गुरुवार, 24 मार्च 2011

बम का दर्शन - समापन किश्त- क्रांतिकारी भगतसिंह


इस विषय में गांधी जी ने जो विजय प्राप्त की वह एक प्रकार की हार ही के बराबर थी और अब वे 'दि कल्ट ऑफ दि बम' लेख द्वारा क्रांतिकारियों पर दूसरा हमला कर बैठे हैं। इस  संबंध में आगे कुछ कहने से पूर्व इस लेख पर हम अच्छी तरह विचार करेंगे। इस लेख में उन्होंने तीन बातों का उल्लेख किया है। उनका विश्वास, उनके विचार और उनका मत। हम उनके विश्वास के संबंध में विश्लेषण नहीं करेंगे, क्योंकि विश्वास में तर्क के लिए स्थान नहीं है। गांधीजी जिसे हिंसा कहते हैं और जिसके विरुध्द उन्होंने जो तर्कसंगत विचार प्रकट किये हैं, हम उनका सिलसिलेवार विश्लेषण करें।
      गांधीजी सोचते हैं कि उनकी यह धारणा सही है कि अधिकतर भारतीय जनता को हिंसा की भावना छू तक नहीं गयी है और अहिंसा उनका राजनीतिक शस्त्र बन गया है। हाल ही में उन्होंने देश का जो भ्रमण किया है उस अनुभव के आधार पर उनकी यह     धारणा बनी है, परंतु उन्हें अपनी इस यात्रा के इस अनुभव से इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये। यह बात सही है कि (कांग्रेस) नेता अपने दौरे वहीं तक सीमित रखता है जहां तक डाक गाड़ी उसे आराम से पहुंचा सकती है, जबकि गांधीजी ने अपनी यात्रा का दायरा वहां तक बढ़ा दिया है जहां तक मोटर कार द्वारा वे जा सकें। इस यात्रा में वे     धनी व्यक्तियों के ही निवास स्थानों पर रुके। इस यात्रा का अधिकतर समय उनके भक्तों द्वारा आयोजित गोष्ठियों में की गयी उनकी प्रशंसा, सभाओं में यदा-कदा अशिक्षित जनता को दिए जाने वाले दर्शनों में बीता, जिसके विषय में उनका दावा है कि वे उन्हें अच्छी तरह समझते हैं, परंतु यही बात इस दलील के विरुध्द है कि वे आम जनता की विचारधारा को जानते हैं। कोई व्यक्ति जनसाधारण की विचारधारा को केवल मंचों से दर्शन और उपदेश देकर नहीं समझ सकता। वह तो केवल इतना ही दावा कर सकता है कि उसने विभिन्न विषयों पर अपने विचार जनता के सामने रखे। क्या गांधीजी ने इन वर्षों में आम जनता के सामाजिक जीवन में कभी प्रवेश करने का प्रयत्न किया? क्या कभी उन्होंने किसी संध्या को गांव की किसी चौपाल के अलाव के पास बैठकर किसी किसान के विचार जानने का प्रयत्न किया? क्या किसी कारखाने के मजदूर के साथ एक भी शाम गुजारकर उसके विचार समझने की कोशिश की है? पर हमने यह किया है इसलिए हम दावा करते हैं कि हम आम जनता को जानते हैं। हम गांधीजी को विश्वास दिलाते हैं कि साधारण भारतीय साधारण मानव के सामने ही अहिंसा तथा अपने शत्रु से प्रेम करने की आध्यात्मिक भावना को बहुत कम समझता है। संसार का तो यह नियम है- तुम्हारा एक मित्र है, तुम मुझसे स्नेह करते हो, कभी-कभी तो इतना अधिक कि तुमउसके लिए अपने प्राण भी दे देते हो। तुम्हारा शत्रु है, तुम उससे किसी भी प्रकार का संबंध नहीं रखते हो। क्रांतिकारियों का यह सिध्दांत नितांत सत्य, सरल और सीधा है और यह ध्रुव सत्य आदम और हौवा के समय से चला आ रहा है तथा इसे समझने में कभी किसी को कठिनाई नहीं हुई। हम यह बात स्वयं के अनुभव के आधार पर कह रहे हैं। वह दिन दूर नहीं जब लोग क्रांतिकारी विचारधारा को सक्रिय रूप देने के लिए हजारों की संख्या में जमा होंगे।
