मंगलवार, 16 मार्च 2010

त्रासदी और आयरनी को क्यों भूल गए हिन्दी आलोचक



    हिन्दी आलोचना में आलोचनात्मक ऊर्जा का विगत तीन दशकों में ह्रास हुआ है। आलोचना में एक खास किस्म का आलस्य नजर आता है। जगत के प्रति एक खास किस्म का ठंड़ापन है। यथार्थ का आतंक इस कदर छाया हुआ है कि डर के मारे लेखक संगठनों ने यथार्थ को देखना ही बंद कर दिया है। अब वे यथार्थ पर कम और निर्मित यथार्थ पर ज्यादा बातें करते हैं। कृत्रिम या मृत मुद्दों पर उलझे रहते हैं। जैसे 1857 का संग्राम,प्रेमचंद का जन्म दिन या शताब्दी अन्य लेखक का जन्म दिन, शोकसभा, किसी बोगस विषय पर सेमीनार जैसे हिन्दी जातीयता,हिन्दी संस्कृति आदि। त्रासदी के सामयिक सवालों पर वे कम से कम ध्यान देते हैं। लेखक के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के सवालों की उपेक्षा करते हैं।
       कृति और कृतिकार के बारे में मीडिया पापुलिज्म के सहारे प्रायोजित चर्चाएं हो रही हैं। मीडिया पापुलिज्म के आधार पर निर्मित आलोचना लिखी जा रही है। पापुलिज्म और मित्रता के आधार पर विकसित आलोचना इस तथ्य का संकेत है कि साहित्य का ह्रास हो रहा है।
     नव्य उदारतावाद के दौर में पापुलिज्म और मित्रता संघर्ष की प्रेरणा नहीं देते। अराजनीतिक माहौल बनाते हैं। आलोचना नपुंसक हो जाती है। यह आलोचना में प्रतिवाद और वैकल्पिक दृष्टिकोण के ह्रास का संकेत है।
    आपात्काल के पहले साहित्यालोचना का चलन था आपातकाल के बाद 'साहित्य प्रबंधन' होने लगा । 'आलोचना प्रबंधन' होने लगा। 'प्रबंधन' संकट का संकेत है। विकल्पों के अभाव की सूचना है। रूढियों के बोलवाले की अभिव्यक्ति है। अब विमर्श पहले तय होते हैं बाद में शुरू होते हैं। संकट की इस अवस्था में जिन विषयों पर चर्चाएं हो रही हैं वे हमारे तय किए विषय नहीं हैं बल्कि ये वे विषय हैं जो अमरीकी नीति निर्धारकों ,अमरीकी दानदाता कंपनियों और अमरीकी मीडिया ने तय किए हैं। ये संस्थाएं अपने एजेण्डे पर राष्ट्रीय बौद्धिक वर्ग और लेखक संगठनों को आन्दोलित और सक्रिय करने में सफल रही हैं। इनमें भारत का परिप्रेक्ष्य ,भारत के हित और साधारणजन के हित नदारत हैं।
    जिस तरह साहित्य में त्रासदी भूल गए उसी तरह आयरनी भी गायब हो गयी ,उसका विमर्श भी गायब हो गया। आज बड़ी पूंजी परिवर्तन पैदा कर रही है। पूंजी का प्रवाह चीजों को बदल रहा है। इससे साहित्य भी बदला है। भाषायी चमक और स्टाइल पर ज्यादा मेहनत की जा रही है। लेखक के साथ भाषा का व्यवहार बदल गया है।
       पहले लेखक जब भाषा का इस्तेमाल करता था तो व्यक्तिगत आजादी और आत्मगतता को व्यक्त करते हुए स्पेस और टाइम का अतिक्रमण कर जाता था। आपातकाल के बाद लेखक ने 'स्व' और वर्तमानकेन्द्रित भाषा पर व्यापक जोर दिया है। दैनन्दिन जीवन के अनुभव,दैनन्दिन विवाद, रोजमर्रा के राजनीतिक सवालों को वर्तमान की भाषा में रचा है। फलत: रचना की काल की सीमा के अतिक्रमण की क्षमता भी खत्म हो गयी है। अब जितनी जल्दी रचना जनप्रिय बनती है उतनी ही जल्दी लोग उसे भूल जाते हैं।
    रचना की जनप्रियता रचना से पैदा नहीं हो रही बल्कि उसे प्रायोजित करके पैदा किया जा रहा है। यह कृत्रिम जनप्रियता है। जन-संपर्क के फार्मूले से उपजी जनप्रियता है इसका साहित्य की गुणवत्ता से कोई संबंध नहीं है।
       आजादी के दौरान पैदा हुई प्रामाणिक अनुभूति ने 'स्व' की खोज, 'स्व' के साथ संवाद को जन्म दिया। विकल्पों को खारिज करने में मदद की। उस दौर में लेखक मनुष्य के अलावा किसी भी विकल्प को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। लिंग,जाति,धर्म,अस्मिता आदि न जाने कितने विकल्प उसके सामने आए उन्हें 'स्व' के सामने खारिज करता चला गया। 'स्व' के सामने उसने सबको 'नकार' दिया। यही नकार का भाव उसकी सबसे बड़ी संपदा है। उसने यह जानने की कोशिश की कि नकार क्या है ? इस क्रम में लेखक अपने को चीजों के बाहर रखकर देखता था। फलत: मुक्त था। यही उसकी आजादी का आधार था। लेखक जब अपने को बाहर रखकर चीजों को चित्रित करता है तो उसकी चेतना स्वयं से भी आजाद होती है।छायावाद की कविता का समूचा ढ़ांचा इस पैटर्न पर टिका है।
