बुधवार, 5 मई 2010

कार्ल मार्क्स के जन्मदिन पर विशेष- जनतंत्र में मार्क्सवाद और उत्तर-मार्क्सवाद



              आलोचना में जनतंत्र का अर्थ है खोज अथवा अनुपलब्ध अथवा अदृश्य सत्य को पाना। एकाधिक अर्थ की खोज करना। सत्य एक नहीं अनेक है, इस तत्व को रेखांकित करना। जनतंत्र को आलोचना में पाने का अर्थ है मार्क्सवाद या किसी भी विचारधारा विशेष के परे जाकर सोचना और देखना। इसका अर्थ यह नहीं है कि मार्क्सवाद के आधार पर हम जनतंत्र के बारे में सोच नहीं सकते,बल्कि सच यह है कि मार्क्सवाद में जनतंत्र का सैद्धान्तिक विमर्श तैयार ही नहीं हुआ। स्वयं मार्क्स-एंगेल्स ने भी कभी जनतंत्र के बारे में विस्तार से सोचा नहीं था, मानवाधिकारों के बारे में सोचा नहीं था। सारी दुनिया में मार्क्सवाद ने आलोचना में जनतंत्र का विकास इतिहास और परंपरा के साथ संवाद करते हुए किया है। मार्क्सवादी आलोचकों ने परंपरा से संवाद करते हुए कठमुल्ला अथवा प्राचीनतापंथी आलोचना की इस धारणा को चुनौती दी है कि परंपराएं 'टाइमलेस' होती हैं।
        इधर तीस सालों से समाजवाद के खिलाफ वैचारिक अंधड़ चल रहा है,इसके कारण मार्क्सवादी आलोचना के प्रति संशय का भाव और अप्रासंगिकता की बातें तेज हो गई हैं। इस संदर्भ में सबसे प्रमुख तर्क क्या हैं ? मार्क्सवादी मानते रहे हैं समाजवाद इतिहास का एकीकरण है।
          यह विचार अनेक लोगों को भयभीत करता रहा है।भयभीत लोगों के लिए सर्वसत्ताकरण (टोटलाइजेशन) और सर्वसत्तावाद (टोटेलिटेरिनिज्म) किसी चीज के लिए प्रयुक्त एक ही जैसे शब्द हैं,वे मार्क्सवाद को सर्वसत्तावादी कहकर कलंकित करते रहे हैं,जबकि सच यह है मार्क्सवाद सबको एकजुट करके रखने वाली और पूंजी संचय के रूपों को विकेन्द्रित करने वाली शक्ति है। आलोचना में मार्क्र्सवाद की बहस को हमें सिर्फ मार्क्सवाद तक सीमित नहीं रखना चाहिए,बल्कि उत्तर-मार्क्सवाद तक ले जाना चाहिए। उत्तर-मार्क्सवाद का अर्थ मार्क्सवाद का अस्वीकार नहीं है,बल्कि उत्तर-मार्क्सवाद तो मार्क्सवाद की समझ का नए परिदृश्य में सर्जनात्मक विकास है।
        उत्तर- मार्क्सवाद का दूसरा आयाम यह है कि मार्क्सवाद के एकाधिक रूपों की स्वीकृति। जिस तरह लोकतंत्र बहुलतावादी है उसी तरह मार्क्सवाद भी एक नहीं है बल्कि सारी दुनिया में बहुलतावादी मार्क्सवाद है। इसमें विकास की ज्यादा संभावनाएं हैं। मार्क्सवाद में बहुलतावाद का आना मार्क्सवाद के लोचदार होने का प्रमाण है इसे मार्क्सवाद से विचलन न समझा जाए। मार्क्सवाद एक नहीं अनेक है। जिस तरह यथार्थ एक नहीं अनेक है।
         लोकतंत्र के विकास ने एकायामिता के सभी रूपों को चौतरफा बदलने के लिए मजबूर किया। बहुलतावाद हमारी मार्क्सवाद संबंधी संकुचित धारणाओं से मुक्ति दिलाने में मदद करता है।जब आप मार्क्सवाद की निर्धारित परंपरा के प्रति सवाल खड़े करते हैं तो उत्तर-मार्क्सवाद की कोटि में स्वत: ही पहुँच जाते हैं। मसलन् इस परंपरा में 'ग्रीन मूवमेंट' के लोग आते हैं,ये वे लोग हैं जो मार्क्सवाद की 'प्रकृति के स्वामित्व' की को चुनौती देते हैं,इस परंपरा के निर्माताओं में रूडोल्फ बारो,आन्द्रे गुर्ज,क़ोहेन-बेनडिट आदि आते हैं। इन लोगों ने साठ के दशक से आंदोलन चलाया और लाल को हरा बनाया।
          यही बात ब्रिटिश सांस्कृतिक स्टैडीज के लोगों के बारे में कही जा सकती है,इन्होंने परंपरागत मार्क्सवाद से आगे जाकर राज्य की अधिरचनाओं और उप-संस्कृतियों का अध्ययन किया,यही बात स्त्रीवादी और उत्तर-संरचनावादी सैद्धान्तिकी के बारे में कही जा सकती है। इन दोनों सैद्धान्तिकियों के जरिए मार्क्सवाद के अंदर निहित पूर्वाग्रहों खासकर पितृसत्ता और यूरो-केन्द्रिकता का विरोध किया गया। उत्तर -संरचनावाद के तहत अनेक किस्म का मार्क्सवादी लेखन सामने आया है, जिसके कारण आलोचना का जनतंत्र समृध्द हुआ है।
