहा है,आपने जो कुछ कहा वह मीडिया के ´फ्लो´में ही कहा। आरएसएस के लोगों ने आपके जन्मदिन को इवेंट बनाया,खबर बनाया, जाहिर है खबर तो तब ही फबती है जब मीडिया के ´फ्लो´में आए।

नामवरजी आपने राजनाथ सिंह की उपस्थिति में जो भाषण दिया वह मोदी नीति की संगति में सुंदर भाषण था,इसका प्रतिपक्ष से कोई लेना देना नहीं है,इसका लोकतंत्र से भी कोई लेना-देना नहीं है,यह आपकी दूसरी परम्परा में भी नहीं आता,यह तो आरएसएस की फासिस्ट परंपरा में आता है।दिलचस्प बात यह है पहले आप बोलते थे तो सोचकर बोलते थे,कभी फिसलते थे तो आलोचना के शिकार होते थे,बाद में स्टैंड बदल लेते थे,इसने आपको वैचारिक दल-बदल करने में मदद की,इसे आपके भक्तों ने उदारता नाम दे दिया।लेकिन आप पहले भी उदार नहीं थे,पहले जो थे वही राजनाथ सिंह के सामने नजर आए यानी वैचारिक दल-बदलू!

हम चाहते हैं आप हजारों साल जिएं।हम कलियुग के नजरिए से आपको नहीं देखते,कलियुग के नजरिए से तो प्रतिगामी लोग देखते हैं।उस दिन मंच पर राजनाथ सिंह इसी नजरिए से देख रहे थे।वे आपकी उम्र के पैमाने कलियुग से,ज्योतिष से उधार लेकर आए और कलियुगी कामना कर रहे थे।आप सच मानें मैं आपको बेइंतिहा प्यार करता हूँ।फेसबुक पर आप पर इतना लिख चुका हूँ कि इसकी वजह से आपके सबसे प्रिय छात्रों से आए दिन फेसबुक पर ताने सुनता रहता हूँ।

मैंने वीडियो में आपका भाषण गंभीरता से सुना है और सुनकर बेहद निराशा हाथ लगी।आपकी दूसरी परम्परा में कौन है और कौन नहीं है,इस पर मैं विवाद नहीं करना चाहता लेकिन आप रवीन्द्रनाथ टैगोर का नाम लेना क्यों भूल गए ॽ यह साधारण चूक नहीं है! आपकी दूसरी परम्परा की खोज रवीन्द्रनाथ की परम्परा से प्रेरणा लेकर जन्म लेती है लेकिन आरएसएस नियंत्रित मंच पर आते-आते आप टैगोर को भूल गए।आप मुझसे बेहतर जानते हैं हजारी प्रसाद द्विवेदी के नजरिए के मूल में टैगोर हैं। टैगोर का नाम न लेकर आप क्या बताना चाहते हैं ॽ यह साधाऱण चूक नहीं है,यह सुनियोजित चूक है।इसका सम-सामयिक फासिज्म के राजनीतिक परिदृश्य से गहरा संबंध है।मैं सोच रहा था कम से कम आप जैसा विलक्षण वक्ता,मौलिक वक्ता मंच पर मंत्रियों ने जो बकबास कही उसका उत्तर जरूर देगा।लेकिन आपने किसी भी चीज का उत्तर नहीं दिया,आप कह ही सकते हैं कि मैं साहित्य का सफाई कर्मचारी नहीं हूँ कि हर चीज की सफाई देता फिरूँ! (यह नामवरजी का पुराना जुमला है)

नामवरजी जब राजनाथ सिंह ने मंच पर ´आलोचक´ मानने से इंकार किया ,´आलोचना´ को बैरभाव से लिखी चीज कहा तो आपको नहीं लगा कि यह आपका सरेआम अपमान किया जा रहा है ! आलोचना के शिखरपुरूष के सामने ´आलोचना´की धारणा को विकृत किया जा रहा है ! मैं जानता हूँ आप पढ़ाते समय बार-बार कहते थे अवधारणाओं में सोचो,अवधारणा के विकृतिकरण के खिलाफ संघर्ष करो,अवधारणा को बचाओ।लेकिन राजनाथ सिंह के सामने आप चुप क्यों रहे ॽ आपने प्रतिवाद में इतना ही कह दिया होता राजनाथजी मैं आपसे असहमत हूँ,महेश शर्माजी आपने असहमत हूँ।इसमें आपकी कोई बड़ी क्षति नहीं होती,लेकिन आपने इतना तक नहीं कहा।

आप जानते हैं आपने पढ़ाया है साहित्य में जो बताया जाता है ,उस पर बात करो,लेकिन जो छिपाया जाता है वह ज्यादा गंभीर होता।उसका उद्घाटन करो।यह है दूसरी परम्परा।लेकिन आपको हम मंच पर बहुत कुछ छिपाते हुए देख रहे थे,यह कुल मिलाकर वैसे ही हो रहा था जैसे कोई बच्चा खेल खेल में अपने हाथ में,कपड़े में,पीट के पीछे,बनियान के अंदर,मुँह के अंदर अपनी चीजे छिपा लेता है।आपके इस छिपाने वाले भाव पर मैं तो फिदा हो गया हूँ ! आपसे बताने की,उद्घाटन की कला सीखी, अब इस उम्र में छिपाने की कला भी आपसे से ही सीख रहा हूँ !

आप सच में महान हैं।छिपाना साधारण काम नहीं है,राजनीति छिपाओ, विचारधारा छिपाओ,लिखे को छिपाओ,बोले को छिपाओ!आपके कल छिपाने वाले भाव का लोकतंत्र और साहित्य के प्रतिपक्ष के साथ तीन-तेरह का संबंध है।आपकी छिपाने की कला का साहित्य से कम और फासिज्म की कला से ज्यादा गहरा संबंध है।आप जानते हैं फासिस्ट कला मार्ग कलाओं का अंत है।अभिव्यक्ति की आजादी का अंत है।आप इसके पुरोधा बनकर सामने आए हैं दुख इसी बात का है! हम फिर भी चाहते हैं आप सौ साल जिएं लेकिन अब आप नहीं अन्य लोग आपको दलेंगे।यह त्रासदी आप वैसे ही झेलें जैसे टीएस इलियट ने अपने जीवन में फासिज्म की पराजय के बाद झेली थी।





शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

"नामवरजी मार्क्सवादी थे"- राजनाथ सिंह

       इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के द्वारा "नामवर सिंह की दूसरी परम्परा " के नाम से आयोजित कार्यक्रम ( 28जुलाई 2016)में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने संस्कृति को सीधे धर्म से जोड़ा. सवाल यह है क्या नामवरजी भी यही मानते हैं? नामवरजी ने धर्म को संस्कृति से जोड़ने वाले संघी नजरिए का प्रतिपाद न करके,मौन रहकर,उसे सम्मति प्रदान करके हजारी प्रसाद द्विवेदीजी की संस्कृति संबंधी दृष्टि पर अपनी आँखों के सामने राजनाथ सिंह के हमले को नतमस्तक होकर स्वीकार किया।यह है नामवरजी का कायान्तरण!

नामवरजी के सामने राजनाथ सिंह ने कहा धर्म वैज्ञानिक होने का प्रयास नहीं कर रहा,बल्कि धर्म तो वैज्ञानिक है ही।यानी इस तरह उन्होंने गिरीश्वर मिश्र की धारणा का विरोध किया। मजेदार बात यह थी दोनों मंत्री महेश शर्मा-राजनाथ सिंह ने अलिखित भाषण दिया,लेकिन नामवरजी ने लिखित भाषण पढ़ा।राजनाथ सिंह ने सीधे कहा "नामवरजी जब मार्क्सवादी थे।" सवाल यह है क्या नामवरजी अब मार्क्सवादी नहीं रहे ? क्या मोदी सरकार के वरिष्ठमंत्री की इस शानदार घोषणा के लिए इस कार्यक्रम को रखा गया था ?

संस्कृति मंत्री महेश शर्मा का बयान बहुत ही अर्थपूर्ण है वे बार बार कर्तव्य निर्बाह की ओर ध्यान दिलाते रहे,बड़ी निर्लज्जता के साथ उन्होंने कहा लोकतंत्र और आजादी के दो पाटों का अतिक्रमण नहीं होना चाहिए।यह सीधे नामवरजी और संगोष्ठी में बोलने वालों के लिए हिदायत थी।

कमाल उस समय हो गया जब राजनाथ सिंह ने कलियुग के बहाने प्रतीकात्मक ढ़ंग से हिदायती स्वर में कहा नामवरजी "मर्यादा का कभी अतिक्रमण नहीं कर सकते।"

लेकिन इस समारोह का आदर्श लक्ष्य क्या है ? महेश शर्मा ने बताया-

"बूढ़े बैलों के संरक्षण की जिम्मेदारी हमारी है।" अब मोदी की गोदी में बैठने का वैचारिक प्रतिफलन इससे बेहतर नहीं हो सकता था नामवरजी !!



नामवरजी का स्वाभाविक चरित्र लिखकर भाषण देने का नहीं है। इंदिरा गांधी कला केन्द्र में उनका कल जो भाषण लिखित रूप में उनके द्वारा पढ़ा गया हमारा अनुमान है वह मोदी सरकार के द्वारा पास किया भाषण है । मोदीजी की साफ़ धारणा है सरकार के मंचों से सरकार के बारे में एक भी वाक्य आलोचना का नहीं होना चाहिए।मोदीजी की इस नीति का नामवरजी ने पालन किया । जो लोग नामवरजी महान कर रहे हैं वे ज़रा सोचें कि नामवरजी ने कल राजनाथ सिंह और महेश शर्मा के वक्तव्य में व्यक्त विवादास्पद बातों पर एक भी वाक्य क्यों नहीं बोला ? नामवरजी की यह स्वाभाविक प्रकृति नहीं है कि राजनेता कुछ भी उनके सामने बोलकर चले जाएँ और नामवरजी उस पर कुछ न बोलें। मोदी की गोदी में बैठने का यह साइड इफ़ेक्ट है कि नामवरजी की स्वतंत्र अभिव्यक्ति नदारत!

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

नीत्शे के घर मार्क्स पधारे आनंद है ! आनंद है!

       आज जब नामवरजी संघ आयोजित कार्यक्रम में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र जाएंगे तो सचमें इतिहास रचेंगे !आज वे नीत्शे से मिलेंगे! यह उनके द्वारा स्थापित नीत्शे परंपरा का महान पर्व का दिन है ! इसके बाद वे हमेशा के लिए अशांति और उन्माद के हवाले हो जाएंगे।मार्क्स की कसम खाने वाले आज गोगुंडों के संरक्षकों के सामने गऊ दिखेंगे ! उनकी´नैतिकता´ एकदम मरियल आवारा गाय की तरह होगी।जो इधर-उधर मुँह मारकर अपना जीवन-यापन करती है और अंत में कसाई के हाथों मोक्ष प्राप्त करती है।

जिनके खिलाफ अनेक किस्म की हत्याओं,कलाओं,कलाकारों,सांस्कृतिक रूपों,संविधान के अपमान आदि के असंख्य ठोस पुख्ता सबूत हों,उस संगठन के लोगों के बीच जन्मदिन मनाते हुए बस एक ही नारा गूंजेगा ´तुम महान जयश्रीराम´! सब कुछ ´उल्लासमय´ होगा !एकदम नए किस्म की ऑडिएंस होगी ! यह दृश्य एकदम फिल्मी होगा ! वर्चुअल होगा!

वर्चुअल में नीत्शे के घर मार्क्स पकवान खाने आए हैं ! नीत्शे के पकवान मार्क्स खाएं,एंगेल्स, प्लेखानोव,ब्रेख्त,एडोर्नो सब तालियां बजाएं और कहें मार्क्स तुम एक और लो !श्रोता कहें अद्भुत क्षण है!नीत्शे के हलवाई पूछें कैसे लगे मेरे पकवानॽ सब कुछ मीठा होगा ! सब कुछ आनंदमय होगा! नामवरजी बस यही कहेंगे आनंद है! आनंद है! हम सब फेसबुक पर कहेंगे आनंद है! आनंद हैं! हम यही कहेंगे नीत्शे की जय हो!प्राणियों में सद्भावना हो,जगत का कल्याण हो हर-हर नीत्शे! आज का दिन नीत्शे का दिन है!शर्म का दिन है!

