विकीलीक के भारत संबंधी केबलों के अंग्रेजी दैनिक ' हिन्दू' में निरंतर प्रकाशन के बाद से संसद में हंगामा मचा हुआ है। रोज सांसद इस अखबार में छपी बासी केबलों पर उबल रहे हैं,मचल रहे हैं,संसद ठप्प कर रहे हैं,मनमोहन सिंह से इस्तीफा मांग रहे हैं। यह प्रच्छन्न तरीके से आने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का मुँह कैसे काला किया जाए और उसे कैसे नंगा करके जनता में अलग-थलग किया जाए,इस पर भी केबल पत्रकारों की नजर है। खासकर पश्चिम बंगाल,केरल, तमिलनाडु और असम में विधानसभा चुनाव अप्रैल-मई में होने जा रहे हैं।
विकीलीक के भारतीय केबलों को प्रकाशन के लिए दैनिक 'हिन्दू' ने हासिल करके सुंदर काम किया है। इससे एक तरफ भारतीय राजनीतिक दलों में व्याप्त विचारधारात्मक पतन की परतें खुलेंगी ,लोकतंत्र का खोखलापन सामने आएगा,लोकतंत्र के प्रति संशय बढ़ेगा,राजनीति से किनाराकशी बढ़ेगी और अराजनीतिकरण बढ़ेगा। दूसरी ओर यह भी पता चलेगा कि अमेरिका हमारे देश में कितनी,क्यों और किन विषयों में दिलचस्पी ले रहा है। भारतीय राजनीति के किन नेताओं को अमेरिकी प्रशासन अपने लिए लाड़ला मानता है और कौन हैं जो लाड़ले नहीं हैं। इससे इन नेताओं की इज्जत में बट्टा नहीं लगेगा। वे कभी राजनीतिक तौर पर असुरक्षा के शिकार भी नहीं होंगे। इससे भी बड़ी बात यह है कि भारत की आंतरिक राजनीति में अमेरिकी दूतावास किस तरह काम कर रहा है और क्यों उसकी भारत के आंतरिक मामलों में दिलचस्पी है,यह सब आसानी से सामने आएगा। वैसे अमेरिका भारत में जितनी दिलचस्पी ले रहा है उससे कहीं ज्यादा दिलचस्पी रूस ले रहा है,चीन ले रहा है,वो प्रत्येक देश ले रहा है जिसके हित भारत में दांव पर लगे हैं। भारत भी उनदेशों में दिलचस्पी लेता है जहाँ उसके हित दाँव पर लगे हैं। जरा विकीलीक वाले कोशिश करें कि रूस के भारत में दिलचस्पी के कौन से क्षेत्र हैं,पाक के कौन से क्षेत्र हैं ?
