गुरुवार, 24 मार्च 2011

23 मार्च शहीद दिवस के मौके पर विशेष- मेरा साथी, मित्र और नेता भगत सिंह-समापन किश्त- शिव वर्मा


   भगत सिंह और दत्त द्वारा असेंबली भवन में फेंके गए पर्चों की पहली पंक्ति थी 'बहरों को सुनाने के लिए जोर की आवाज की जरूरत होती है।' लेकिन सरकार तो जान-बूझ कर बहरी बनी थी। असेंबली में उसका बहुमत था। ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल पास हो गया। लेकिन पब्लिक सैफ्टी बिल को पेश करने का उसका साहस नहीं हुआ। वह आर्डिनेन्स के रूप में देश के सर पर थोप दिया गया। पर्चे में फ्रेंच विप्लवी वेलां के कुछ उध्दरण देकर क्रांतिकारी दल के कार्यों का समर्थन किया गया था और कहा गया था कि जनता के प्रतिनिधि अपने निर्वाचकों के पास लौट जाए और जनता को भावी विप्लव के लिए तैयार करें।
   दिल्ली में अब मैं और जयदेव ही रह गए थे। हमने पहले से ही अलग एक कमरा ले लिया था। उन दोनों साथियों की गिरफ्तारी के साथ-साथ हम पुराना मकान छोड़ कर नए कमरे में आ गए। दिन भर के काम के बाद काफी रात गए जब हम सोये तो हम दोनों के दिल भारी थे। ऐसा लग रहा था मानो हम अभी-अभी अपने दो संबंधियों की बलि चढ़ाकर लौटे हों। एक दूसरे से बिना कुछ बोले ही हमने आखें बंद कर लीं। आंखें बंद करते ही मेरे सामने जेल का नक्शा घूमने लगा। उस समय तक मैंने जेल देखा न था, केवल उसकी दिल दहलाने वाली कहानियां ही सुनी थीं। एक रात पहले हम चारों एक साथ सोए थे। और अब उनमें से दो हमेशा के लिए हमसे छिन चुके थे। जीवन में उनसे अब हम कभी भी न मिल सकेंगे; इस विचार से मुझे रुलाई-सी आने लगी। आंसू बहाना कमजोरी है, अपने पर काबू पाने और अपने भावों को दबाने के विचार से में चुपचाप उठा और रात के सन्नाटे में सुनसान सड़क की ओर खुलती एक खिड़की के पास जाकर बैठ गया।
   जयदेव भी शायद मेरी ही तरह केवल आंख बंद किए पड़ा था। कुछ देर बाद जब उसने आंखें खोली तो देखा शिव अपने बिस्तर पर नहीं है। मुझे ढूंढ़ निकालने में उसे कठिनाई नहीं हुई। मुझे खिड़की पर चुपचाप बैठा देख वह मेरे पास आ गया। पास बैठते हुए उसने पुकारा।
   प्रकृति ने शरीर में दो ऐसे भेदिये लगा दिए हैं जो लाख छिपाने पर भी हृदय का सारा राज दूसरों से कह डालते हैं। बहुत कुछ संभालने पर भी मेरी आंखों से आंसू के दो बूंद लुढ़क ही गए। उसी समय दो और भेदिये भी अपनी कहानी कह डालने के लिए उतावले हो पड़े। जयदेव की आंखें भी नम हो गयीं। जब हमसफर बिछड़ जाते हैं तो शायद सब जगह ऐसा ही होता है। उस रात हम लोग काफ़ी देर तक खिड़की के पास चुपचाप बैठे रहे और भेदिये रुक-रुक कर अपनी-अपनी कहानियां कहते रहे।
      दल ने इन दोनों साथियों को जिस काम के लिए बलिदान किया था, उसे उन्होंने पूरे उत्तारदायित्व के साथ निबाहा। अदालत के सामने भगत सिंह और दत्त ने दल के  समाजवाद उस समय युग की आवाज थी। क्रांतिकारियों में भगत सिंह ने सबसे पहले उस आवाज को सुना और पहचाना। यहीं पर वह अपने दूसरे साथियों से बड़ा था।