      गांधीजी घोषणा करते हैं कि अहिंसा के सामर्थ्य तथा अपने आप को पीड़ा देने की प्रणाली से उन्हें यह आशा है कि वे एक दिन विदेशी शासकों का हृदय परिवर्तन कर अपनी विचारधारा का उन्हें अनुयाई बना लेंगे। अब उन्होंने अपने सामाजिक जीवन के इस चमत्कार के प्रेम संहिता के प्रचार के लिए अपने आप को समर्पित कर दिया है। वे अडिग विश्वास के साथ उसका प्रचार कर रहे हैं, जैसा कि उनके कुछ अनुयायियों ने भी किया है। परंतु क्या वे बता सकते हैं कि भारत में कितने शत्रुओं का हृदय-परिवर्तन कर वे उन्हें भारत का मित्रा बनाने मे समर्थ हुए हैं? वे कितने ओडायरों, डायरों तथा रीडिंग और इरविन को भारत का मित्रा बना सकते हैं? यदि किसी को भी नहीं तो भारत उनकी विचारधारा से कैसे सहमत हो सकता है कि वे इग्लैंड को अहिंसा द्वारा समझा-बुझाकर इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार करा लेंगे कि वे भारत को स्वतंत्रता दे दे।
      यदि वायसराय की गाड़ी के नीचे बमों का ठीक से बिस्फोट हुआ होता तो दो में से एक बात अवश्य हुई होती या तो वायसराय अत्यधिक घायल हो जाते या उनकी मृत्यु हो गयी होती। ऐसी स्थिति में वायसराय तथा राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच मंत्रणा न हो पाती, यह प्रयत्न रुक जाता उससे राष्ट्र का भला ही होता। कलकत्ता कांग्रेस की चुनौती के बाद भी स्वशासन की भीख मांगने के लिए वायसराय भवन के आस-पास मंडराने वालों के लिए घृणास्पद प्रयत्न विफल हो जाते। यदि बमों का ठीक से विस्फोट हुआ तो भारत का एक शत्रु उचित सजा पा जाता। मेरठ तथा लाहौर षडयंत्रा और भुसावल कांड का मुकदमा चलाने वाले केवल भारत के शत्रुओं को ही मित्र प्रतीत हो सकते हैं। साइमन कमीशन के सामूहिक विरोध से देश में जो एकजुटता स्थापित हो गयी थी, गांधी तथा नेहरू की बुध्दिमता के बाद ही इरविन उसे छिन्न-भिन्न करने में समर्थ हो सका। आज कांग्रेस में भी आपस में फूट पड़ गयी है। हमारे इस दुर्भाग्य के लिए वायसराय व उसके चाटुकारों के सिवाय कौन जिम्मेदार हो सकता है। इस पर भी हमारे देश में ऐसे लोग हैं जो उसे भारत का मित्रा कहते हैं।
      देश में ऐसे भी लोग होंगे जिन्हें कांग्रेस के प्रति श्रध्दा नहीं, इससे वे कुछ आशा भी नहीं करते। यदि गांधीजी क्रांतिकारियों को उस श्रेणी में गिनते हैं तो वे उनके साथ अन्याय करते हैं। यह इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस ने जन जागृति का महत्वपूर्ण कार्य किया है। उसने आम जनता में स्वतंत्राता की भावना जागृत की है क्योंकि उनका यह दृढ़ विश्वास है कि जब तक कांग्रेस में सेन गुप्ता जैसे 'अद्भुत' प्रतिभाशाली  व्यक्तियों का, जो वायसराय की ट्रेन उड़ाने में गुप्तचर विभाग का हाथ होने की बात करते हैं तथा अन्सारी जैसे लोगों जो राजनीति कम जानते और उचित तर्क की उपेक्षा कर बेतुकी और तर्कहीन दलील देकर यह कहते हैं कि किसी राष्ट्र ने बम से स्वतंत्राता प्राप्त नहीं की-जब तक कांग्रेस के निर्णयों में इनके जैसे विचारों का प्राधान्य रहेगा, तब तक देश उससे बहुत कम आशा कर सकता है। क्रांतिकारी तो उस दिन की प्रतीक्षा में हैं जब कांग्रेसी आंदोलन से अहिंसा की यह सनक समाप्त हो जायेगी और वह क्रांतिकारियों के कंधे से कंधा मिलाकर पूर्ण स्वतंत्रता के सामूहिक लक्ष्य की ओर बढ़ेगी। इस वर्ष कांग्रेस ने इस सिध्दांत को स्वीकार कर लिया है, जिसका प्रतिपादन क्रांतिकारी पिछले 25 वर्षों से करते चले आ रहे हैं। हम आशा करें कि अगले वर्ष वह स्वतंत्रता प्राप्ति के तरीकों का भी समर्थन करेगी।