     छायावाद का लेखक 'स्व' को बाहर रखकर विषयवस्तु को चित्रित करता है। लेखक के 'स्व' को यदि विषय में शामिल कर लिया गया होता तो आजादी की अभिव्यक्ति संभव नहीं थी। 'मैं' शैली में कविता लिखते हुए वह 'स्व' को पृथक रखता है फलत: आजादी का उपभोग कर पाता है। 'सरोज स्मृति' को 'स्व' को शामिल करके लिखना संभव नहीं है। 'स्व' को बाहर रखकर ही लिखना संभव है। 'कामायनी' में भी यही पद्धति इस्तेमाल की गई है। लेखक ने कभी अपने 'स्व' को किसी चरित्र विशेष में समाहित नहीं किया। लेखक का 'स्व' यदि रचना में शामिल हो जाएगा तो 'स्व' भी आब्जेक्ट बन जाएगा और ऐसी अवस्था में लेखक आजादी का उपभोग नहीं कर पाएगा।
      आजादी के दौर का साहित्य इस अर्थ में विशिष्ट है कि उसने मनुष्य के यथार्थ को प्रतिष्ठित किया। मनुष्य का यथार्थ ही वह शक्ति है जो साहित्य में अभिव्यक्ति पाता है। हमने भूल की है कि उसे लेखक के 'स्व' के साथ गड्डमड्ड कर दिया है। आजादी का एहसास तब ही होता है जब उसे 'स्व' से अलग कर दिया जाए। लेखक जब किसी विषयवस्तु का चित्रण करता था तो अपने को उससे मुक्त करके करता था। चीजों को स्वतंत्र रूप से देखकर चित्रित करता था। 'स्व' को शामिल करके वस्तुगत चित्रण संभव नहीं है।
     हम बार-बार यही बताते रहे हैं कि लेखक की निजी अनुभूतियां और निजी जीवन रचना में अभिव्यक्ति हुआ है। वस्तुत: यह बात सही नहीं है। 'स्व' को शामिल करके वस्तुगत अभिव्यक्ति संभव नहीं है। खासकर जब आजादी का उपभोग करना हो तो 'स्व' को बाहर रखकर ही चित्रण संभव है। लेखक जब रचना लिखता है तो लिखने के लिए उसका रचना के बाहर रहना बेहद जरूरी है। रचना में शामिल होकर वस्तुगत भावों की अभिव्यक्ति और आजादी का उपभोग संभव नहीं है।
     लेखक जब किसी विषय का चित्रण करता है तो उसका प्रधान लक्ष्य होता है संबंधित विषयवस्तु की ज्ञानात्मक संवेदना को रूपान्तरित करना। वह विषयवस्तु को पेश नहीं करता बल्कि विषयवस्तु के ज्ञान को पेश करता है। जगत के बारे में अपनी चेतना को पेश करता है। चेतना में संचित भावों को पेश करता है। ऐसा करते हुए वह दावा करता है कि उसने जो कुछ महसूस किया उसी को व्यक्त कर रहा है और इसमें किसी किस्म की मिलावट नहीं है। लेखक की चेतना के ये रूप अभिव्यंजित होने के बाद गायब हो जाते हैं। वे लेखक की चेतना में स्थायी रूप में रहते नहीं हैं। अत: चेतना अथवा अनुभूतियों की अभिव्यंजना को विषयवस्तु नहीं समझना चाहिए। यह लेखक का पृथक्कृत 'स्व' है। लेखक को लिखते समय 'स्व' के बारे में कुछ भी पता नहीं होता।
     लेखक जिस चीज का चित्रण करता है वह तो 'नकार' है। 'नकार' के आधार पर चीजें रचना में अभिव्यंजित होती हैं। 'स्वीकार' के आधार पर रचना में चीजों की अभिव्यंजना नहीं होती। इसी अर्थ में लेखक का विषय के साथ बाहरी संबंध होता है। चीजों के साथ बाहरी संबंध न तो वस्तुगत होता है और न आत्मगत ही होता है। बल्कि इन दोनों के बीच में झूलता रहता है। लेखक के विचार और चीजों के बीच में सापेक्ष स्वायत्तता बनी रहती है। जिसके कारण व्यक्ति अन्य के प्रति अपनी चेतना,सक्रियता और भूमिका को निर्धारित करता है।
    लेखक अपनी स्वतंत्रता के जरिए अन्य की चेतना को प्रभावित करता है। लेखक अपनी भावनाओं को अन्य के लक्ष्य में रूपान्तरित कर देता है। लेखक जब अन्य को अपनी भावनाएं आब्जेक्ट के रूप में पेश करता है तो उन्हें संभावना के रूप में पेश करता है। लेखक की अनुभूतियां अन्य के ऑब्जेक्ट के रूप में तब्दील होती हैं, संभावनाओं के रूप में।

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