      भगत सिंह और दत्ता द्वारा असेंबली भवन में फेंके गए पर्चों की पहली पंक्ति थी 'बहरों को सुनाने के लिए जोर की आवाज की जरूरत होती है।' लेकिन सरकार तो जान-बूझ कर बहरी बनी थी। असेंबली में उसका बहुमत था। ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल पास हो गया। लेकिन पब्लिक सैफ्टी बिल को पेश करने का उसका साहस नहीं हुआ। वह आर्डिनेन्स के रूप में देश के सर पर थोप दिया गया। पर्चे में फ्रेंच विप्लवी वेलां के कुछ उध्दरण देकर क्रांतिकारी दल के कार्यों का समर्थन किया गया था और कहा गया था कि जनता के प्रतिनिधि अपने निर्वाचकों के पास लौट जाए और जनता को भावी विप्लव के लिए तैयार करें।
      दिल्ली में अब मैं और जयदेव ही रह गए थे। हमने पहले से ही अलग एक कमरा ले लिया था। उन दोनों साथियों की गिरफ्तारी के साथ-साथ हम पुराना मकान छोड़ कर नए कमरे में आ गए। दिन भर के काम के बाद काफी रात गए जब हम सोये तो हम दोनों के दिल भारी थे। ऐसा लग रहा था मानो हम अभी-अभी अपने दो संबंधियों की बलि चढ़ाकर लौटे हों। एक दूसरे से बिना कुछ बोले ही हमने आखें बंद कर लीं। आंखें बंद करते ही मेरे सामने जेल का नक्शा घूमने लगा। उस समय तक मैंने जेल देखा न था, केवल उसकी दिल दहलाने वाली कहानियां ही सुनी थीं। एक रात पहले हम चारों एक साथ सोए थे। और अब उनमें से दो हमेशा के लिए हमसे छिन चुके थे। जीवन में उनसे अब हम कभी भी न मिल सकेंगे; इस विचार से मुझे रुलाई-सी आने लगी। आंसू बहाना कमजोरी है, अपने पर काबू पाने और अपने भावों को दबाने के विचार से में चुपचाप उठा और रात के सन्नाटे में सुनसान सड़क की ओर खुलती एक खिड़की के पास जाकर बैठ गया।
      जयदेव भी शायद मेरी ही तरह केवल आंख बंद किए पड़ा था। कुछ देर बाद जब उसने आंखें खोली तो देखा शिव अपने बिस्तर पर नहीं है। मुझे ढूंढ़ निकालने में उसे कठिनाई नहीं हुई। मुझे खिड़की पर चुपचाप बैठा देख वह मेरे पास आ गया। पास बैठते हुए उसने पुकारा।
      प्रकृति ने शरीर में दो ऐसे भेदिये लगा दिए हैं जो लाख छिपाने पर भी हृदय का सारा राज दूसरों से कह डालते हैं। बहुत कुछ संभालने पर भी मेरी आंखों से आंसू के दो बूंद लुढ़क ही गए। उसी समय दो और भेदिये भी अपनी कहानी कह डालने के लिए उतावले हो पड़े। जयदेव की आंखें भी नम हो गयीं। जब हमसफर बिछड़ जाते हैं तो शायद सब जगह ऐसा ही होता है। उस रात हम लोग काफ़ी देर तक खिड़की के पास चुपचाप बैठे रहे और भेदिये रुक-रुक कर अपनी-अपनी कहानियां कहते रहे।
      दल ने इन दोनों साथियों को जिस काम के लिए बलिदान किया था, उसे उन्होंने पूरे उत्तरदायित्व के साथ निबाहा। अदालत के सामने भगत सिंह और दत्ता ने दल के  आदर्श के प्रचार के साधन के रूप में इस्तेमाल करने का पक्षपाती था। साथ ही वह यह भी चाहता था कि हम लोग अदालत में तथा जेलों में राजनैतिक बंदियों के अधिकारों के लिए अनवरत सर्घष करें, सरकार, उसकी अदालत तथा उसकी नीतियों के प्रति अपने घृणा के भाव को अपने कामों द्वारा हर उपयुक्त अवसर पर प्रदर्शित करें, और अंत में यदि वक्तव्य देने का अवसर मिले तो एक राजनैतिक वक्तव्य द्वारा पूरी व्यवस्था पर गहरा प्रहार करें।
