शनिवार, 15 मई 2010

बलिहारी माओवाद की



         सच मानिए मैं माओवादियों की हिंसा को लेकर जितना नाराज था आज वैसे नाराज नहीं हूँ। माओवाद के लिए अनेक लोग तरह-तरह की बातें करते हैं, निंदा करते हैं ,लेकिन आज मैं माओवादियों पर खुश हूँ और उनके पौरूष पर बलिहारी हूँ कि उनकी वजह से सैंकड़ों-हजारों घरों में कम से कम चूल्हे तो जल रहे हैं।
     मंत्री से लेकर कॉस्टेबिल तक ,गांव के गरीब से लेकर हथियार सप्लाई देने वालों तक सभी को उनके कारण धंधा मिला है। सबको माओवादियों के नाम पर खाने कमाने का मौका मिला है। कल तक बुर्जुआ राज्य का पैसा वे हराम मानते थे। अब उनके पास बुर्जुआ पंचायतों के कई हजार करोड़ रुपये विकास के नाम पर पहुँच रहे हैं। अकेले झारखण्ड में दो हजार करोड़ रुपये सीधे माओवादियों के क्रांतिकारी कोष में पहुँच रहे हैं। इससे यह भी सीखने को मिला है कि बुर्जुआ कोष और माओवादी क्रांतिकारी तिजोरी में ज्यादा दूरी नहीं होती है।   
       माओवाद का सबसे बड़ा लाभ तो विकास उद्योग को हुआ है। विकास उद्योग से जुड़ा समूचा पूंजीवादी खेमा सीआईआई के बैनर तले उन इलाकों की ओर जाने वाला है जहां पर माओवादी सक्रिय हैं।
     यानी सुदूर आदिवासी अंचलों में भारत के कारपोरेट घराने स्कूल बगैरह खोलने जा रहे हैं। विकास का धंधा करने जा रहे हैं।  केन्द्र सरकार ने भी माओवाद प्रभावित इलाकों में विकासकार्यों पर खर्चा करने लिए अरबों-खरबों की योजनाएं बनायी है। ये माओवादी न होते तो ये योजनाएं और बड़े पूंजीपति आदिवासियों के विकास की बातें ही नहीं करते और परवर्ती पूंजीवादी विकास उद्योग माओवाद प्रभावित अंचलों की ओर जाने के बारे में सोचता तक नहीं।  
       मनमोहन सरकार को नींद से जगाने और सुरक्षा उपकरणों की खरीद पर व्यापक ध्यान देने की जरुरत ही तब महसूस हुई जब माओवाद ने 136 जिलों में पैर फैला लिए। इससे सुरक्षाबलों को नए और अत्याधुनिक हथियार मिले हैं। माओवादी न आए होते तो अत्याधुनिक हथियारों की जरुरत भी महसूस नहीं होती। इस चक्कर में हजारों युवाओं को आतंक विरोधी दस्तों में कम से कम नौकरी तो मिली, ये नौजवान शिक्षक तो नहीं बन पाए लेकिन पुलिसवाले तो बन गए।
    माओवाद प्रभावित इलाकों में स्कूल,कॉलेज, चिकित्सा आदि की सामान्य व्यवस्था से शांति बनाए रख सकते थे, वहां 50 हजार अर्द्धसैन्यबलों को धंधे पर लगा दिया गया है। यदि इतने ही शिक्षक,डाक्टर,सरकारी कर्मचारियों को माओवाद प्रभावित इलाकों में विकास कार्यों पर नौकरी पर लगा दिया गया होता तो माओवाद का विस्तार ही नहीं होता।
      मैं माओवादियों से इस कारण बेहद खुश हूँ कि उन्होंने सभी किस्म की नैतिकता को नष्ट करके हिंसा को वैध ,‘क्रांतिकारी’ और ‘पवित्र’ बनाया है। हिंसा के मामले में माओवादी अपराधी गिरोहों के दादागुरु हैं। इलाका दखल में दाऊद इब्राहीम के बड़े भाई हैं। 136 जिलों में समानान्तर व्यवस्था स्थापित करके उन्होंने समानान्तर अर्थव्यवस्था चलाने वालों को अचम्भित कर दिया है।
    वे इस मायने में उत्तम हैं कि उन्होंने दलाली और जबरिया धन वसूली को क्रांतिकारी कार्यक्रम का हिस्सा बनाया है। माओवादियों की चौथ वसूली ने माफिया और अपराधी गिरोहों को ‘क्रांतिकारी’ बनने का मार्ग दिखाया है।