बड़ी विलक्षण बात है साहित्यकार की नैतिकता की जिस दौर धज्जियां उड़ायी जा रही हों उसी दौर में साहित्यकार की अनैतिकता पर कोई बड़ा विमर्श हिन्दी में नहीं चला।हिन्दी में लेखकगण मनमाने ढ़ंग से इस मामले में पैमाने बनाते रहे और अपने को वैध ठहराते रहे।साहित्यकार की एक होती ´नैतिकता´और दूसरा होता है उसका ´राजनीतिक नजरिया´ इन दोनों के सहमेल से साहित्यकार की साहित्य शक्ति,व्यक्तित्व और संस्कृति निर्मित होती है।हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं।नामवरजी इस मामले में सबसे ज्यादा विवादास्पद हैं। साहित्यकार की राजनीतिक नैतिकता के मामले में नामवरजी मार्क्सवादियों की परंपरा की बजाय नीत्शे के करीब दिखाई पड़ते हैं।

मार्क्सवादीके लिए ´सत्य´प्रमुख है। वही उसकी ´नैतिकता´का मूलाधार है।इसके विपरीत नामवरजी के लिए सत्य नहीं ´मैं´प्रमुख है।वे अपने इर्द-गिर्द ही साहित्य-संसार मानते हैं,यही बीमारी नीत्शे में थी।नीत्शे की तरह ही नामवरजी भी अपने को ´साहित्य संदर्भ´मानकर देखते हैं। वे इस भ्रम के शिकार हैं कि वे जब बताएंगे तब पता चलेगा कि ´सत्य´क्या है,गोया ´सत्य´की चाबी उनके पास हो!वे नीत्शे की तरह ´स्व-संदर्भ´को पसंद करते हैं।नीत्शे की तरह नामवरजी को भ्रम है वे ही साहित्य के जज हैं! जिस तरह दर्शन में नीत्शे ने ´अनैतिकतावाद´ को चलाया,उसी तरह नामवरजी ने साहित्य में इस पंथ का निर्माण किया।

आज जब नामवरजी राजनाथ सिंह के हाथों जन्मदिन की बधाई लेंगे,सम्मान लेंगे,तथाकथित दूसरी परंपरा पर सुनेंगे तो वे अपने समय के सबसे क्रूर गृहमंत्री के हाथों सम्मानित होंगे।नामवरजी आप ही सोचें राजनाथ किस मनोदशा में रहते हैं और वे और उनकी बटुकमंडली किस तरह का माहौल रच रही है ! आज हम सब बौद्धिकता में क्रूरता को अभिव्यंजित होते देखेंगे। आज साहित्य और दूसरी परंपरा में आनंद को नहीं क्रूरता को अभिव्यंजित होते हुए देखेंगे।दूसरी परंपरा की श्रेष्ठ संस्कृति का जयगान कसाईयों के घर में सुनेंगे! संस्कृति,साहित्य और परंपरा का क्रूरता के साथ इस तरह मेल बैठेगा यह तो हम सबने कभी सोचा ही नहीं था ! संस्कृति को क्रूरता के गले का हार बनाकर नामवरजी आपने सचमें हिन्दी की बहुत बड़ी सेवा की है,वैसे यह अनैतिकता का चरम है लेकिन हम खुश हैं कि आप इसे आज भी अनैतिकता नहीं मान रहे !

मैं आपकी और आपके भक्तों की घृणा के शिकार होने का जोखिम उठाकर यह सब इसलिए लिखने को मजबूर हुआ हूँ क्योंकि अब चीजें असहनीय हो गयी हैं।आप कल तक क्रूर लोगों को महान बनाते रहे हम चुप रहे,हम निश्चिंत थे कि कम से कम संस्कृति को क्रूरता से दूर रखा।लेकिन आज तो संस्कृति और क्रूरता का खुला गठबंधन होगा,संस्कृति को हम क्रूरता के वैभव में मस्त देखेंगे,क्रूरता के हाथों संस्कृति का अपहरण देखकर रवीन्द्रनाथ टैगोर कम से कम स्वर्ग में रो रहे होंगे,कि किन कातिलों के हाथ उनकी दूसरी परंपरा पड़ गयी!हमारा न सही अपने गुरूदेव का ही ख्याल कर लिय़ा होता,गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर का ख्याल कर लिया होता कि वे क्या सोचेंगे! सच में आप क्रूर हैं!परंपरा के प्रति क्रूर हैं!क्रूरता को संस्कृति के आवरण से ढ़ंकने की कला कोई आपसे सीखे।इसी अर्थ में आप और आपकी साहित्यमंडली आज मार्क्स की बजाय नीत्शे की शरण में खड़ी दूसरी परंपरा का जयगान कर रही है !



नामवरजी आप महान हैं आपने जिस परंपरा को बनाया था उसमें धर्म और अध्यात्म के लिए कोई जगह नहीं थी लेकिन आज तो सब कुछ आध्यात्मिक होगा ,धार्मिक अनुष्ठान की तरह होगा !संवेदना,प्रेम,साहित्य आदि का आज आध्यात्मिकीकरण होगा।आज आपके साम्प्रदायिकता विरोध का भी आध्यात्मिकीकरण होगा।आध्यात्मिकीकरण की कला मार्क्स की नहीं नीत्शे की कला है।आध्यात्मिकीकरण के कारण ही शत्रु से प्रेम का प्रदर्शन देखेंगे!अब आरएसएस के प्रति जितने भी विवाद हैं ,विरोध हैं,मोदीजी के खिलाफ जितने भी विवाद और विरोध हैं उन सबका आध्यात्मिकीकरण कर दिया जाएगा। यह नीत्शे की जीत है और मार्क्स-टैगोर की पराजय का दिन है!

बुधवार, 27 जुलाई 2016

नरेन्द्र मोदी जब नामवरजी से मिले !

     यह सच है नरेन्द्र मोदी से नामवरजी मिल चुके हैं। एक-दूसरे को आंखों में तोल चुके हैं! इनकी ज्ञाननीठ पुरस्कार समारोह में मुलाकात हो चुकी है।यही वह मुलाकात थी जिसे नामवरजी को प्रगतिशील परंपरा से भिन्न आरएसएस की परंपरा से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की! वे दोनों जब मिले तो विलक्षण दृश्य था एक तरफ जनप्रसिद्धि के नायक मोदी थे तो दूसरी ओर साहित्येच्छा के नायक नामवरजी थे।यह असल में ´जनप्रियता´ और ´इच्छा´का मिलन था।यह मिलन का सबसे निचला धरातल है। कलाहीन मोदी ,नामवरजी की प्रशंसा कर रहे थे !

कलाहीन नायक जब किसी लेखक की प्रशंसा करे तो कैसा लगेगा ॽ मोदीजी जब प्रशंसा कर रहे थे तो वे जानते थे कि नामवरजी भी साहित्य में वैसे ही ´जनप्रिय´हैं जैसे वे राजनीति में ´जनप्रिय´हैं,दोनों की ´जनप्रियता´की ऊँचाई बनाए रखने के लिए पेशेवर प्रचारक अहर्निश काम करते रहते हैं। इन दोनों का पेशेवर प्रचारकों के बिना कोई भविष्य नहीं है। दोनों को नियोजित और निर्मित प्रचार कला का हीरो माना जाता है। दोनों के पास अपने-अपने प्रशंसकों के समूह हैं।दोनों से लोग डरते हैं, महसूस करते हैं पता नहीं कब और कहां से पत्ता कटवा दें!

दोनों के चाटुकार प्रशंसक हैं!दोनों के पास कोई विशिष्ट किस्म की गतिविधि नहीं है।दोनों इसलिए ´महान्´ हैं क्योंकि सत्ता का अंग हैं!इनकी कोई राजनीतिक और साहित्यिक विशिष्टता नहीं है जिसकी वजह से ये दोनों जाने जाते हों! दोनों के पास प्रायोजित जनता है,स्वाभाविक जनता नहीं है।दोनों का प्लेटो के शब्दों में कहें तो ´प्रायोजित संसार´है।दोनों सत्ता की निर्मिति हैं,शासकवर्गों की निर्मिति हैं।दोनों यह जानते हैं कब क्या बोलना चाहिए और कब चुप रहना चाहिए।दोनों का साहित्यिक-राजनीतिक आस्वाद मौजूदा संसार से मेल नहीं खाता।दोनों अधूरे मनुष्य हैं,दोनों में गुलाम भाव है,दोनों कारपोरेट जगत के प्रशंसक हैं,दोनों सत्ता के औजार हैं,दोनों अहंकारी हैं,दोनों आस्था के आदी हैं।

दोनों ऊपर से देखने में ´भद्र´और अंदर से ´क्रूर´हैं।दोनों का मानना है ´विशिष्ट´व्यक्ति की ´क्रूरता´की नहीं ´भद्रता´की बातें करो।यही हाल इन दोनों के भक्तों का है,आज मैं यदि नामवरजी और मोदीजी की प्रशंसा करूँ तो ये लोग बड़े खुश होंगे,लेकिन यदि इनकी गलत चीजों की आलोचना करूँ तो मेरे ऊपर व्यक्तिगत हमले शुरू कर देंगे! दोनों में हजम कर जाने,आहत करने,कमजोर पर वर्चस्व जमाने,दबाकर रखने,शोषण करने की आदतें हैं।दोनों को समाज में वही घटना पसंद है जिसमें उनका संदर्भ रहे।

इसके अलावा नामवरजी की ´साहित्यिक अनैतिकता´ और मोदी की ´राजनीतिक अनैतिकता´में गहरा संबंध है।मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से को इस ´अनैतिकता´से कोई परेशानी नहीं है.वे इसको स्वाभाविक मानकर चल रहे हैं।इस ´अनैतिकता´ के गर्भ से समाज में साहित्य और राजनीति में ´अनैतिकता´का ही प्रसार होगा और यही मूल चिंता है जिसके कारण मैं इतना विस्तार में जाकर नामवरजी पर लिखने को मजबूर हुआ हूँ।


नामवरजी अब खेलो ´अंत´का साहित्यखेल!

         नामवरजी के व्यक्तित्व के वैसे ही अनंत पहलू हैं जैसे किसी सामान्य व्यक्ति के होते हैं। अनंत पहलुओं में से व्यक्ति किसी भी दिशा में अपना विकास कर सकता है।नामवरजी का साहित्येतिहास और आलोचना में योगदान रहा है।वे कम से कम यह तो बता ही सकते हैं कि हिन्दी में आरएसएस और मोदीयुग का क्या योगदान है जिसके कारण उनके साथ जुड़ने की जरूरत आन पड़ी ॽ हम समझ सकते हैं हिन्दीसाहित्येतिहास में कांग्रेस,कम्युनिस्ट,समाजवादी,उदारतावाद,फोर्ड फाउंडेशन,नव्य़ आर्थिक उदारीकरण आदि विचारधाराओं का योगदान रहा है,इन विचारधाराओं ने किसी न किसी रूप में हिन्दी साहित्य और लेखकों को प्रभावित किया है, लेकिन आरएसएस का क्या योगदान है ॽ ऐसी कौनसी विपत्ति आन पड़ी कि दूसरी परंपरा को आरएसएस की मालाओं की जरूरत पड़ी! क्या दूसरी परंपरा का हिन्दुत्व से कोई संबंध बनता है ॽ यदि हां,तो कम से कम कुछ तो आपकी साहित्यिक टीम कल के आयोजन में रोशनी डालेगी !

नामवरजी आपको लेकर मुझे एक पुराना दार्शनिक रूपक याद आ रहा है।जंगल में जब पेड़ गिरता है तो वह शब्द जरूर करता है लेकिन उसके गिरने की ध्वनि को कोई नहीं सुनता।उसके गिरने की ध्वनि कोई अंतर पैदा नहीं करती।यही दशा आपकी है आप मोदी-आरएसएस की गोदी में गिरे तो हैं।समाज में आपका वैचारिक पतन तो हुआ है लेकिन हिन्दी साहित्य की प्रतिवादी परंपरा पर इसका कोई असर नहीं होने वाला।लेकिन यह सच है कि वृक्ष गिरा है।आरएसएस वाले सोच रहे हैं आपके और आपकी साहित्य टीम के उनके साथ चले जाने का साहित्य में बहुत बड़ा असर होगा ! लेकिन वे गलतफहमी में हैं।आप भी जानते हैं आरएसएस की विचारधारा सर्जनात्मकता विरोधी बर्बर विचारधारा है।बांझ विचारधारा है। वे लोग अब तक साहित्य पर कोई असर नहीं छोड़ पाए,वे लोग आज तक बेहतरीन रचनाकार पैदा नहीं कर पाए।ऐसी बांझ अवस्था में आपके जरिए हिन्दू साहित्य की परंपरा का विकास कैसे होगा यह देखना बाकी है !