      सरदार की इन बातों का सभी साथियों ने समर्थन किया। इस योजना के अनुसार सभी अभियुक्तों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया। पहली श्रेणी उन लोगों की थी जिनका केस वकील द्वारा लड़ा जाना था। इसमें पांच साथी थे- देशराज भारती, प्रेमदत्त, मास्टर आज्ञा राम, अजय घोष और किशोरी लाल। दूसरी श्रेणी थी शत्राु की अदालत को मान्यता न देने वालों की। इनका काम था उपयुक्त अवसर पर अदालती अभिनय के ढकोसले पर सैध्दांतिक प्रहार करना। इन साथियों ने ट्रिब्यूनल के सामने पहले ही दिन जो बयान दिया उसके बारे में अदालत के जजों ने लिखा था कि वह ''ब्रिटिश सरकार पर हिंसात्मक राजनैतिक हमला था। चूंकि खुली अदालत में इस भाषण्ा का, जो कि राजद्रोहात्मक प्रचार के अतिरिक्त और कुछ भी न था। बहुत ही अनुचित था ...इसलिए टिब्यूनल ने उसका पढ़ा जाना रोक दिया।'' बयान के अंत में कहा गया था ''इन कारणों से हम इस हास्यास्पद अभिनय का अंग बनने से इनकार करते हैं और आगे से हम इस अदालत की कार्यवाही में किसी प्रकार का हिस्सा नहीं लेंगे।'' इनमें थे महावीर सिंह, बी.के. दत्ता, डॉ. गयाप्रसाद, कुन्दनलाल और जतींद्रनाथ सान्याल। और तीसरी श्रेणी उन लोगों की थी जो अपना केस स्वयं लड़ रहे थे। इनका काम था सरकारी गवाहों से जिरह करना, मुखबिरों तथा गवाहों के मुंह से अपनी बात कहलवाना। उनकी हर बात का उद्देश्य होता था प्रचार। इस ग्रुप के साथियों के नाम थे- भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, विजय कुमार सिन्हा, कमलनाथ तिवारी और सुरेंद्रनाथ पांडे।
      अदालत के मंच को प्रचार के साधन के रूप में इस्तेमाल करने की हमारी यह योजना बहुत सफल रही।
      यह भूख-हड़ताल 63 दिन चली। भगत सिंह और दो ने तीन महीने से ऊपर पार किये। इन तीनों महीनों में भगत सिंह अपना सारा काम-लिखना, पढ़ना, नहाना, अदालत जाना, मसविदे तैयार करना, सरकार से पत्र-व्यवहार करना, अदालत में बयान देना, हंसना, गुनगुनाना-नियमित रूप से करता रहा। केस के दौरान भगत सिंह और दत्ता को लाहौर सेन्ट्रल जेल में रखा गया और शेष अभियुक्तों को बोर्स्टल जेल में। डिफेंस (सफाई) के लिए आपसी परामर्श के बहाने वे दोनों प्रत्येक रविवार के दिन बोर्स्टल जेल आ जाते थे। भगत सिंह कई बार भूख-हड़ताल के बावजूद बोर्स्टल जेल आया।
      जेल में किताबों की सुविधा थी और आरम्भ से ही पढ़ने-लिखने का वातावरण बनगया था। आपस में सैध्दांतिक एवं राजनैतिक समस्याओं पर बहस आदि भी होती थी लेकिन भगत सिंह के आ जाने पर उस सब में एक नयी जान सी आ जाती। उस दिन शायद ही कोई विषय अछूता रहता हो-सप्ताह की पढ़ी हुई पुस्तकें, माक्र्सवाद, सोवियत संघ की उन्नति, अफगानिस्तान के उलट फेर, चीन और जापान की तनातनी, लीग आफ नेशंस का निकम्मापन, मेरठ केस, भारतीय पूंजीपति वर्ग की भूमिका, कांग्रेस की गतिविधि, लाहौर-कांग्रेस में ध्येय परिवर्तन का प्रश्न आदि सभी विषयों पर चर्चा रहती।