असल बात यह है कि विकीलीक के केबल सत्य और तथ्य नहीं हैं ये तो अमेरिकी दूतावास में काम करने वाले राजनयिकों की राय हैं,जिन्हें अमेरिकी प्रशासन फीडबैक के रूप में इस्तेमाल करता रहा है। किसी राजनयिक की राय,भारत के घटनाक्रम पर उसके ब्यौरे और विवरण आदि हमारे देश के लिए किस काम के हैं ? क्या इस तरह के राजनयिक केबलों के जरिए सत्य और तथ्य तक पहुँचा जा सकता है ? मुश्किल यह है कि राय को तथ्य मानकर चला जा रहा है और उसके आधार पर संसद को ठप्प कर दिया गया है। मान लें अमेरिकी राजनयिक जो केबल लिख रहे हैं, सच लिख रहे हैं, लेकिन इस सत्य की पुष्टि कैसे करेंगे ? राय है तो उसके ठोस रूप में पुष्ट भी तो होना चाहिए। हमारे कानूनी ढ़ाँचे और राजनीतिक संरचनाओं में इस तरह के केबल को पुष्ट करने का कोई ठोस ढ़ांचा उपलब्ध नहीं है।
'हिन्दू' बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित अखबार है। उसके संपादक एन.राम की मीडिया में बड़ी साख है,लेकिन वे एक चीज भूल रहे हैं कि विकीलीक को पुष्ट करने का कोई रास्ता नहीं है। मैं यहाँ बोफोर्स कांड एक्सपोजर की तरफ ध्यान खींचना चाहता हूँ जिसका सबसे ज्यादा खुलासा हिन्दू अखबार,एन.राम,चित्रा सुब्रह्मण्यम और पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने किया था। 25 सालों तक यह मसला चलता रहा। बोफोर्स कांड के एक्सपोजर के बाद वी पी सिंह प्रधानमंत्री भी हुए लेकिन वे राजीव गाँधी के खिलाफ सीबीआई को घूसखोरी का कोई प्रमाण नहीं दे पाए। ऐसा कोई प्रमाण स्वयं हिन्दू अखबार ने भी नहीं सौंपा था। हिन्दू अखबार के पास स्विस प्रशासन के जरिए हासिल दस्तावेज थे जिनके आधार पर उसने बोफोर्स कांड को उछाला था लेकिन 250 करोड़ रूपये और 25 साल खर्च करने के बाद भी उसमें यह तय नहीं हो पाया कि घूस किसने ली। स्विस अदालतों से लेकर भारत की अदालतों तक 25 साल में जब हम सिद्ध नहीं कर पाए तो हमें विदेशी स्रोतों पर इतना भरोसा करने की क्या जरूरत है ?
एक अन्य उदाहरण और लें, क्रिकेट में सट्टेबाजी होती है इसे लेकर 10 साल पहले अमेरिकी प्रशासन ने एक केबल भारत सरकार के पास भेजा था और उस केबल के आधार पर क्रिकेट में सट्टेबाजी पर जमकर हंगामा हुआ और अनेक खिलाडियों का कैरियर बर्बाद हो गया,वह केस अभी भी अदालत में झूल रहा है और 10 साल बाद भी सीबीआई उस केस में चार्जशीट नहीं दे पायी है। केबल स्वयं में प्रमाण नहीं है ,उसे अन्य ठोस आधारों पर पुष्ट किया जाना चाहिए।
इस पूरे प्रसंग में एक और समस्या है कि विपक्षीदल यह मांग कर रहे हैं कि कांग्रेस सिद्ध करे कि वो सन् 2008 में संसद में विश्वास मत हासिल करने के समय नेक-पाक थी। सब लोग जानते हैं कि कांग्रेस और अन्यदलों का नेक-पाक राजनीति से अब बहुत कम लेना-देना रह गया है। क्लीन राजनीति को कांग्रेस ने बहुत पहले विदा कर दिया था। दूसरी बात यह कि केबल प्रमाण नहीं हैं,यदि इन पर जांच भी होती है तो कुछ भी नहीं निकलेगा और यूपीए -1 की जबाबदेही के लिए नई सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। जिस समय का वाकया हिन्दू ने उछाला है उस समय भी सब जानते थे कि पैसा देकर सांसद खरीदे गए हैं, लेकिन प्रमाण नहीं मिले। संसद में नोटों से भरा बक्शा पहुँच गया लेकिन उसे प्रमाण नहीं माना गया। यही वह बिंदु है जहां पर हमें नोट,केबल और दलीय हितों से ऊपर उठकर सोचना होगा।
भारत की राजनीति साफ-सुथरी नहीं है। यहां पंचायत से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक सब कुछ खरीदा और बेचा जाता है इस सत्य को सारे दल जानते हैं। इस सत्य की पुष्टि के लिए किसी विकीलीक केबल की जरूरत नहीं है।
भारत की बुर्जुआ राजनीति में घूस को बुरा नहीं मानते,कानूनी नजरों में बुरा मानते हैं,वह भी बुर्जुआजी के सड़े हुए चरित्र पर परदा डाले रखने के लिए,इससे बुर्जुआ राजनीति में ईमानदारी का नाटक चलता रहता है। बुर्जुआ राजनीति में इस कदर सडांध भरी है कि आप एक मसले पर पकड़ नहीं पाते तब तक दूसरा घोटाला सामने आ जाता है। कानूनी पर्दे की आड़ में बुर्जुआजी आराम से सत्ता की लूट जारी रखता है।
ये केबल एक बात पुष्ट करते हैं कि भारत में राजनीति नपुंसक हो मीडिया कलंकित हो गया है। मीडिया का कलंकित होना और नेताओं का नपुंसक होना ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस समूचे प्रसंग का सबसे दुखद पहलू है कि अमेरिकी केबलों की नजर से हमारा मीडिया और राजनेताओं के द्वारा भारतीय सच को देखा जा रहा है। सवालउठता है कि हम अमेरिकी राजनयिकों की आंखों से भारतीय सच को देखें या भारतीय आंखों से राजनीति की नंगी सचाई को देखें ?