नामवरजी हम यह नहीं मानते कि आपके आरएसएस के खेमे में जाने का कोई असर नहीं होगा।जंगल में वृक्ष के गिरने से एक परिवर्तन जरूर हुआ है।इसने जंगल का नक्शा बिगाड़ दिया है। प्रगतिशील साहित्य की शक्ल बिगाड़ दी है।यह वह शक्ल है जिसको बनाने में एक जमाने में आपकी और आपकी साहित्यटीम की भूमिका रही है।आपके इस एक कदम ने प्रगतिशील लेखकों के सामने अनेक सवाल खड़े कर दिए हैं ,उनकी भूमिका को सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है।हम जानते थे मोदी सरकार आने के बाद आपकी टीम को असुविधा होगी,सत्ता के भत्तों और संरक्षण पर आपकी टीम का समूचा कारोबार चलता रहा है।मैंने समय-समय पर उसकी तीखी आलोचना भी लिखी है।लेकिन आपकी टीम तो महान साहित्य टीम है, उसमें महान मार्क्सवादी आलोचक हैं,ये ऐसे आलोचक हैं जो किसी की आलोचना पर ध्यान ही नहीं देते।यही इसबार भी हुआ।मैंने फेसबुक पर कई बार आने वाले संकट की ओर संकेत भी किया था,लेकिन लोगों ने मेरी बात को गंभीरता से नहीं लिया,मैं जानता हूँ आपने साहित्य का परिदृश्य इतना गंदा ,भ्रष्ट और विचारधाराहीन बना दिया है कि अब लेखक का मूल्यांकन ही बंद हो गया है। अब लेखक के लिए संपर्क-संबंध और सत्ता के कनेक्शन मुख्य हो गए हैं,इस परंपरा को निर्मित करने में नामवरजी आपकी निश्चित तौर पर निर्णायक भूमिका रही है। पहले लेखक के सामान्य से वैचारिक विचलन पर बहस होती थी,लेखक संगठनों के बयान आते थे, लेकिन आज परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है,नामवरजी और उनकी साहित्यटीम पूरी तरह मोदीमंडली में शामिल हो चुकी है लेकिन लेखक संगठनों का कोई बयान तक नहीं आया है,लेखकों की ओर से कोई प्रतिवाद नहीं है।

नामवरजी आपका मोदी की गोद में जाना सामान्य घटना नहीं है।यह युगांतरकारी घटना है।इसने हिन्दी साहित्येतिहास की दिशा बदल दी है। साहित्येतिहास अपनी दिशा तब बदलता है जब वह अपने लक्ष्य बदलता है।नामवरजीने इसी संदर्भ में साहित्य की भूमिका,लेखक की भूमिका आदि को बुनियादी तौर पर आपने बदलकर रख दिया है।



नामवरजी और उनकी साहित्य टीम के आलोचक हिन्दी के मंचों पर आएदिन ´अंत´ पदबंध की खिल्ली उड़ाते थे।लेकिन इस टीम ने ही ´अंत ´को साकार कर दिया।नामवरजी का मोदी की गोदी में जाना ´साहित्य का अंत´है।´विचारधारा का अंत ´है। यह उस भ्रम का भी अंत है कि ये लोग अंत के विरोधी हैं।नामवरजी अब खेलो अपने हाथों ´अंत´का साहित्यखेल!

नामवरजी की इतिहास से शत्रुता

       आम्बेडकर की जयन्ती मोदी सरकार मना रही है, मोदी-मोहन भागवतजी आम्बेडकर पर सुंदर बातें कह रहे हैं।लेकिन आचरण एकदम दलितविरोधी कर रहे हैं।राजनीति में आचरण प्रमुख है, विचार गौण होते हैं। 90वें जन्मदिन के नाम पर 28जुलाई 2016 को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में नामवरजी क्या बोलते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है,महत्वपूर्ण है आरएसएस के लोगों का इस संग्रहालय की आड़ में जन्मदिन मनाना।उसमें नामवरजी का जाना महत्वपूर्ण है।इस आयोजन को नामवरजी द्वारा दी गयी स्वीकृति महत्वपूर्ण है।सवाल यह है आचरण की बातों पर नामवरजी के भक्तगण ध्यान क्यों नहीं दे रहे ? सवाल यह है नामवरजी के निर्माण में किनका खून-पसीना-विचारधारा और पैसा लगा है ?

नामवरजी सार्वजनिक बौद्धिक संपदा का अंग हैं ।वे पूजा की नहीं आलोचना की मूर्ति हैं ! जब उनकी आलोचना हो रही है तो भक्तों को परेशानी क्यों हो रही है ? हम इसलिए परेशान हैं क्योंकि नामवरजी सीधे आरएसएस के साथ गलबहियां देकर घूम रहे हैं।यह जनता और प्रगतिशील साहित्य के खिलाफ सबसे घिनौना कदम है।

यह कोई नामवर पुराण नहीं है।नामवरजी लेखक हैं,वे गल्पपुरूष नहीं हैं,उनके कर्म के मूल्यांकन के मकसद से उनसे फेसबुक के जरिए संवाद है।उनके भक्तों से संवाद है।मौजूदा समय से संवाद है।

हमें कोई आपत्ति नहीं है वे किसे नौकरी देते हैं,किसकी सेमीनार में बोलने जाते हैं,क्या बोलते हैं,वे सरकार से जुड़ें या न जुड़ें,हमें इस सबसे कोई आपत्ति नहीं है, वे यह काम करते रहे हैं,हमने कभी नहीं बोला।हमारी आपत्ति यह है कि नामवरजी ने अपना जन्मदिन मनाने के लिए आरएसएस को अनुमति क्यों दी ॽ नामवरजी उनको अनुमति न देते तो क्या छोटे हो जाते ॽ

मोदीजी के पीएम बनने के पहले से नामवरजी ने संघ की ओर मुँह किया था,हमने तब भी आगाह किया था, फिर कर रहे हैं,यह जनता के साथ गद्दारी है।हम उन लेखकों से भी अपील करते हैं जो अब तक चुप हैं ,नामवरजी के वहां जाने से क्या वे सहमत हैं ॽ यदि हां तो खुलकर कहें कि उनका स्टैंड क्या है ॽयह क्या बात हुई कि नामवरजी का जन्मदिन आरएसएस नियंत्रित संस्था मनाए और आपकी कोई राय ही न हो,क्या हम यह मानें कि आपलोगों का उनको समर्थन है ॽ

कई मित्रों ने कहा काहे को नामवरजी के पीछे पड़े हो? हमने कहा वे हमारे शिक्षक हैं।हमें पूरा हक़ है उनसे सवाल करने, उनके लिखे और बोले पर सवाल करने का। हमने यह भी कहा वे फेसबुक पर हमारे प्रिय व्यक्तित्व हैं,इसीलिए उन पर लिख रहे हैं,दूसरा वे हमारे लिखे का बुरा नहीं मानते!

अफसोस है नामवरजी ने ब्रेख्त की परंपरा छोड़कर एजरा पाउण्ड -हाइडेगर की परंपरा में जगह बना ली है।

मैं जानता हूँ हिन्दी के बूढ़े लेखक मेरी बात नहीं सुनेंगे,वे अपनी सत्ता की आदतों मे मगन हैं,हम तो असल में फेसबुक के जरिए युवा मित्रों से संवाद कर रहे हैं जिससे वे सत्ता की आदतों के शिकार न हों,यही छोटा सा लक्ष्य है,नामवरजी तो बहाना मात्र हैं,नामवरजी की सत्ता की आदतों को मैं छात्रजीवन से जानता हूँ और उनको समय-समय पर बेनकाब करता रहा हूं।

फेसबुक पर नामवरजी के जो भक्त सक्रिय हैं हम उनसे अनुरोध करेंगे कि नामवरजी की हिमायत करते हुए कम से कम जन्मदिन आने तक नामवरजी पर रोज़ एक लेख लिखो ।



नामवरजी पर सब लोग जानें कि भक्तगण कितना नामवरजी को जानते हैं।नामवरजी के नाम पर जाहिलगिरी बंद होनी चाहिए। नामवरजी विद्वान हैं उनका लिखा सहज रूप में उपलब्ध है, आसानी से उसे पढ़कर ही लिखो,कम से कम मोदी के भक्तों की तरह नामवरजी के भक्त न बनो! लेकिन अफसोस है नामवरजी ने भी तो मोदी की तरह भक्त ही पैदा किए हैं!!

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

लेखकों में पतित बनने की होड़

        इस समय हिन्दी के सत्ताधारी प्रगतिशील-कलावादी लेखक बड़े कष्ट में हैं।इन लेखकों की मुश्किल यह है कि वे वगैर राजनेता के संरक्षण के साहित्य-सेवा नहीं कर सकते।नामवर सिंह अपनी साहित्य टीम लेकर मोदीजी के पाले में चले गए हैं ।जबकि प्रगतिशीलों की दूसरी टीम जिसके मुखिया अशोक बाजपेयी हुआ करते हैं, वे नीतीश कुमार से मिले हैं, उनके सान्निध्य में साहित्य-रक्षा की कसमें ली गयी हैं, उनके साथ मंगलेश डबराल,अपूर्वानंद,विष्णुनागर,सीमा मुस्तफा,प्रिय दर्शन आदि मिले हैं, ये लोग राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प सुझाएंगे।

कायदे से लेखकों को इस तरह के राजनीतिक संरक्षण से बचना चाहिए।हम जानना चाहते हैं कि क्या जर्मनी के किसी लेखक ने हिटलर से लड़ने के लिए राजनीतिक संरक्षण मांगा थाॽ यह कौन सी राजनीति हो रही है कि लेखक को समाज में काम करने के लिए राजनीतिक संरक्षण चाहिए ! राजनीतिक संरक्षण वस्तुतः लेखक की गुलामी है । कम से कम नीतीश कुमार के बारे में यह साफ रहना चाहिए कि उनका कला-साहित्य-संस्कृति से कोई लेना-देना नहीं है।यदि वे साहित्य-कलाओं के प्रति इतने ही गंभीर होते तो बिहार की दुर्दशाग्रस्त अवस्था न होती। लेखक काम करना चाहते हैं तो करें स्वतंत्र रूप से काम।कौन रोक रहा है।लेकिन संरक्षण लेकर काम करना लेखक के लिए मुसीबतें पैदा करता है।

असल में नामवरसिंह और अशोक बाजपेयी में यह सत्ता का अघोषित बंटबारा है, नामवरजी आप मोदी को संभालें, मैं (अशोक बाजपेयी) गैर मोदी सरकारों को संभालता हूं। इस तरह के साहित्यिक श्रम-विभाजन से साहित्य-कला –संस्कृति का कोई भला होने वाला नहीं है।दूसरी बात यह कि नीतीश बाबू चाहते हैं अशोक मंडली दिनकर को केन्द्र में रखे।हम जानना चाहते हैं क्या दिनकर के साहित्यिक बोझ को भी आज उठाना सही होगा ॽ

नामवरसिंह राजनाथ सिंह की जुगलबंदी और नामवरराग -

       कल तक कुछ लोग कह रहे थे कि नामवरजी तो इंदिरा गांधी कला केन्द्र सिर्फ भाषण देने जा रहे हैं,हमने कहा था नहीं वे मोदी की गोदी में जा रहे हैं।नामवरजी अकेले ही मोदी की गोदी में नहीं गए अपनी पूरी साहित्य टीम को लेकर गए हैं।यह वही साहित्य टीम है जो कल तक आरएसएस को लेकर सवाल कर रही थी लेकिन अब सारे सवाल गंगा के हवाले कर दिए गए हैं,अब एक ही नारा है नामवरजी महान हैं ! इस एक नारे में समूचा देश सिमट गया है। यह प्रगतिशील साहित्य की उस परंपरा का पतन है जो कल तक साम्प्रदायिकता को गाली देते नहीं थकती थी।
नामवरसिंह और उनकी मंडली के लेखकों का साम्प्रदायिकता विरोध से कोई लेना-देना नहीं था,साम्प्रदायिकता विरोध छलावा मात्र था।मोदीजी को इसका श्रेय जाता है कि उन्होंने चंद लाख रूपये खर्च करके नामवरसिंह और उनकी साहित्य टीम के साम्प्रदायिकता विरोध के छद्म को नंगा कर दिया।
नामवरजी पर आरएसएसएस वाले जो कार्यक्रम करने जा रहे हैं,उसमें आरएसएस के दो बड़े नेता अतिथि हैं,केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह,मुख्य अतिथि होंगे, एक अन्य केन्द्रीय मंत्री महेश शर्मा विशिष्ट अतिथि होंगे। इस सत्र का विषय है –नामवर सिंह की दूसरी परंपरा,अन्य सत्रों में नामवर की सार्थकता समझाने के लिए नामवरजी की पूरी साहित्य टीम शामिल हो रही है इसमें प्रमुख हैं-काशीनाथ सिंह, निर्मला जैन,विश्वनाथ त्रिपाठी,केदारनाथ सिंह,मैनेजर पांडेय,विभूति नारायण राय,हरिमोहन शर्मा,एस.आर.किदवई आदि के अलावा अन्य भाषाओं के लेखकों को भी बुलाया गया है।