      यों हमारे केस के प्राय: सभी साथियों को पढ़ने लिखने में अच्छी रुचि थी, लेकिन भगत सिंह इस क्षेत्रा में सबसे आगे था। उसका प्रिय विषय साम्यवाद होते हुए भी उपन्यासों में उसकी अच्छी रुचि थी, विशेषतया राजनैतिक तथा आर्थिक समस्याओं पर प्रकाश डालने वाले उपन्यास। डिकेन्स, अप्टन सिंक्लेयर, हाल केन, विक्टर ह्यूगो, गोर्की, स्टेपनियेक, आस्कर वाइल्ड, लियांनाइड एन्ड्रीव आदि उसके प्रिय लेखक थे। लियांनाइड एन्ड्रीव की सुप्रसिध्द पुस्तक 'सेवन दैट वेयर हैंग्ड' उसने अदालत में हमें पढ़ कर सुनाई। पुस्तक का एक पात्रा जिसे मौत की सजा हुई थी लगातार यही दोहराता रहता था कि 'मुझे फांसी नहीं लगनी चाहिए'। जब उसे फांसी पर लटकाने के लिए ले जाया जाने लगा तब भी वह बार बार कातर स्वर से यही चिल्लाता रहा, 'मुझे फांसी नहीं लगनी चाहिए'
      भगत सिंह जब कहानी के इस प्रसंग पर पहुंचा तो उसकी आंखों में आंसू छलक आए। उस समय मृत्यु पर विजय पाने वाले अपने साथी को मृत्यु भय से कातर एक औपन्यासिक पात्रा की सहानुभूति में आंसू बहाते देख सब के दिल भर आए थे।
      जिन दिनों हमारा केस चल रहा था उन दिनों प्राय हर दूसरे तीसरे दिन पुलिस वालों से या जेल अधिकारियों से झगड़ा और मारपीट चलती रहती थी। उन झगड़ों में मुझ जैसे दुबले-पतले लोग थोड़ी मार खाकर ही बच जाते थे। लात-घूंसों और डंडों की अधिकांश चोट बेचारे पांच छह व्यक्तियों के हिस्से में ही पड़ती थी। देखने में मोटे तगड़े उन साथियों को जैसे अधिकारियों ने इसी काम के लिए चुन सा लिया था। राजनैतिक समस्याओं पर वाद-विवाद में ही नहीं वरन् मार खाने वाले साथियों की उस लिस्ट (भगत सिंह, जयदेव कपूर, महावीर सिंह, किशोरी लाल, गयाप्रसाद आदि) में भी भगत सिंह सबसे आगे था।
अंत में फैसले का दिन भी आ गया। भगत सिंह को फांसी की सजा होगी इसके लिए हम पहले से तैयार थे। फिर भी उसे सुन कर मेरे सर में चक्कर-सा आ गया। कल तक जो अनुमान था वह अब यथार्थ बन कर सामने आ रहा था।
      सजा के बाद भी बोर्स्टल जेल से हटा कर केंद्रीय कारागार में कर दिया गया। वहां के नये और पुराने दोनों फांसी के हाते एक दूसरे से सटे हुए थे। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु नये हाते में थे और हम लोग पुराने में। एक रात अचानक हमारी कोठरियों के ताले खुले और हम से चलने के लिए कहा गया। हमारे साथियों को फांसी देने से पहलेही सरकार हमें किसी दूसरी जगह भेज देना चाहती थी।
      जेल का बड़ा दरोगा अपने पूरे दलबल के साथ हमें लेकर फाटक की ओर चला। कुछ दूर चलकर उसने पूछा ''अपने साथियों से मिलोगे?'' उदारता के लिए धन्यवाद पा कर उसने नये हाते का फाटक खुलवाया और हमें भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की कोठरियों के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। प्रश्न सुन कर पहले तो सरदार ठहाका मार कर हंसा फिर गंभीर हो कर बोला, ''क्रांति के मार्ग पर कदम रखते समय मैंने सोचा था कि यदि मैं अपना जीवन देकर देश के कोने-कोने तक इंकलाब जिंदाबाद का नारा पहुंचा सका तो मैं समझूंगा कि मुझे अपने जीवन का मूल्य मिल गया। आज फांसी की इस कोठरी में लोहे के सीखचों के पीछे बैठ कर भी मैं करोड़ों देशवासियों के कंठों से उठती हुई उस नारे की हुंकार सुन सकता हूं। मुझे विश्वास है कि मेरा यह नारा स्वाधीनता संग्राम की चालक शक्ति के रूप में साम्राज्यवादियों पर अंत तक प्रहार करता रहेगा।'' फिर कुछ रुक कर अपनी स्वाभाविक मुस्कराहट के बीच उसने आहिस्ते से कहा, ''और इतनी छोटी जिंदगी का इससे अधिक मूल्य हो भी क्या सकता है?''