        आलोचना में लोकतंत्र 'जानने' की प्रक्रिया में समृद्ध होता है,'जानने' के क्रम में ही मार्क्सवाद के बारे में भी सवाल उठाए गए और मार्क्सवाद को चुनौती दी गयी।यहां तक कि 'सैद्धान्तिकी' के प्रति भी सवाल उठे हैं। यह काम संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद ने किया। 'जानने' की धारणा के आधार पर ही उत्तर-संरचनावादियों ने 'इम्पीरिसिज्म' को चुनौती दी, इसके जरिए विज्ञान ,वस्तुगतता तटस्थता और साम्राज्यवादी शक्ति के अन्तस्संबंध की खोज की गई।
        मार्क्सवादी विचारकों का मानना था दुनिया बदल सकती है किंतु मार्क्सवाद नहीं बदलेगा। यह मार्क्सवाद के प्रति गैर मार्क्सवादी नजरिया है। स्वयं मार्क्स का मानना था दुनिया में सब कुछ परिवर्तनीय है यदि कोई चीज अपरिवर्तनीय है तो वह है परिवर्तन का नियम। मार्क्सवाद में से परिवर्तन के नियम को निकालकर हमने मार्क्सवाद को अचल बना दिया,अपरिवर्तनीय बना दिया। मार्क्सवाद पर पिछले पचास सालों में जो हमले हुए हैं उनमें यह भी कहा गया मार्क्सवाद रिडक्शनिज्म है,फंक्शनलिज्म है,एशेंसियलिज्म है, यूनीवर्सलिज्म है। ये सारे वर्गीकरण सही नहीं हैं। मार्क्सवाद विज्ञान है और जीवन को बदलने का विज्ञान है।
         यह कहना भी सही नहीं है कि मार्क्सवादी नजरिया सिर्फ मजदूर वर्ग या सिर्फ वर्गों का ही मूल्यांकन करता है, मार्क्सवाद का अर्थ वर्गवाद नहीं है।बल्कि वह तो इसका विलोम है। इसी तरह आर्थिक उत्पादन के रूपों का अध्ययन करना ही मार्क्सवाद नहीं है,बल्कि मार्क्सवाद (फंक्शनलिज्म) इसका भी विलोम है। मार्क्सवाद अंश पर समग्रता में ही विचार करता है।
        मार्क्सवाद मजदूरवर्ग के बारे में पूंजीवाद के समग्र परिप्रेक्ष्य में विचार करता है,मजदूरवर्ग उस संरचना का हिस्सा है जिसमें वह काम करता है और जीता है, इसी तरह इस सैद्धान्तिकी में सार्वभौमत्व हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता,मार्क्सवाद यदि सार्वभौम होता तो प्रत्येक देश में कई रूपों में मार्क्सवाद नहीं होता। जिस तरह मार्क्सवाद के विरोधी एक-जैसे नहीं हैं,उसी तरह मार्क्सवाद भी एक जैसा नहीं है,उसमें सार्वभौम जैसा कोई तत्व नहीं है,जो चीज सार्वभौम है वह है दुनिया को बदलने का नजरिया। सभी रंगत के मार्क्सवादी यही चाहते हैं कि पूंजीवादी दुनिया से मुक्ति मिलनी चाहिए।
       मार्क्सवाद विरोधियों के बारे में हमें यह तथ्य सब समय ध्यान रखना चाहिए कि इनमें अधिकांश ऐसे हैं जो मार्क्सवाद की परंपरा से एकदम अनभिज्ञ हैं।वे माक्र्सवाद का सरलीकरण करते हैं ,योजनाबद्ध बनाते हैं और फिर उसका विरोध करते हैं। मार्क्सवाद की केन्द्रीय विशेषता है कि वह वर्ग सचेतनता पर जोर देता है। जब वे वर्गसचेतनता पर जोर दे रहे होते हैं तो स्वाभाविक रूप से वर्ग से जोड़ रहे होते हैं। मार्क्सवाद का दूसरा महत्वपूर्ण आयाम यह है कि इसका बार-बार नए सिरे से मूल्यांकन करने की जरूरत होती है,मार्क्सवाद स्थिर या जड़ विचारधारा नहीं है। इसका बदली हुई परिस्थितियों में पुनर्मूल्यांकन किया जाना जरूरी है,इसके कारण ही मार्क्सवाद अपने को समृद्ध करता है,ज्यादा यथार्थपरक बनाता है,जनतंत्र के ज्यादा करीब आता है। स्थिर मार्क्सवाद स्वभावत: जनतंत्र को स्वीकार नहीं करता,उसके लिए किताबें वेदवाक्य हैं,नेता या पार्टी के बयान अंतिम सत्य हैं, मार्क्सवाद के प्रति इस तरह का सोच न तो वैज्ञानिक है और न जनतांत्रिक है।
         आलोचना में जनतंत्र के विकास के लिए जरूरी है असहमति, सामंजस्य और सह-अस्तित्व। इन तीनों के बिना आलोचना में जनतंत्र का वातावरण नहीं बनता। जिस समाज में असहमति का सम्मान और संरक्षण नहीं होता ,वह समाज बिखर जाता है। कई समाजवादी देशों में मार्क्सवाद के जो प्रयोग बिखर गए उनका प्रधान कारण है इन तीनों चीजों का अभाव । जिस तरह बुर्जुआ समाज में जनतंत्र जरूरी है,असहमति जरूरी है और सह-अस्तित्व जरूरी है। उसी तरह यह भी ध्यान रहे मार्क्सवाद मुकम्मल ज्ञान नहीं है, ऐसा ज्ञान नहीं है जिसके बारे में दुबारा सोचा न जाए। इसके विपरीत मार्क्सवाद विकासशील ज्ञान-विज्ञान है,विभिन्न देशों में अलग-अलग रूपों में इसकी व्याख्या हो रही है और अलग-अलग ढ़ंग से इसे लागू किया जा रहा है।





















































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