नामवर का कुँआ

       हम जानते हैं नामवरजी ने क्या लिखा है,हम यह भी जानते हैं उन्होंने जेएनयू में कितने ´महान´ कार्य किए थे। कोर्स बनाना ,पढ़ाना महान् कार्य नहीं है,यह रूटिन काम है, यह नौकरी के काम हैं। मौजूदा समय उनके अतीत को खंगालने का नहीं है।मेरी चिन्ता यह है कि नामवरजी के आरएसएस के साथ जाने को कैसे देखा जाय ॽउनके व्यक्तित्व को कैसे देखा जाय ॽ नामवरजी की खूबी है वे अपने को कभी आंतरिक गुणों की रोशनी में पेश नहीं करते।वे आंतरिक गुणों का प्रदर्शन नहीं करते।दिलचस्प बात यह भी यदि वे आंतरिक गुणों पर जोर देते तो उसकी पुष्टि करना असंभव है।

नामवरजी हमेशा ´लोकप्रियता के भावबोध´में रहते हैं।हर चीज ´लोकप्रियता´ को दिमाग में रखकर तय करते हैं।सरकारों के साथ जुड़े रहने का यही बड़ा कारण है,फलतः मीडिया से लेकर सरकारी संस्थानों तक उनके लिए सहज ही ´महान हो महान हो´की लोकप्रिय ध्वनियां गूंजने लगती हैं। इसका दूसरा आयाम यह है कि नामवरजी के कर्म पर कम उनकी लोकप्रियता पर ज्यादा बातें हैं।उनके कर्म में ´सारवान´तत्व नहीं होते,वे मात्र ´लोकप्रियता´ के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। उनके कर्म में सारवान तत्व के अभाव ने उनको ´कर्म के लिए कर्म´करने वाला, ´भाषण के लिए भाषण´देने वाला बना दिया है।

यदि कोई व्यक्ति बेहतरीन इंसान है तो उसके कर्म,जीवन और विचार में संगति होनी चाहिए।यह कैसे संभव है कि विचार कुछ हैं और एक्शन कुछ और हैं।सोच कहीं रहे हैं और जा कहीं और रहे हैं।यह नामवरजी की विशिष्ट शैली है। यही वजह है नामवरजी अपने नाम के साथ कोई बेहतर जीवन मूल्य विकसित नहीं कर पाए।नामवरजी को हम सब लोकप्रिय हिन्दी विद्वान-शिक्षक के रूप में जानते हैं।लेकिन उसके विचार और कर्म में कभी कोई साम्य नहीं रहा,इसलिए लोग उनको ´अवसरवादी´ तक कहते हैं।



जो लोग नामवरजी को ´महान´बनाने में लगे हैं,वे जरा गंभीरता से सोचें ´महान´क्या पल-पल में विचार बदलता है,मूल्यहीन होता है ॽक्या कभी नामवरजी ने श्रोताओं से भिन्न स्टैंड लिया ॽ वे हमेशा श्रोताओं की प्रकृति देखकर बोलते हैं।जबकि विशिष्ट या महान व्यक्ति कभी भी श्रोताओं की प्रकृति में ढलकर नहीं बोलता।बोलने की यह कला,पुरानी रीतिकालीन कला है।क्या नामवरजी ´श्रोता´और ´जनता´ में अंतर करके बोलते हैं ॽ उनके लिए श्रोता प्रमुख है,जनता गौण है।उनके लिए सत्ता प्रमुख है,जीवन मूल्य गौण हैं।उनके लिए लोकप्रियता प्रमुख है,प्रगतिशील विचारधारा गौण है।

नामवरजी ऐसा न करें-


          नामवरजी ने इधर राजनीति बदली है,वे लेखक बिरादरी के साथ सबसे बड़ा धोखा करने जा रहे हैं।इंदिरा गांधी कला संग्रहालय द्वारा उनका जन्मदिन नहीं मनाया जा रहा,यह संग्रहालय तो पहले से है,कभी उनका जन्मदिन वहां नहीं मनायागया।रामबहादुर राय भी दिल्ली में पहले से हैं उनको कभी नामवरजी के जन्मदिन की याद नहीं आई,आरएसएस भी पहले से है लेकिन आरएसएस वालों ने कभी उनका जन्मदिन नहीं मनाया,लेकिन 90साल में पहलीबार नामवरजी का जन्मदिन आरएसएस मना रहा है , आड़ है इंदिरा गांधी कला संग्रहालय।यह सामान्य घटना नहीं है।

यहां से नामवर सिंह के साम्प्रदायिकता विरोधी लेखन का अंत होता है।फासिस्ट विचारकों के द्वारा जब उनका जन्मदिन उनकी मौजूदगी में ,उनकी स्वीकृति के बाद मनाया जाएगा,तो नामवरजी के साम्प्रदायिकता विरोधी लेखन की प्रासंगिकता खत्म हो जाती है।कोई यदि यह सोचता है कि लेखक आचरण कुछ भी करे लेकिन उसके लिखे शब्दों में शक्ति रहती है तो गलतफहमी है,लेखक के शब्दों में तब तक जान रहती है जब तक लेखक अपने शब्दों के प्रति वफादार रहता है,नामवरजी ने अपने साम्प्रदायिकता विरोधी लेखन को अपने ही हाथों ध्वस्त करके अपने ही हाथों अपना मुँह नोंचा है।यह इस दौर की त्रासद घटना है। यह भी सच है कि नामवरजी जब अपने लिखे पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं,उसे अप्रासंगिक बना रहे हैं,तो उनको कायदे से बताना चाहिए कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं।लेकिन नामवरजी पहले कह चुके हैं मैं सफाई नहीं देता।अब कर लो संवाद,जब वे अपने बदले हुए रूख पर चुप हैं तो हमलोग संवाद किससे करें.यानी आरएसएस की बगल में बैठने का मतलब है संवाद की भी विदाई।

सोमवार, 25 जुलाई 2016

नामवरजी का नायकीय व्यक्तिवाद

       नामवरजी के पढ़ाए और सताए सैंकड़ों छात्र हैं,इससे ज्यादा उनके प्रशंसक और भक्त छात्र हैं।वे जब तक भारतीय भाषा केन्द्र ,भाषा संस्थान,जेएनयू में प्रोफेसर के रूप में पढ़ाते रहे उनके व्यक्तित्व के सामने विभाग के अन्य किसी शिक्षक का व्यक्तित्व निखरकर सामने नहीं आ पाया,वे सभी के व्यक्तित्व पर छाए रहे।वे 90साल के हो गए हैं।स्वस्थ हैं और सक्रिय हैं,हम सबके लिए यह सुखद बात है।हम सब यही चाहेंगे कि और भी अधिक लंबी उम्र तक जिंदा रहें।

नामवरजी के अंदर एक चीज है जिसे ´नायकीय व्यक्तिवाद´ कहते हैं। वे जहां रहे,नायक की तरह रहे,नायक की तरह काम किया,अच्छा या बुरा जो भी काम किया नायक की तरह काम किया।उनके संदर्भ में ´नायकीय व्यक्तिवाद´ का अर्थ क्या है ॽ यदि वे साहित्य पर बोल रहे हैं तो उनके शब्द साहित्य की पहचान और व्याख्या को प्रभावित करते हैं।वे जब बोलते हैं तो लगता है नामवर प्रमुख हैं साहित्य गौण है।श्रोतागण धार्मिक कर्मकांड की तरह उनको सुनते हैं। धार्मिक आस्था के साथ बैठे रहते हैं। वे जब किसी कार्यक्रम में रहते हैं तो अपनी मौजूदगी को वैध ठहराते हैं।लगता है नामवरजी को बुला लिया,कार्यक्रम सफल हो गया ! कोई यह नहीं देखता कि वे क्या बोले ॽ अच्छा बोले या खराब बोले!आयोजक और श्रोता इससे खुश कि नामवरजी आ गए! वे अपनी मौजूदगी के अनुभव से उत्तेजना पैदा करते हैं।नामवरजी को यह गुण मार्क्स से नहीं नीत्शे से मिला है।नामवरजी की खूबी है जो बोलते हैं उसका पालन नहीं करते। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने हजारों भाषण दिए हैं,लेकिन गिनती के भाषण स्वयं लिखे हैं। वे अपने भाषण को लिखने से क्यों कतराते रहे इसका आजतक कोई सटीक उत्तर उन्होंने नहीं दिया।

नामवरजी के लिए भाषण देना धार्मिक कर्मकांड की तरह है। भक्त उनको वाचिक परंपरा का अंतिम आचार्य कहते हैं।प्रश्न यह है उनके भाषण उनके जीवन का अंग हैं या नहीं ॽ यदि जीवन का अंग हैं तो भाषणों की संगति में वे अपने जीवन का विकास क्यों नहीं कर पाए ॽयह कैसे हुआ कि जीवनानुभव और ज्ञानानुभव में भयानक अंतराल आ गया !



नामवरजी अपना समूचा कार्य-व्यापार आस्था के आधार पर चलाते रहे हैं,जो उनके प्रति आस्थावान हैं नामवरजी के वे प्रिय हैं! जो उनके प्रति आस्था नहीं रखते नामवरजी उनको घास नहीं डालते,चाहे वह कितना ही योग्य और सक्षम हो।यही आस्था नामवरजी को आरएसएस के आयोजकों तक ले गयी है।आरएसएस वालों में भी वे सब गुण हैं जो किसी आस्थावाले में होते हैं।यही वजह है नामवरजी ने साहित्य और अकादमिक जगत के सभी फैसले आस्था की कसौटी पर कसकर लिए,जो आस्था में खरा उतरा वह उनका हुआ जो आस्थारहित था उसे उन्होंने तिरस्कृत किया।आस्था का पहलू इतना प्रबल है कि नामवरजी की वैचारिक प्रतिबद्धता को उसने हमेशा के लिए दफ्न कर दिया।अब नामवरजी का नायकीय व्यक्तिवाद था और आस्था थी,ये दोनों चीजें जेएनयू में रहते हुए ही जन्म ले चुकी थीं,इन दोनों को उन्होंने खूब पाला-पोसा बड़ा किया।

आरएसएस वाले नामवरजी का जन्मदिन क्यों मना रहे हैं ॽ

        आप जब नामवरजी से बातें करेंगे,मिलेंगे,तो मन होगा,इस आदमी से बार-बार मिलना चाहिए।बहुत ही सुंदर भाषा,उदात्त भाव और उदात्त जीवन तरंगों के कारण नामवरजी सहज ही आकर्षित करने लगते हैं। यही उदात्तता उनकी जनप्रियता का मूलाधार है।इसके कारम ही वे सबको अच्छे लगते हैं।

सवाल यह है जनप्रिय न होते तो क्या आरएसएस के लोग उनको बुलाते ॽ क्या कोई सत्ताधारी उनको बुलाता ॽ

किसी भी लेखक के अंदर एक आंतरिक मन होता है और दूसरा उसका बाह्य मुखमंडल होता है। इनमें साम्य हो सकता है, वैषम्य भी हो सकता है।यह भी कह सकते हैं लेखक की एक होती है आत्मा और दूसरा होता है मन।सवाल यह है लेखक को कहां खोजें ॽ मन में खोजें या आत्मा में ॽ

प्लेटो ने मन और आत्मा की एकता पर जोर दिया,लेकिन नामवरजी के मन और आत्मा में गहरा द्वंद्व है,अन्तर्विरोध है।जिस तरह हम प्लेटो के किसी मूल्यविशेष को खारिज कर सकते हैं,लेकिन प्लेटो के योगदान को खारिज नहीं कर सकते।यही दशा नामवरजी की है उनके किसी मसले पर नजरिए को खारिज कर सकते हैं,लेकिन उनके हिन्दी साहित्य में योगदान को खारिज नहीं कर सकते।उनकी बेहतरीन मेधा को अस्वीकार नहीं कर सकते,खारिज नहीं कर सकते।

सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कौन सी चीज है जो मनुष्य को महान बनाती है ॽ मैं चाहूँ या न चाहूं नामवरजी हिन्दी के महान आलोचक हैं।यह महानता उन्होंने कैसे अर्जित की है ॽ वे जनप्रिय क्यों हैं ॽ हर दल,संगठन,व्यक्ति उनको क्यों पसंद करता है ॽक्योंकि उनके पास साहित्यात्मा है।साहित्यात्मा को अर्जित करना सबसे मुश्किल काम है।साहित्यात्मा अर्जित करने के कारण वे इतिहास में शामिल हैं, इतिहास के निर्माण में उनकी बड़ी भूमिका है।वे जब तक जिंदा हैं साहित्य की हर बहस में घूम-फिरकर दाखिल हो जाते हैं,वे साहित्य की मासकल्चर हैं।

सवाल यह नहीं है कि उनका लिखा खराब है या बढ़िया है,सवाल यह है कि उनको छोड़कर हिन्दीवाले बात नहीं कर सकते।वे हिन्दीवाले के अंदर खाली जगह देखते ही मासकल्चर की तरह घुस जाते हैं।मसलन्,कोई विषय न हो तो नामवरजी पर बातें करो। मासकल्चर का यही लक्षण है वह खाली समय में तुरंत दाखिल होती है।आरएसएस वाले भी अपने खालीपन को भरने के लिए नामवरजी का इंदिरा गांधी कला संग्रहालय की आड़ में इस्तेमाल कर रहे हैं,उनका जन्मदिन मना रहे हैं।



यह कहा जाता है अच्छा आदमी जरूरी नहीं है महान हो,और महान आदमी जरूरी नहीं है अच्छा आदमी हो।यह बात नामवरजी पर सटीक बैठती है।यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से नामवरजीके जीवन में शैताननायक प्रवेश करता है।

आदिविद्रोही ,लाशें और विकास

       ´आदिविद्रोही’ उपन्यास पढ़ते हुए आप एक ऐसी दुनिया में प्रवेश करते हैं जो देखने में प्राचीन है लेकिन सचमुच में एकदम सामयिक है।आज हम जिन सुंदर और भव्य राजमार्गों से गुजरते हैं उनके पीछे लटके मुर्दों को नहीं देखते।हमें राजमार्ग आकर्षित करते हैं,लेकिन उनके पीछे लटके मुर्दे नजर नहीं आते। राजमार्ग बनने का अर्थ है समृद्धि का आना ! यही बात पिछली सरकार समझा रही थी और यही बात मोदी सरकार समझा रही है ! लेकिन समृद्धि आकर नहीं दी !!

आम लोगों की जिन्दगी में पामाली बढ़ी है। आत्महत्या की घटनाएं बढ़ी हैं,अपराध बढ़े हैं।विकास कहीं पर भी नजर नहीं आ रहा। ´आदिविद्रोही´ उपन्यास का रोम से कापुआ जाने वाला राजमार्ग और जगह-जगह सलीब पर लटकी गुलामों की लाशें याद करें।उनमें से ही एक लाश स्पार्टकस की भी थी।वह गुलामों का नायक था।ये गुलाम रोम की समृद्धि के सर्जक थे,लेकिन वंचित,पीड़ित और गुलाम थे।

रूपक के रूप में यह कापुआ जैसे शहर और राजमार्ग आज भी हमारे बीच में मौजूद हैं। रोम से कापुआ जाने वाले मार्ग को ऐपियन मार्ग कहते थे,इस पर छःहजार चार सौ बहत्तर लाशें टिकटियों पर झूल रही थीं। इन लाशों का जिक्र करने के बाद लेखक ने सवाल उठाया है ´इतनी ज्यादा लाशें क्यों ॽ दूसरों को नसीहत देने के लिए तो एक दो आदमियों को सज़ा दी जाती है।मगर छःहजार चार सौ बहत्तर ,इतने क्यों ॽ ´ लाशों और विकास के बीच यह संबंध आज भी बना हुआ है।

इस सवाल के उत्तर में हेलेना कहती है ´वे कुत्ते इसी के योग्य थे´, इसके बाद लेखक कहता है, ´लेकिन इतने जानवर हलाल ही क्यों किये जायँ,अगर तुम उतना सब गोश्त नहीं खा सकतेॽ मैं तुम्हें बतलाता हूं।इससे दाम चढ़ा रहता है।व्यवस्था बनी रहती है।और सबसे बड़ी बात तो यह कि मालिकाने के कुछ नाजुक सवाल इससे हल हो जाते हैं.और एक शब्द में यही उस सवाल का जवाब है।´

नामवरजी का शैताननायक प्रेम

   नामवरजी का शैताननायक प्रेम नई बात नहीं है।राजनीति में वे आपातकाल के दौरान आपातकाल का समर्थन करके इस प्रेम का प्रदर्शन कर चुके हैं,इसबार वे नरेन्द्र मोदी के साथ हैं। सवाल यह है लेखक के नाते आपातकाल का समर्थन करना और लेखक के ही नाते नरेन्द्र मोदी का समर्थन करना आखिर किस तरह की राजनीतिक नैतिकता की अभिव्यक्ति है ॽ क्या इस राजनीतिक नैतिकता को लोकतांत्रिक कहेंगे ॽ

हिन्दी में शैतान नायक के प्रति प्रेम की परंपरा को बनाए रखना बड़ा दुर्लभ काम है। लेकिन वे यह काम कर रहे हैं। इस समय देश में लेखकों की अभिव्यक्ति के अधिकारों पर हमले हो रहे हैं,तीन लेखकों को हिन्दुत्ववादी हत्यारों ने मौत के घाट उतार दिया ,लेकिन नामवरजी ने उस पर कोई गंभीर प्रतिवाद नहीं किया, न तो कोई लेख लिखा और न ´आलोचना´पत्रिका में कोई संपादकीय लिखा।ठीक यही स्थिति आपातकाल के समय भी थी,अभी वे बूढ़े हैं ,उस समय वे यौवन से भरे थे,लेकिन आपातकाल के खिलाफ ´आलोचना´ पत्रिका में उन्होंने एक वाक्य नहीं लिखा।वे प्रतिवाद में संपादकीय पन्ना खाली छोड़ सकते थे ,वह भी नहीं किया,उलटे आपातकाल का समर्थन किया।आजकल वे कहते हैं उन्होंने आपातकाल का विरोध किया था।

हाल के वर्षों में आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के जिस तरह के हमले किए हैं उन पर नामवरजी चुप हैं ! यह चुप्पी बेहद खतरनाक है ! उलटे उन्होंने पुरस्कार वापस करने वाले लेखकों पर ही आलोचना के बाण चलाए हैं।दिलचस्प बात यह है इंदिरा गांधी ने भी संविधान की धज्जियां उडायीं,नामवरजी चुप रहे !मोदीजी भी धज्जियां उडा रहे हैं वे चुप हैं ! सवाल यह है नामवरजी की एक लेखक के नाते राजनीतिक नैतिकता क्या है ॽ मुक्तिबोध की भाषा में पूछें ´पार्टनर तेरी पॉलिटिक्स क्या है ॽ ´

नामवरजी के लिखे को खोजने जाएंगे तो उनका आरएसएस के पक्ष में लिखा कहीं नहीं मिलेगा,बल्कि उनका साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखा मिलेगा। ऐसी अवस्था में आप उनको पकड़ेंगे कैसे ॽ राजनीति का नियम है कि आदमी के विचार ही नहीं व्यवहार भी देखना चाहिए।

नामवरजी का आरएसएस और मोदी के प्रति व्यवहार क्या है ॽ नामवरजी की मोदीभक्ति उनके आचरण में है,लेखन में नहीं है।लिखित रूप में तो उन्होंने आपातकाल के पक्ष में भी कुछ नहीं लिखा लेकिन आपातकाल का समर्थन किया था। उनके लेखन को देखकर नहीं लगेगा कि वे कभी फासिस्ट इंदिरा के साथ थे।नामवरजी लिखकर कभी किसी दल के साथ नहीं रहे,वे हमेशा केन्द्र में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल और पीएम के साथ रहे हैं।इसलिए नामवरजी को खोजना है तो उनके आचरण में खोजो।किसी भी लेखक को खोजना है तो उसके लेखन और आचरण दोनों को मिलाकर देखें।

नामवरजी के राजनीतिक मूल्य वे नहीं है जो आरएसएस के हैं,नामवरजी अपने मूल्य स्वयं सृजित करते रहे हैं।सतह पर लगेगा कि उनके और मोदी के मूल्य भिन्न हैं,आरएसएस और उनके मूल्य भिन्न हैं !यह भिन्नता का दर्शन उन्होंने नीत्शे से सीखा है। लिखने की बजाय बोलने और राजनीतिक आचरण की कला उन्होंने नीत्शे से सीखी है। नीत्शे में यही गुण था ।नीत्शे के गुण हिटलर से नहीं मिलते थे,लेकिन वह हिटलर के साथ था।

दिलचस्प बात यह है आरएसएस में इतना स्पेस है कि आप वामपंथी रहकर भी उनके साथ रह सकते हैं,गांधीवादी होकर भी उनके साथ रहकर सकते हैं,आरएसएस के साथ रहने के लिए उसकी विचारधारा को मानना जरूरी नहीं है,आरएसएस का मुख्य जोर साथ रहने पर है,आप निजी तौर पर अपने विचार कुछ रखें लेकिन आएसएस के साथ रहें ।जो लोग कह रहे हैं यह देखना चाहिए कि नामवरजी उनके यहां जाते हैं तो बोलते क्या हैं ॽ हमारा कहना यही है कि वे जो बोलते हैं उसे कृपा करके लिख दें,कहीं छपवा दें,वे बोलने के बहाने वैचारिक घल्लूघारा किए हुए हैं। नामवरजी वैचारिक तौर पर सबसे अविश्वसनीय वक्ता हैं,वे मौसम और माहौल देखकर बोलने में सिद्धहस्त हैं।जबकि उनके भक्तों को लगता है उनका बोलना ही महान है!



रविवार, 24 जुलाई 2016

नामवरजी के आने-जाने की विचारधारा और भोले भक्त

        नामवरजी का आना-जाना कोई सीधा -सरल मामला नहीं है।वह कोई विचारधाराहीन काम नहीं है।वे असाधारण लेखक हैं।वे कहीं जब बुलाए जाते हैं तो इसलिए नहीं बुलाए जाते कि बहुत सरल सीधे, विचारधाराहीन इंसान हैं ! भक्तों का तर्क है वे सबके हैं और सब उनके हैं ! यदि मामला इतना सा ही होता तो नामवरजी को न तो कोई बुलाता और न कोई उनका 90वां जन्मदिन ही मनाता।वे बड़े कद के लेखक-शिक्षक-बुद्धिजीवी हैं। उनकी समाज में व्यापक भूमिका है। वे साधारण लेखक रहे होते तब भी संभवतः हमें कोई आपत्ति न होती। जाने-अनजाने नामवरजी के बारे में जितने तर्क उनकी हिमायत में दिए जा रहे हैं वे अंततःनामवरजी को विचारधाराहीन,दृष्टिहीन मनुष्य के रूप में पेश कर रहे हैं।लेकिन नामवरजी विचारधाराहीन मनुष्य नहीं हैं।वे बेहतरीन इंसान हैं।मैं निजी तौर पर उनका प्रशंसक -आलोचक हूँ,उनके गलती करने पर हर समय टोका है,लेकिन संवाद नहीं छोड़ा।बहिष्कार नहीं किया।

नामवरजी का मोदीप्रेम हाल की घटना नहीं है यह मोदीजी के लोकसभा चुनाव के समय ही सामने आ गया था,उस समय भी हमने फेसबुक पर उनके टीवी पर दिए गए बयान की आलोचना की थी। सवाल यह है क्या मौजूदा मोदीशासन सामान्य रूटिन लोकतांत्रिक सरकार का शासन है ॽक्या मोदी निजी तौर पर सामान्य बुर्जुआनेता हैं ॽ क्या अटल-आडवाणी की तरह के संघी नेता हैं ॽ यदि हमारे मित्र ऐसा सोच रहे हैं तो बहुत बड़ी गलतफहमी में हैं।

देश में पहलीबार ऐसा हुआ है कि एक ऐसा व्यक्ति शासन पर आ बैठा है जिसने अपने राजनीतिक कर्म से लोकतंत्र को बहुत गहरे जाकर क्षत-विक्षत किया है।गुजरात के दंगे साधारण घटना नहीं है। संविधान पर नियमित सोची समझी साजिश के तहत पहले उन्होंने गुजरात में निरंतर हमले किए,यहां तक कि न्यायपालिका को पंगु बना दिया,यही वजह थी कि सुप्रीमकोर्ट को उन दंगों के मुकदमों की सुनवाई की व्यवस्था गुजरात के बाहर करनी पड़ी।यह भारत के इतिहास की असाधारण घटना है।125से ज्यादा लोग दंगों के लिए सजा पा चुके हैं,यहां तक कि मोदीमंत्रीमंडल की एक सदस्या भी सजा भोग रही है।यह सब देखने जानने के बावजूद यदि नामवरजी जैसा सुलझा हुआ व्यक्ति मोदी की गोदी में जा रहा है तो सवाल तो खड़े होंगे !