अमेरिकी केबलों के आधार पर जो आज संसद में उछल रहे हैं और उन्हें प्रमाण मान रहे हैं वे सचमुच में अमेरिकी आईने से भारतीय समाज को देख रहे हैं.यह खतरनाक कैदखाना है जहां विकीलीक ने हमारे नेताओं और मीडिया को कैद कर लिया है। हमारा एक ही सवाल है यदि विकीलीक के केबल इतने ही महत्वपूर्ण हैं और सत्यांशों से भरे हैं तो कोई मीडिया घराना इस सत्य के बारे में अभी तक कोई अतिरिक्त तथ्य सामने क्यों नहीं ला पाया ? स्वयं हिन्दू अखबार ने विकीलीक की किसी स्टोरी को आगे ले जाकर विकसित क्यों नहीं किया ? उसमें नए तथ्य क्यों नहीं जोड़े ?
विकीलीक के अमेरिकी केबल पत्रकारिता का कच्चा माल हैं पत्रकारिता नहीं है। इनकी पुनर्प्रस्तुति तो स्टेनोग्राफी है। यह पत्रकारिता नहीं है। उपलब्ध सत्य और तथ्य में इजाफा किए बगैर पुनरावृत्ति मात्र से इसे एक्टिव खबर नहीं बनाया जा सकता।
विकीलीक मृतसूचना संसार का हिस्सा हैं। मृत सूचना संसार कितना ही बड़ा सत्य सामने लाए उससे सामयिक यथार्थ को प्रभावित नहीं किया जा सकता है। विकीलीक वैसे ही जैसे ताजमहल है। ताजमलहल के बारे में हम रोज नई -नई ऐतिहासिक खोज समाने लाएं इससे ताजमहल के बारे में दर्शकीय पर्यटन नजरिया आसानी से नहीं बदलेगा। विकीलीक भी अमेरिकी सूचनाओं का ताजमहल है इसमें घुमन्तूओं,यायावरों और मीडिया की दिलचस्पी हो सकती है,पाठकों की इसमें दर्शकीय दिलचस्पी हो सकता है ,इससे ज्यादा इसका कोई महत्व नहीं है।
विकीलीक केबल की घटनाएं घट चुकी हैं। घटित को पुनः हासिल करना, उनके आधार पर पाठकों या जनता को सक्रिय करना असंभव है। विकीलीक में घटनाएं अमेरिकी राजनयिक नजरिए से निर्मित की गई हैं। उन्हें निर्मिति के रूप में ही देखा जाना चाहिए। यह खोजी पत्रकारिता नहीं है। यह तो विकीलीक केबल की अखबारी व्याख्या है।
सधा हुआ सटीक लेख... बधाई
जवाब देंहटाएंकोयले की दलाली में सब के हाथ काले हैं :)
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