      मैं सबसे पीछे था। विदाई लेते समय मेरी आंखाें में आंसू आ गए। मुझे रोते देखकर उसने कहा ''भावुक बनने का समय अभी नहीं आया है प्रभात। मैं तो कुछ ही दिनों में सारे झंझटों से छुटकारा पा जाऊंगा, लेकिन तुम लोगाें को लंबा सफर पार करना पड़ेगा। मुझे विश्वास है उत्तारदायित्व के भारी बोझ के बावजूद इस लंबे अभियान में तुम थकोगे नहीं, पस्त नहीं होगे और हार मान कर रास्ते में बैठ नहीं जाओगे।'' यह कहकर उसने सीखचों के अंदर से हाथ बढ़ा कर मेरा हाथ पकड़ लिया।जेल के दरोगा ने पास आकर आहिस्ते से कहा, ''चलिए''। सरदार से वह हमारी आखिरी मुलाकात थी।और फिर 23 मार्च, 1931 की संध्या समय सरकार ने उनसे सांस लेने का अधिकार छीन कर अपनी प्रतिहिंसा की प्यास भी बुझा ली। अन्याय और शोषण के विरुध्द विद्रोह करने वाले तीन और तरुणों की जिंदगियां जल्लाद के फंदे ने समाप्त कर दीं।
      फांसी के तख्ते पर चढ़ते हुए भगत सिंह ने एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट को संबोधित करते हुए कहा, ''मजिस्ट्रेट महोदय, आप वास्तव में बड़े भाग्यशाली हैं, क्योंकि आप को यह देखने का अवसर प्राप्त हो रहा है कि एक भारतीय क्रांतिकारी अपने महान आदर्श के लिए किस प्रकार हंसते-हंसते मृत्यु का आलिंगन करता है।''
      फांसी से कुछ पहले भाई के नाम अंतिम पत्रा में उसने लिखा था, ''मेरे जीवन का अवसान समीप है। प्रात: कालीन प्रदीप के प्रकाश के समान टिम-टिमाता हुआ मेरा जीवन प्रदीप भोर के प्रकाश में विलीन हो जायेगा। हमारा आदर्श, हमारे विचार बिजली के कौंध के समान सारे संसार में जागृति पैदा कर देंगे। फिर यदि यह मुट्ठी भर राखविनष्ट भी हो जाए तो संसार का इससे क्या बनता बिगड़ता है!''
      जैसे-जैसे भगत सिंह के जीवन का अवसान समीप आता गया, देश तथा मेहनतकश जनता के उज्ज्वल भविष्य में उसकी आस्था गहरी होती गयी। मृत्यु से पहले सरकार के नाम लिखे एक पत्रा में उसने कहा था, ''अति शाीघ्र ही अंतिम संघर्ष के आरंभ की दुंदुभी बजेगी। उसका परिणाम निर्णायक होगा। साम्राज्यवाद और पूंजीवाद अपनी अंतिम घडियां गिन रहे हैं। हमने उसके विरुध्द युध्द में भाग लिया था। और उसके लिए हमें गर्व है।''
      एक महान एवं पवित्र आर्दश के प्रति अडिग विश्वास ही किसी देश के नवयुवकों को जल्लाद के सामने भी मुस्कराता हुआ खड़ा रख सकता है। भगत सिंह और उसके दोनों साथियों का अपने आदर्श की अंतिम विजय में कितना विश्वास था, वह उनके उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है। और यह विश्वास ही उनके अमरत्व का राज था।
      जिस समय भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई उस समय मैं आंध्र प्रदेश (उस समय मद्रास प्रांत के अंतर्गत) की राजमहेंद्री जेल में था। मुझे ऐसा लगा कि हम शायद बिछड़ने के लिए ही मिले थे। यतीन्द्रदास, भगवतीचरण और आजाद तो जा ही चुके थे, अब जल्लाद ने मेरे तीन और साथी मुझसे छीन लिए।
      मेरे हमजोलियों की कतार से अलग होकर वे शहीदों में जा मिले। तब से उन पर सारे देश का अधिकार है। उनके नामों के जै-जैकार के बीच जब भी कभी उनके चित्रों पर फूल चढ़ते देखता हूं। या किसी अजनबी को उन पर रचे सैकड़ों गीतों में से किसी एक गीत की पंक्तियां गुनगुनाने सुनता हूं तो गर्व से मस्तक उंचा हो जाता है। फिर भी हमराहियों के बिछुड़ जाने से जीवन में जो एक अभाव सा पैदा हो जाता है, उससे कुछ तकलीफ तो होती ही है। और पुरानी स्मृतियां जब कभी मन को कुरेद देती हैं तो वह कविवर आलम के शब्दों में कह उठता हैं! ''नैनन में जे सदा रहते तिनकी अब कान कहानी सुनो करै'' और तब अंतर के स्वर अधीर होकर पूछने लगते हैं :
                वे सूरतें इलाही किस देश बसतियां हैं?










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