कुछ लोग कह रहे हैं इंदिरा गांधी कला संग्रहालय राष्ट्रीय संस्थान है,वह संघ का नहीं है,अतः वहां जाने में कोई हर्ज नहीं। इस तरह के तर्क नामवरजी जैसे व्यक्ति को टुईंया लेखक बना देते हैं, उनके जाने-आने को अर्थहीन सामान्य घटनामात्र बना देते हैं।हम जानते हैं नामवरजी बहुत उदार हैं,भले हैं,जो बुलाता है उसके यहां चले जाते हैं।लेकिन क्या मोदी सरकार आने के बाद बुद्धिजीवियों के लिए स्थितियां सामान्य रह गयी हैं ॽ



आज बुद्धिजीवियों के बीच में अघोषित मोदीआतंक फैला हुआ है।केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में स्थिति सबसे बदतर है।स्वयं जेएनयू में भी हालात असामान्य हैं।जेएनयू के आरएसएस से जुड़े शिक्षकों ने जांच रिपोर्ट के नाम पर छात्रसंघ के ऊपर सीधे हमला बोला है,अनेक छात्रनेताओं के खिलाफ कार्रवाई हुई है,नामवरजी चुप रहे।पहलीबार ऐसा हुआ है कि आरएसएस के शिक्षकों ने जेएनयू की छात्राओं को कलं कित, अपमानित करने वाली रिपोर्ट जारी करके सभी छात्राओं के चरित्र पर सवाल खड़े किए हैं,उनको अपमानित किया है।जेएनयू में संघी वीसी ने सभी फैसलेकुन कमेटियों को पंगु कर दिया है।इस तरह की घटनाएं तो आपातकाल में भी नहीं हुई थीं।जेएनयू की एकेडमिक कौंसिल का एजेण्डा वीसी नहीं मानव संसाधनमंत्री तय कर रहा है। यही हाल दिल्ली विश्वविद्यालय और अन्य केन्द्रीय विश्वविद्यालयों का है वहां पर मानव संसाधन मंत्री से स्वीकृति लिए बिना एकेडमिक कौंसिल का एजेण्डा वीसी तय नहीं कर सकता।कम से कम आपातकाल में भी यह स्थिति नहीं थी कि एकेडमिक कौंसिल का एजेंडा मंत्री तय करे! नामवरजी भोले नहीं हैं और अज्ञानी नहीं हैं जो यह न जानते हों! विगत सभी सरकारों के साथ मोदी सरकार के अंतर को सिर्फ इसी एकमात्र उदाहरण से समझा जा सकता है।

मोदी की गोदी में नामवर !

       नामवरजी के व्यक्तित्व से प्रभावित छात्र,शिक्षक और लेखकों का बड़ा समूह है। दिलचस्प बात है कि नामवरजी के गैर-साहित्यिक व्यक्तित्व और कारनामों को लेकर बहुत कम लोग जानते हैं।खासकर उनके जेएनयू में काम करने के दौरान किए गए अकादमिक फैसलों की जिनको पहचान है वे बेहतर ढ़ंग से जानते हैं कि जेएनयू में प्रोफेसर के रूप में काम करते हुए नामवरजी ने कभी भी छात्रों के हितों से जुड़े सवालों पर (मेरे सात साल के जेएनयू छात्रजीवन के दौरान) कभी कोई स्टैंड नहीं लिया, उलटे वे हमेशा जेएनयू प्रशासन के साथ और छात्रों के खिलाफ खड़े नजर आए।
       नामवरजी की रीतिकालीन मनोदशा का आदर्श नमूना है जेएनयू ।मैं उन दिनों छात्र राजनीति में सक्रिय था।मैं वहां पढ़ता था। नामवरजी खुलकर कभी छात्रों के पक्ष में न तो एकेडमिक कौंसिल में बोले और न बोर्ड़ ऑफ स्टैडीज में बोले, उलटे छात्रों को विक्टिमाइज करने में अपने विभाग में अग्रणी भूमिका निभाते रहे ।ये बातें इसलिए जानना जरूरी है क्योंकि नए सिरे से नामवरजी पर रीतिकाव्य लिखा जा रहा है।मुश्किल यह है कि जो लोग देश में खुलकर वाम के नाम से जाने जाते हैं और जेएनयू में प्रोफेसर हुआ करते थे उनमें से अधिकांश की जेएनयू प्रशासन के साथ और छात्रों के विरोध में सक्रिय भूमिका हुआ करती थी।कुछ ही शिक्षक थे जो आमतौर पर छात्रों के पक्ष में जेएनयू प्रशासन के खिलाफ बोलते थे,जो छात्रों के पक्ष में बोलते थे उनमें प्रोफेसर प्रभात पटनायक, उत्सापटनायक,हरवंश मुखिया, जी.पी.देशपांडे, प्रो.विमलकुमार,परिमल कुमार,जीएस भल्ला के नाम प्रमुख हैं।इन चंद शिक्षकों के अलावा कुछ नामी शिक्षक ऐसे भी थे जो छात्रहित के सवालों पर खुलकर स्टैंड लेते थे,अकादमिक जगत में उनका कद बहुत ऊँचा हुआ करता था।बाकी सभी प्रोफेसरों का हाल यह था कि वे खुलकर जेएनयू प्रशासन के अ-लोकतांत्रिक,छात्र विरोधी फैसलों के साथ आँख बंद करके खड़े रहते थे।

नामवरजी के जेएनयू संबंधी कार्य-व्यापार की हर हालत में मीमांसा करने की जरूरत है,क्योंकि उनकी भक्तमंडली बड़ी व्यापक है और नामवरजी अपने जेएनयू कारनामों के लिए झूठ बोलते रहे हैं।यह चीजें नए सिरे से उठाने की इच्छा इसलिए हुई है कि नामवरजी सारे एथिक्स तोड़कर आरएसएस के साथ इन दिनों खुलकर गलबहियां डाले घूम रहे हैं।नामवरजी रीतिकालीन अवगुणों के अलावा अनेक गुण भी हैं।लेकिन उनके गुणों की क्षमता अब चुक गयी है जिसके कारण वे इन दिनों खुलकर देश के सबसे बदनाम शासक नरेन्द्र मोदी के साथ खुलकर खड़े हैं।नामवरसिंह के नरेन्द्र मोदी के साथ चल रहे इस रीतिकालीन भावबोध की खुलकर आलोचना होनी चाहिए,साथ ही इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि एक प्रोफेसर-लेखक-बुद्धिजीवी के कर्म और लेखन में साम्य और वैषम्य के समाज पर किस तरह के प्रभाव पड़ने की संभावनाएं होती हैं।


शनिवार, 23 जुलाई 2016

´तन्मयता´में मथुरा मिलेगा

         लोग पूछते हैं आपने क्या सीखा ,किससे सीखा,कैसे सीखा ॽ उनके लिए मेरे पास कोई जबाव नहीं होता।क्योंकि मैं बड़ा हुआ सामान्य किस्म के लोगों के बीच में।सारी जिन्दगी सामान्य़ किस्म के लोगों में गुजारी,जो कुछ भी सीखा उनसे ही सीखा या फिर लेखकों की किताबों से सीखा।

मैं बहुत कम साहित्यकारों और प्रोफेसरों को जानता हूँ,उससे भी कम संख्या में लेखकों-प्रोफेसरों से निजी परिचय है।आमतौर पर लेखकों –प्रोफेसरों से दूर ही रहा हूँ। यह मेरी सबसे बड़ी कमी कह सकते हैं। हमारे अनेक मित्र साहित्यकार हैं और साहित्यकारों में उनका सम्मानजनक स्थान है।मैंने कभी अपने को न तो साहित्यकार के रूप में महसूस किया और न साहित्यकारों की तरह लिखा,जितनी किताबें लिखीं वे सब पाठक के नाते लिखीं।मैं कईबार इस बात को व्यक्त कर चुका हूँ मुझे नागरिकबोध में जीने में मजा आता है।साहित्यकार,आलोचक,प्रोफेसर या किसी विषय के विशेषज्ञ के रूप में मेरी कभी कोई तैयारी नहीं रही।

मथुरा की निजी चेतना का मूलाधार है ´तन्मयता´,यह मैंने मथुरा से सीखा। मैं जो भी काम करता हूँ,´तन्मयता´और ´एकाग्रता´ के भाव से करता हूँ।यह मथुरा की संस्कृति का सबसे बेहतरीन तत्व है। यह ऐसा तत्व है जो व्यक्ति को भौतिक संसार की ओर ले जाता है। इस तत्व में बांधकर रखने की क्षमता है, दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है ´दिल जीतना´,मथुरा की माटी में ´दिल जीतने´की कला रमी-बसी है।रासलीला ने कई बार इस बात की ओर ध्यान दिलाया था।तीसरा महत्वपूर्ण तत्व है ´वर्गीकरण´करके न देखना,मथुरा के लोग सभ्यता के प्रचलित सामाजिक वर्गीकरणों में न तो सोचते हैं और न बोलते हैं।जो व्यक्ति ´वर्गीकरण´की केटेगरी में बोलता है उसे औचक भाव से देखते हैं।वहां सामान्य शिक्षित समुदाय में भी वर्गीकरण बहुत कम इस्तेमाल नहीं होते हैं।



मथुरा इसलिए अच्छा लगता है कि वहां के मित्रों ने राजनीति सिखाई,संस्कृत साहित्य की विरासत से जुड़ा,मार्क्सवाद वहीं मिला,तंत्र-मंत्र और ज्यौतिषशास्त्र भी वहीं मिला,इससे भी बड़ी बात यह कि वहां के लोगों से बेइन्तहा प्यार मिला,निःस्वार्थ मित्रता की शिक्षा मिली। यह ज्ञान मिला कि जो दूर है उसे पास लाओ, मित्र बनाओ।स्मृति,कष्ट और प्रतिबद्धता को भूलो मत।

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

आदिविद्रोही से क्या सीखा-


  सवाल यह है  ´आदिविद्रोही´ से मैंने क्या सीखा ॽ ´आदिविद्रोही´तो गुलाम स्पार्टकस की जीवनकथा है। हावर्ड फ़ास्ट ने लिखा  ´मैंने यह कहानी इसलिए लिखी कि मेरे बच्चे और दूसरों के,जो भी इसे पढ़ें,हमारे अपने उद्विग्न भविष्य के लिए इससे ताकत पायें और अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ें,ताकि स्पार्टकस का सपना हमारे समय में साकार हो सके।´इस किताब का हिन्दी अमृतराय ने किया है।

     फ़ास्ट के लेखन की विशेषता है उत्पीड़ितों के साथ सक्रिय संवेदनात्मक लगाव।अमृत राय ने लिखा हावर्ड फ़ास्ट के पास तीक्ष्ण ऐतिहासिक दृष्टि है । उसके लिए ´इतिहास वह जो अपना स्रोत कोटि-कोटि साधारण –जनों की क्रिया-शक्ति में पाता है,जिसकी दृष्टि राजा से अधिक प्रजा पर होती है और जो उन सामाजिक शक्तियों को समझने का प्रयत्न करता है ,जिनके अन्तस्संघर्ष से जीवन में प्रगति होती है। ´