     बुर्जुआजी के नकली आंसुओं को देख देखकर हम बोर हो गए थे। माओवादी हिंसाचार ने अब नकली आंसू तो बंद करा ही दिए साथ ही अब माओवादियों से पीडि़त किसी भी व्यक्ति के असली आंसू भी नजर नहीं आते।
    पहले माओवादियों की कोई भी मीडिया सामान्य प्रेस रिलीज तक नहीं छापता था ,अब खोज खोजकर माओवादियों की खबरें छापते हैं। माओवादी नेताओं के टीवी से लाइव साक्षात्कार दिखाए जा रहे हैं। यह मीडिया का माओ प्रेम उत्तम है।
     मैं खुश हूँ कि माओवादी क्रांतिकारियों और कारपोरेट मीडिया में भाईचारा बढ़ा है। कारपोरेट मीडिया के लिए माओवाद अस्पृश्य नहीं रह गया है। माओवादियों के लिए भी कारपोरेट मीडिया अस्पृश्य नहीं है। धन्य है कारपोरेट मीडिया और माओवाद का भाईचारा।
     पहले पूंजीपति से पैसा लेना और प्रतिष्ठानी मीडिया में छपना माओवादी बुरा मानते थे।  कारपोरेट मीडिया में छपने वाले की निंदा करते थे । बड़ी पूंजी को हिकारत की नजर से देखते थे आज किंतु ऐसा नहीं है पूंजीपतियों से नियमित चौथ वसूली माओवादी क्रांतिकारियों की आदर्श गतिविधि है।
    पुलिस ऑपरेशन से पहले अकेले लालगढ़ में प्रतिमाह 90 लाख की चौथ वसूली माओवादी करते थे। झारखण्ड की खानों से प्रति खान 15-25 प्रतिशत की क्रांतिकारी चौथ वसूली के दस्तावेज मधुकोड़ा के यहां छापों में मिले हैं।
    माओवादियों के पास पहले धन का अभाव था आज इतना पैसा है कि खर्च नहीं कर पा रहे हैं। आज माओवादियों की मंथली पगार पर क्रांतिकारी सैनिकों से लेकर बुद्धिजीवियों की पूरी फौज काम कर रही है। मैं खुश हूँ कि कम से कम पूँजी की गुलामी को माओवादियों ने अपने क्रांतिकारी क्रार्यक्रम का हिस्सा तो बनाया। 
      माओवादी पहले पूंजीवादी उपकरणों का विरोध करते थे लेकिन अब अत्याधुनिक बुर्जुआ संचार उपकरणों से लेकर मशीनगन तक का इस्तेमाल करने में उन्हें परेशानी नहीं होती।
     पहले वे पेटी-बुर्जुआ और बुर्जुआ लेखकों से परहेज करते थे लेकिन इन दिनों उन्हें अरुंधती राय से लेकर मेधा पाटकर तक सभी बुर्जुआ पैसे से जीने वाले लेखकों ,स्वयसेवकों और बुद्धिजीवियों में क्रांतिकारी संभावनाएं नजर आ रही हैं। वे उन्हें पहले डि-क्लास करने की सोचते थे अब स्वयं माओवादियों ने अपना स्तर क्रांतिकारी से बुर्जुआ की ओर मोड़ दिया है।
     यह अच्छी बात है कि माओवादियों से प्रभावित बुद्धिजीवियों,लेखकों और मीडियाकर्मियों के द्वारा बुर्जुआ संस्थानों में काम करना और माओवाद का जप करना पुण्य का काम समझा जाता है। बुर्जुआ के वेश में माओवादी प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी वैसे ही सुंदर लगते है जैसे बूरे की मिठाई पर पिस्ता लपेट दिया गया हो।
    माओवाद का मानना है कि क्रांति का लक्ष्य है सत्ता पर कब्जा जमाना। लेकिन ये बंदे सत्ता की ओर नहीं आदिवासी जंगलों की ओर भाग रहे हैं। माओवाद का ऐसा सटीक पाठ पढ़ाने के लिए हम माओवादियों के कृतज्ञ हैं ,काश माओ यहां आकर देख पाते।
                          

















1 टिप्पणी:

  1. अनुराग ढांडा31 मई 2010 को 11:11 pm बजे

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