मथुरा का आदिविद्रोही मार्ग

       अजीब बात है मथुरा जैसे धार्मिक शहर में हम मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग से आने वाले युवाओं के पास उस समय मंदिर,पंडे,पुजारी,जनसंघ,कांग्रेस,बगीची,अखाड़े,यमुना नदी का किनारा और घाट के किस्से हुआ करते थे। अचानक 1974 का बिहार आंदोलन शुरू हुआ,मैं निजी तौर पर राजनीति नहीं जानता था लेकिन बाबू जयप्रकाश नारायण के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित था, समाजवाद के विचार से उस समय तक मेरा कोई परिचय नहीं था।

मुझे सबसे पहले समाजवादी सोवियत संघ का साहित्य पढ़ने को अपने संस्कृत कॉलेज माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय में पढ़ने को मिला और यह साहित्य पढ़ने को दिया मथुरानाथ चतुर्वेदी ने,जो उस समय मथुरा जनसंघ के अध्यक्ष थे, बाद में नगरपालिका अध्यक्ष भी रहे,आरएसएस के मथुरा में सबसे बड़े समय नेता हुआ करते थे।मेरे कॉलेज में सोवियत साहित्य और पत्रिकाएं मुफ्त में आती थीं,वे ही उनको संभालकर रखते थे,उनसे ही 1972-73 में सोवियत साहित्य पहलीबार पढ़ने को मिला,वे हमारे कॉलेज की लाइब्रेरी के भी इंचार्ज थे,अतः पुस्तकालय से आसानी से किताबें भी मिल जाया करती थी।वहीं से पहलीबार सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का लिखा महाभारत पढ़ा,जो बच्चों के लिए लिखा गया था। सोवियत भूमि,सोवियत नारी और संभवतः सोवियत दर्पण पत्रिका नियमित मथुरानाथजी ही देते थे।इस तरह अनजाने ही सही लेकिन समाजवादी साहित्य पहलीबार हमारे शिक्षक के हाथों मेरे पास पहुँचा।यह बेहद दिलचस्प बात है कि मथुरानाथजी ने कभी मुझे पांचजन्य पढ़ने को नहीं दिया,जबकि वह अखबार वे नियमित पढ़ते थे।यहीं से मुझे नियमित दैनिक अखबार पढ़ने की आदत पड़ी।सबसे दिलचस्प बात यह कि मेरे गुरूजी और ज्योतिष के शिक्षक संकटाप्रसाद उपाध्याय की राजनीतिक विषयों में गहरी दिलचस्पी थी, उनके बनारस के घर के आसपास के इलाके में उन दिनों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गहरा असर था,अतः उनके विचारों का झुकाव वाम की ओर था। मथुरानाथजी तो जनसंघ के नेता ही थे,लेकिन इन दोनों के राजनीतिक विचार नहीं मिलते थे,इन दोनों शिक्षकों से समय-समय पर राजनीतिक विषयों पर जमकर बातें होती थीं,इसके कारण मेरी राजनीतिक विषयों में दिलचस्पी पैदा हो गयी।



एक दिन अचानक वियतनाम के आजाद होने की खुशी में कोई एक कार्यक्रम शिवदत्त चतुर्वेदी ने भाकपा के कार्यालय पर आपातकाल में रखा और मुझे उसने पहल करके अपना मित्र बनाया और उस कार्यक्रम में बुलाया उसमें मेरी अनेक कॉमरेडों से पहलीबार मुलाकात हुई।यह मेरे जीवन का पहला सेमीनार,गोष्ठी भी था। इसमें का.सव्यसाची भी थे।वे उस समय माकपा के जिलामंत्री थे। इसी कार्यक्रम में चौधरी वीरेन्द्र सिंह से मुलाकात हुई जो एसएफआई के सचिव थे।आपातकाल में इतने कॉमरेडों का मिलना सुखद आश्चर्य था ,इस मुलाकात ने मेरी राजनीतिक शिक्षा की विधिवत शुरूआत की।सव्यसाची ने उस कार्यक्रम में बहुत अच्छा भाषण दिया,मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ,बाद में उनसे मिला, तो बोले कुछ किताबें जरूर पढो।मैंने पूछा क्या पढूँ,बोले हावर्ड फास्ट का ´आदिविद्रोही´ उपन्यास पढ़ो।संभवतःयह मेरे जीवन की पहली क्रांतिकारी किताब है जिसे मुझे सव्यसाची ने पढ़ने को दिया उसके बाद,हावर्ड फास्ट का ही ´समरगाथा´ उपन्यास दिया,इसके बाद ´सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास´ दिया,बाद में रोदेरिजो रोखास के लिखे चिली के फासिस्टों के अत्याचार की कहानी की किताब ´चिली के सरफरोश´दी। मैंने करीब से देखा कि सव्यसाची ने तकरीबन सभी युवाओं को ´आदिविद्रोही´ उपन्यास पढ़ने को दिया। हम जितने युवालोग सव्यसाची के साथ काम करते थे सभी ने ´आदिविद्रोही´ पढ़ा था, इसके अलावा गोर्की का ´माँ ´ उपन्यास भी पढ़ा था।संभवतः ´आदिविद्रोही´ ने हम सबको वैकल्पिक संस्कार दिए, प्रतिवाद की भाषा दी,जनता के साथ लगाव रखने और जनता से प्रेम करने का संस्कार दिया।

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

ग्राम्य -बर्बरता और गाली


फेसबुक पर कुछ लोग गजब तर्क दे रहे हैं,कह रहे हैं गालियों को धर्म के साथ न जोड़ें,हम यही कहेंगे धर्म के साथ जाति,रोटी,बेटी,नौकरी,हैसियत सब जुडी है फिर गाली ने ऐसा खास क्या किया है कि धर्म से काटकर गालियों को देखा जाए !
गाली देने वाले किस धर्म को मानते और जानते हैं,इससे स्वभावतःधर्म के साथ गालियां भी जुड़ेंगी।इससे भी बड़ा सवाल यह है कि जब राजनीति में गालियों के बिना संप्रेषण संभव है तो गालियां क्यों दी गयीं ?
फेसबुक पर बिना गालियों के बातें कह सकते हैं तो मोदीभक्त गंदी-गंदी गालियां क्यों लिखते हैं ?निश्चित तौर पर उनके संघ प्रतिपादित हिन्दू धर्म में गालियां परिशिष्ट के रूप में सिखाई जाती हों !
इसके विपरीत पश्चिम बंगाल में सबसे पिछड़े इलाके में भी आम लोग अशिक्षित लोग गालियां देकर बातें नहीं करते।गालियां समाज में से कैसे जाएं इस पर हमने सोचा ही नहीं।
हिन्दी के पब्लिक कम्युनिकेशन में गालियां जिस पर तरह प्रचलन में हैं कम से कम बंगला में यह सब नहीं है।बंगाली कभी आपस में बातें करते हुए गालियां नहीं देते,कलकत्ते में बात करते लोग देखें वे आमतौर पर गालियां नहीं बोलते,फिर हिन्दी में ही गालियां क्यों हैं ?
मैं नहीं जानता सच्चाई क्या है लेकिन लगता है हिन्दीभाषी मोदीभक्त फेसबुक पर गालियां ज्यादा देते हैं,उसी तरह आरएसएस से जुड़े संगठनों के हिन्दीभाषी नेता भी सार्वजनिकतौर पर आए दिन गालियां देते रहते हैं।
जंगली बुद्धि में गालियां रहती हैं,बुद्धि का यह रूप कहीं पर भी हो सकता है,लेकिन वहां पर इसका विकास ज्यादा होता है जहां पर ग्राम्य-बर्बरता बची हुई है।हिन्दीभाषी क्षेत्र में ग्राम्य-बर्बरता के खिलाफ हमने कोई जंग नहीं लड़ी,इसके विपरीत रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का सबसे बड़ा योगदान था कि उन्होंने ग्राम्य-बर्बरता के खिलाफ जंग लड़ी और उसे ध्वस्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी,हिन्दीभाषी क्षेत्र में ऐसा कुछ भी न हो सका।बंगाल गालियों से मुक्त हो गया,लेकिन हिन्दीभाषी मुक्त न हो सके।हिन्दीभाषी क्षेत्र में गाली वाला नायक है,बंगला में एकदम नापसंद किया जाता है,उससे लोग नफरत करते हैं।ममता के खिलाफ माकपा के कई नेताओं ने गंदी गालियों का प्रयोग किया था वे नेता और माकपा आज कूड़े के ढ़ेर पर पड़े हैं।


हिन्दू समाज शर्मनाक समाज


                हमारा हिन्दू समाज शर्मनाक समाज है जिसमें औरतों , दलितों और मुसलमानों को सरेआम शिक्षित लोग मीडिया से लेकर फेसबुक तक अपमानित करने वाली भाषा का इस्तेमाल करते रहते हैं।इससे पता चलता है कि शिक्षितों के अंदर हमने किस तरह के असभ्य मनुष्य का निर्माण किया है।

हम कितने संस्कृतिहीन "हिन्दू "हैं कि जिन हाथों से दुर्गापूजा करते हैं उन्हीं हाथों से स्त्री को घर में आकर मारते हैं।जिस मुख से दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं उसी मुख से मादर ...बहिन ...बोलने में एक क्षण का विलम्ब नहीं करते। यहाँ तक कि औरतों को भी गालियों से अपमानित करते रहते हैं। औरतों को दी जाने वाली सबसे बर्बर गाली रंडी है जिसे विभिन्न भाषायी पदबंधों में सजाकर देते हैं। स्त्री के विभिन्न अंग -प्रत्यंगों को लेकर गालियाँ हिन्दुओं की संस्कृति और जनप्रिय भाषा का अभिन्न हिस्सा रही हैं,और आज भी हैं! इन सब पर संसद से लेकर सड़क तक कभी हल्ला नहीं सुना गया लेकिन आज मायावती ने संसद में दयाशंकर का मामला उठाकर शानदार काम किया है।उन्होंने कम से कम औरत के मान -सम्मान की रक्षा की है।ये वे हिन्दू हैं जो औरत को नागिन कहते हैं! डायन कहते हैं! हम उनके नजरिए पर कभी बात ही नहीं करते! हम फिर भी कहते हैं हिन्दूधर्म महान है! शर्म आनी चाहिए हिन्दू होने पर जिसमें औरत के नाम से सबसे घटिया भाषा का इस्तेमाल करते हुए हर पुलिस वाला और हर लठैत औरत के नाम पर आए दिन माँ- बहिन की करता रहता है।

औरत को कलंकित करना हिन्दू परंपरा का अभिन्न हिस्सा रहा है। औरत को हिन्दुओं ने अंत में औरत नहीं रहने दिया बल्कि गाली में तब्दील करके रख दिया है। यह हिन्दूधर्म का सबसे बर्बर रूप है।हमने आज तक एक भी पुलिस वाले को माँ की गाली देने के लिए नौकरी से नहीं निकाला! हम महान हिन्दू हैं! हम गर्वित हैं हमारे यहाँ औरत अब एक गाली है! औरत को जिस हिन्दू के गाली बनाया होगा वह जरूर कोई तपस्वी रहा होगा!

वह अकेला संगठन नहीं है जिसकी ज़ुबान से बार- बार वेश्या या रंडी शब्द निकलता है। वे हर औरत में वेश्या के अलावा और कोई चीज़ नहीं देखते, इसे कहते हिन्दुत्ववादी दृष्टि ! वह उनके लिए पहले भी भोग्या थी,आज भी भोग्या है। यह वह दृष्टि है जो बार-बार विभिन्न व्यक्तियों के श्रीमुख से निकलती रहती है। जेएनयू को कलंकित करने के लिए संघ समर्थक शिक्षकों ने जेएनयू पर महान जाँच रिपोर्ट जारी की जिसमें जेएनयू की छात्राओं का नामकरण वही किया जो दयाशंकर कह रहे हैं, और वह राजस्थान का बदनाम विधायक याद करें, रवीश कुमार से लेकर बरखादत्त तक को किसी न किसी रूप में "रंडी" पदबंध से कलंकित किया गया।असल में यह संघ की प्रतिगामी विचारधारा की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है।इनके लिए औरत तो भ्रष्ट होती है।औरतों को कलंकित करने के लिए हिन्दू ग्रंथों में किस तरह की उपमाएँ प्रचलित हैं ज़रा उनको याद करें फिर संघ के नेताओं के स्त्री विरोधी बयानों की परीक्षा करें!

जिस समाज में औरत को रांड और रंडी कहने का चलन हो वह हिन्दू समाज गर्व की नहीं शर्म की चीज है।दूसरी बात यह मोदीजी ! गालियां जब इतनी ही बुरी हैं तो आपने दयाशंकर के खिलाफ एफआईआऱ दर्ज कराने का भाजपा को आदेश क्यों नहीं दिया ? दयाशंकर के बोलने के तत्काल बाद पहले ही एक्शन क्यों नहीं लिया ? कमाल है !आप भी दयाशंकर से डरते हैं !आपको भी एक्शन लेने के लिए मायावती के सहारे की जरूरत पड़ी!मायावती प्रतिवाद नहीं करतीं तो आप क्या दयाशंकर के खिलाफ एक्शन लेते ? हम जानते हैं आपको गालियां प्रिय हैं,हर हिन्दू को गालियां प्रिय हैं,वे उनको मंत्रों की तरह पवित्र मानते हैं।

संघी हिन्दुत्व के निशाने पर तीन समुदाय रहे हैं ,पहला, मुसलमान, दूसरा दलित,तीसरा औरत। इन तीनों समुदायों के खिलाफ हिन्दुत्ववादी संगठन लंबे समय से मुहिम चलाते रहे हैं। इस समय गो आंदोलन और कश्मीर जंग के नाम पर दलितों और मुसलमानों के खिलाफ संगठित हमले किए जा रहे हैं। यह बेहद गंभीर संकट की अवस्था है , देश में दलित और अल्पसंख्यक बटुक संघ के हमलों के शिकार बन रहे हैं।

आरएसएस का गऊ आंदोलन किस तरह गरीब विरोधी और दलित विरोधी है यह गुजरात में दलितों के प्रतिवाद आंदोलन ने एक्सपोज कर दिया है।यह आंदोलन सिर्फ गुजरात तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि पूरे देश में फैलेगा,मोदी सरकार को तुरंत घोषणा करनी चाहिए कि आरएसएस के लोग गऊ के नाम पर आम जनता को सताना बंद करें। एक ओर गऊ को उद्योग की तरह हिन्दू इस्तेमाल कर रहे हैं और दूसरी ओर गरीबों पर हमले कर रहे हैं,असल में गऊरक्षा का सवाल भाजपाईयों की कमाई और बहुराष्ट्रीय मांस उद्योग के हितों की रक्षा से जुड़ा है,यह दलित,गरीब और विकास विरोधी है।



असल में , मोदीजी के विकास का डीजल खत्म हो गया है,अब भाजपा राष्ट्रवाद के नाम पर देश में मुहिम चलाएगी। चरित्र हनन की मुहिम चलाएगी।राष्ट्रवाद के आने का अर्थ है विकास का अंत और तनावों के सिलसिले की शुरूआत।सावधान मित्रो,राष्ट्रवाद देश के लिए जहर है,प्रेमचन्द और रवीन्द्रनाथ टैगोर तक ने राष्ट्रवाद को देश के लिए नुकसानदेह माना था लेकिन मोदीजी,भाजपा और आरएसएस अब उसी विनाशकारी प्रचार के लिए निकलने की तैयार कर रहे हैं,हम सबकी जिम्मेदारी है कि राष्ट्रवाद की आड़ में आ रहे इस फासीवादी प्रचार अभियान को बेनकाब करें।

राजनाथ सिंह की वाचिक हिंसा

      कल संसद में गुजरात में दलितों के प्रतिवाद के विरोध में गृहमंत्री राजनाथ सिंह का भाषण सुनकर लगा कि हमारे देश में इस तरह का संवेदनहीन गृहमंत्री होगा यह तो कभी सोचा ही नहीं था,सत्ता में रहने का तकाजा है कि मोदी एंड कंपनी के लोग विनम्रता से सामाजिक जीवन में घट रही गलतियों को बिना हील-हुज्जत के मानें और विनम्रता के साथ कार्रवाई का आश्वासन दें ,लेकिन वे ऐसा नहीं कर रहे ,उलटे दलितों पर हो रहे हमलों की प्रच्छन्नतः हिमायत कर रहे हैं, राजनाथ कह रहे थे कि पहले भी अत्याचार हुए हैं आंकड़े देखो,गुजरात में कम हो रहे हैं।शर्म आनी चाहिए इस तरह के वाक्य मुंह से कैसे निकलते हैं !

वर्तमान के अपराधों को वैध ठहराने के लिए हर शैतान अतीत का सहारा लेता है,आरएसएस का यही पैंतरा है।चूँकि पहले यह हुआ था इसलिए आज यह हो रहा है।यह आपराधिक भाषा है राजनाथ सिंह ! दूसरी बात यह आँकड़े बिकिनी की तरह होते हैं,वे अपने आप नहीं बोलते,उनको जैसे बोलने को कहोगे वे वैसा ही बोलेंगे।

राजनाथ सिंह जी! यथार्थ देखो खुलेआम आरएसएस के लोग विभिन्न क्षेत्रों में दलितों और औरतों को निशाना बनाते रहे हैं।

राजनाथजी! सच ताक़तवर होता है , आँकड़े बेजान होते हैं, सच बेजान नहीं होता। आँकड़ों के ज़रिए न तो बहस जीत सकते हो और नहीं दलितविरोधी बटुकसंघ को बचा सकते हो!



बुधवार, 20 जुलाई 2016

फेसबुक सूक्तियाँ




नियमित अच्छी चीजों को पढ़ने की आदत होनी चाहिए।नियमित रीडिंग बेहतर इंसान बनाती है।

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मनुष्य के अंदर का खालीपन सिर्फ दो चीजों से भरा जा सकता है ,वह है प्रेम और त्याग ।

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जो धर्म भय पैदा करे वह धर्म नहीं है,धर्म वह है जो अभय दे।

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रामचरित मानस में रचित राम को एक ही चीज पसंद है प्रेम।प्रामाणिक प्रेम प्रसन्नता का जनक है।

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सत्य के लिए आक्रामकता नहीं त्याग और विनम्रता चाहिए।

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सत्य को धैर्य के बिना नहीं पा सकते।वह स्वाभाविक चीज है।

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सद्गुरू सबसे समर्थ वैद्य है।

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श्रद्धा का स्थान फेसबुक नहीं मनुष्य का हृदय है।

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मानव समाज में विचारों का दान श्रेष्ठ दान है।

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अभिभावक के बिना लड़का-लड़की की पहचान होती है,जब पहचान होती है तो फिर हर जगह अभिभावक का नाम क्यों लिखते हो,सीधे नाम लिखो पता लिखो,बंदे के बारे में विवरण लिखो,अभिभावक पिता होगा या माँ,इन दोनों के दबाव से व्यक्ति की पहचान को निकालना चाहिए।व्यक्ति को व्यक्ति की तरह देखो,वंशधर की तरह नहीं।

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ग़ज़ब का फिल्मीगेम है ये फ़िल्म में हीरो -हीरोइन दोनों होते हैं लेकिन खबर बनती है सलमान की फ़िल्म हिट! अमीर की फ़िल्म हिट! कभी अनुष्का का भी नाम ले लिया करो मीडियावालो।हीरोइन के बिना फ़िल्म नहीं बनती फिर प्रचार में हीरो का ही जयगान क्यों ?

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मुख्य न्यायाधीश टी एस ठाकुर ने व्यंग्य करते हुए कहा "आखिर शादी के लिए जितनी पूछ आईएएस, इंजीनियर, डॉक्टर आदि अन्य

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पेशों के युवकों की है उतनी पूछ वकीलों की क्यों नहीं है? ऐसा इसलिए है क्योंकि आईएएस, इंजीनियर और चिकित्सक बनना उतना आसान नहीं है लेकिन जो देखो वही वकील बन जाता है। शायद यही कारण है कि शादी के लिए वकीलों की पूछ नहीं होती है।’

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ठठेरेबाजी और नॉनसेंस भाषा को एमटीवी आदि टीवी चैनल ने रियलिटी शो का अनिवार्य अंग बनाकर रद्दी को मुनाफे में बदल दिया है। आज के युवाओं को इस तरह के रियलिटी शो की तू-तड़ाक की भाषा प्रभावित कर रही है।

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मैं गंभीर लोगों से डरता हूं।मुझे गंभीरता नहीं व्यंग्य पसंद है।

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आत्मा,परमात्मा,अन्तर्मन,अंतर्दृष्टि,परमपिता,परम तत्व,परम,अन्तरात्मा आदि पदबंध अप्रासंगिक हो गए हैं।

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मेरे लिए फेसबुक खेल है और खेल में सूरदास के अनुसार- खेलन में को काकों गुसईंया। यानी सब समान हैं।

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किसी भी कला का ज्ञान मनुष्य को बूढा नहीं होने देता।

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धर्म पुरानी जीवन संहिता है,संविधान नई जीवन संहिता है। तय करो किस ओर हो तुम।

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सही ज्ञान वह है जो मनुष्य को सही-गलत की पहचान कराए।

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तर्क में परास्त करना सबसे घटिया चीज है,इससे आनंद नष्ट होता है।सुंदर तर्क वह है जो संवाद में खींचे,संवाद खुला रखे।

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बौद्ध धर्म की सबसे बड़ी कमजोरी है उसकी पुनर्जन्म की धारणा में आस्था।

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अंतर्दृष्टि जैसी कोई चीज नहीं होती।

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महाभारत तो कुरूक्षेत्र के बिना लिखा गया।

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पवित्रता सबसे घटिया शब्द है,इसने सबसे ज्यादा पीड़ित किया है।

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मोक्ष का मतलब मरना नहीं है, मोक्ष का मतलब मोह रहित सावधानी से जीना है।

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जो धर्म मातहत भाव का प्रचार करे वह धर्म नहीं अधर्म है।

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जिस तरह दुख की कोई सीमा नहीं होती,उसी तरह सुख की भी कोई सीमा नहीं है।

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विवेकहीन भक्ति और प्रेम अंततःदुख देते हैं।

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भक्ति और प्रेम में विधि निषेध नहीं होते,बल्कि सभी किस्म के विधि निषेधों का अंत हो जाता है।

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दुनिया से विरक्ति पैदा कर दे वह गुरू नहीं बल्कि दुनिया को समझाए वह है गुरू।

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व्यक्ति के विकास के लिए एकांत जरूरी है।

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आधुनिक धार्मिक प्रचारक इन दिनों धर्म-चर्चा कम राजनीतिक और व्यापारिक चर्चाएं ज्यादा करते हैं।इनमें से अधिकांश के साथ कारपोरेट घरानों में से कोई न कोई बंदा काम कर रहा है।धर्म इन सबके कारण अधर्म में रूपान्तरित हो गया है।धर्म यदि धर्म का मार्ग छोड़कर अन्य मार्ग ग्रहण कर ले तो समझो धर्म का अंत हो गया .वह राजनीति बन गया।दिलचस्प बात यह है कि इन नए धर्म प्रचारकों को टीवी बहुत पसंद है,बिना टीवी के इनके विचारों का प्रसार नहीं होता।टीवी से धर्म का प्रचार धर्म को धर्म नहीं रहने देता,बल्कि राजनीतिक बनाता है।

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सेना के लिए नई सोशलमीडिया नीति



भारत सरकार सेना के लिए नई सोशलमीडिया नीति लेकर आई है।यह नीति 2015 की नीति की तुलना में काफी उदार है।अब सेना के लोग खुलकर सोशलमीडिया का इस्तेमाल कर पाएंगे।उनको अपने पद,मूवमेंट,सेना के ऑपरेशन आदि की सोसलमीडिया में जानकारी शेयर न करने को कहा गया है।
‘Policy on Usage of Social Media’ नामक नीति में कहा है-
“The Rules suggested that serving officers and jawans of the Army can have media account on their name provided that the account holder doesn’t mention anything about his services including rank, place of posting, Unit and Corps etc. They will not upload photographs or videos or make comments while inter-acting on social media, which mentions specific information, unit or establishment,”
“As a general parameter, conduct which will be unacceptable in physical domain in the Army will also be unacceptable in the Cyber/ Social Media domain,”
“Indian Army recognizes the positive potential of social media platforms as exponentially faster means of conveying messages, information and opinions, important role the social media can play for the Army personnel in their personal life for keeping them in touch with their families and friends and in building a cohesive Indian Army Community while upholding its image as a disciplined and professional citizens.
“The social media can also serve as instrument for promoting national security and its values in mass internal communications for building, raising and sustaining morale of all ranks within the Army,”

नई नीति बुरहान वानी के सोशलमीडिया हीरो बनने के संदर्भ में लाई गयी है।खासकर जम्मू-कश्मीर में तैनात सेना को इससे मदद मिलेगी,अन्य इलाकों में काम करने वाले सैनिक भी लाभ उठा पाएंगे।

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मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...