      गांधीजी यह प्रतिपादित करते हैं कि जब-जब हिंसा का प्रयोग हुआ है तब-तब सैनिक खर्च बढ़ा है। यदि उनका मंतव्य क्रांतिकारियों की पिछली 25 वर्षों की           गतिविधियों से है तो हम उनके वक्तव्यों को चुनौती देते हैं कि वे अपने इस कथन को तथ्य और आंकड़ों से सिध्द करें। बल्कि हम तो यह कहेंगे कि उनके अहिंसा और सत्याग्रह के प्रयोगों का परिणाम, जिनकी तुलना स्वतंत्रता संग्राम से नहीं की जा सकती, नौकरशाही अर्थव्यवस्था पर हुआ है। आंदोलनों का फिर वे हिंसात्मक हों या अहिंसात्मक, सफल हों या असफल, परिणाम तो भारत की अर्थव्यवस्था पर होगा ही ।
      हमें समझ नहीं आता है कि देश में सरकार ने जो विभिन्न वैधानिक सुधार किए, गांधीजी उनमें हमें क्यों उलझाते हैं? उन्होंने मार्लेमिंटो रिफार्म, मांटेग्यू रिफार्म या ऐसे ही अन्य सुधारों की न तो कभी परवाह की और न ही उनके लिए आंदोलन किया। ब्रिटिश सरकार ने तो यह टुकडे वैधानिक आंदोलनकारियों के सामने फेंके थे, जिससे उन्हें उचित मार्ग पर चलने से पथ भ्रष्ट किया जा सके। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें तो यह घूस दी थी, जिससे वे क्रांतिकारियों को समूल नष्ट करने की उनकी नीति के साथ सहयोग करें।    गांधीजी जैसा कि इन्हें संबोधित करते हैं, कि भारत के लिए वे खिलौने-जैसे हैं, उन लोगों को बहलाने-फुसलाने के लिए जो समय-समय पर होम रूल, स्वशासन, जिम्मेदार सरकार, पूर्ण जिम्मेदार सरकार, औपनिवेशिक स्वराज्य जैसे अनेक वैधानिक नाम जो गुलामी के हैं, मांग करते हैं। क्रांतिकारियों का लक्ष्य तो शासन सुधार का नहीं है, वे तो स्वतंत्राता का स्तर कभी का ऊंचा कर चुके हैं और वे उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के बलिदान कर रहे हैं। उनका दावा है कि उनके बलिदानों ने जनता की विचारधारा में प्रचंड परिवर्तन किया है। उसके प्रयत्नों से वे देश को स्वतंत्राता के मार्ग पर बहुत आगे बढ़ा ले गए हैं और यह बात उनसे राजनीतिक क्षेत्र में मतभेद रखने वाले लोग भी स्वीकार करते हैं।
      गांधीजी का कथन है कि हिंसा से प्रगति का मार्ग अवरुध्द होकर स्वतंत्राता पाने का दिन स्थगित हो जाता है, तो हम इस विषय में अनेक ऐसे उदाहरण दे सकते हैं, जिनमेंजिन देशों ने हिंसा से काम लिया उनकी सामाजिक प्रगति होकर उन्हें राजनीतिक स्वतंत्राता प्राप्त हुई। हम रूस तथा तुर्की का ही उदाहरण लें। दोनों ने हिंसा के उपायों से ही सशस्त्रा क्रांति द्वारा सत्ता प्राप्त की। उसके बाद भी सामाजिक सुधारों के कारण वहां की जनता ने बड़ी तीव्र गति से प्रगति की। एकमात्र अफगानिस्तान के उदाहरण से राजनीतिक सूत्र सिध्द नहीं किया जा सकता। यह तो अपवाद मात्रा है।
      गांधीजी के विचार में 'असहयोग आंदोलन के समय जो जन जागृति हुई है, वह अहिंसा के का ही परिणाम था' परंतु यह धारणा गलत है और यह श्रेय अहिंसा को देना भी भूल है, क्योंकि जहां भी अत्यधिक जन जागृति हुई वह सीधे मोर्चे की कार्रवाही से हुई। उदाहरणार्थ, रूस में शक्तिशाली जन आंदोलन से ही वहां किसान और मजदूरों में जागृति उत्पन्न हुई। उन्हें तो किसी ने अहिंसा का उपदेश नहीं दिया था, बल्कि हम तो यहां तक कहेंगे कि अहिंसा तथा गांधीजी की समझौता-नीति से ही उन शक्तियों में फूट पड़ गयी जो सामूहिक मोर्चे के नारे से एक हो गयी थीं। यह प्रतिपादित किया जाता है कि राजनीतिक अन्यायों का मुकाबला अहिंसा के शस्त्रा से किया जा सकता है, पर इस विषय में संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि यह अनोखा विचार है, जिसका अभी प्रयोग नहीं हुआ है।
      दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के जो न्यायोचित आधिकार मांगे जाते थे, उन्हें प्राप्त करने में अहिंसा का शस्त्रा असफल रहा। वह भारत को स्वराज्य दिलाने में भी असफल रहा, जबकि राष्ट्रीय कांग्रेस स्वयं सेवकों की एक बड़ी सेना उसके लिए प्रयत्न करती रही तथा उस पर लगभग सवा करोड़ रुपया भी खर्च किया गया। हाल ही में बारदोली सत्याग्रह में इसकी असफलता सिध्द हो चुकी है। इस अवसर पर सत्याग्रह के नेता गांधी और पटेल ने बारदोली के किसानों को जो कम से कम अधिकार दिलाने का आश्वासन दिया था, उसे भी वे न दिला सके। इसके अतिरिक्त अन्य किसी देशव्यापी आंदोलन की बात हमें मालूम नहीं। अब तक इस अहिंसा को एक ही आशीर्वाद मिला वह था असफलता का। ऐसी स्थिति में यह आश्चर्य नहीं कि देश ने फिर उनके प्रयोग से इंकार कर दिया। वास्तव में गांधीजी जिस रूप में सत्याग्रह का प्रचार करते हैं, वह एक प्रकार का आंदोलन है, एक विरोध है जिसका स्वाभाविक परिणाम समझौते में होता है, जैसा प्रत्यक्ष देखा गया है। इसलिए जितनी जल्दी हम समझ लें कि स्वतंत्रता और गुलामी में कोई समझौता नहीं हो सकता, उतना ही अच्छा है।
      गांधीजी सोचते हैं हम नये युग में प्रवेश कर रहे हैं। परंतु कांग्रेस विधान में शब्दों का हेर फेर मात्राकर, अर्थात स्वराज्य को पूर्ण स्वतंत्रता कह देने से नया युग प्रारम्भ नहीं हो जाता। वह दिन वास्तव में एक महान दिवस होगा जब कांग्रेस देशव्यापी आंदोलन प्रारम्भ करने का निर्णय करेगी, जिसका आधार सर्वमान्य क्रांतिकारी सिध्दांत होंगे ऐसे समय तक स्वतंत्रता का झंडा फहराना हास्यास्पद होगा। इस विषय में हम सरला देवी चौधरानी के उन विचारों से सहमत हैं जो उन्होंने एक पत्र संवाददाता को भेंट में व्यक्तकिये। उन्होंने कहा-31 दिसंबर, 1929 की अर्ध्द रात्रि के ठीक एक मिनट बाद स्वतंत्रता का झंडा फहराना एक विचित्र घटना है। उस समय जीओसी, असिस्टेंट जीओसी तथा अन्य लोग इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि स्वतंत्रता का झंडा फहराने का निर्णय आधी रात तक अधर में लटका है, क्योंकि यदि वायसराय या सैक्रेटरी ऑफ स्टेट का कांग्रेस को यह संदेश आ जाता है कि भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य दे दिया गया है, तो रात्रि को 11 बजकर 59 मिनट पर भी स्थिति में परिवर्तन हो सकता था। इससे स्पष्ट है कि पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति का ध्येय नेताओं की हार्दिक इच्छा नहीं थी, बल्कि एक बालहठ के समान था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए उचित तो यही होता कि वह पहले स्वतंत्राता प्राप्त कर फिर उसकी घोषणा करती। यह सच है कि अब औपनिवेशिक स्वराज्य के बजाय कांग्रेस के वक्ता जनता के सामने पूर्ण स्वतंत्रता का ढोल पीटेंगे। वे अब जनता से कहेंगे कि जनता को संघर्ष के लिए तैयार हो जाना चाहिये। जिसमें एक पक्ष तो मुक्केबाजी करेगा और दूसरा उन्हें केवल सहता रहेगा, जब तक कि वह खूब पीटकर इतना हताश न हो जाए कि फिर न उठ सके? क्या उसे संघर्ष कहा जा सकता है और क्या इससे देश को स्वतंत्राता मिल सकती है? किसी भी राष्ट्र के लिए सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्ति का ध्येय सामने रखना अच्छा है, परंतु साथ में यह भी आवश्यक है इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए उन साधनों का उपयोग किया जाए जो योग्य हों और जो पहले उपयोग में आ चुके हों, अन्यथा संसार के सम्मुख हमारे हास्यासपद बनने का भय बना रहेगा।
      गाधीजी ने सभी विचारशील लोगों से कहा कि वे लोग क्रांतिकारियों से सहयोग करना बंद कर दें तथा उनके कार्यों की निंदा करें, जिससे हमारे इस प्रकार उपेक्षित देशभक्तों की हिंसात्मक कार्यों से जो हानि हुई, उसे समझ सकें। लोगों को उपेक्षित तथा पुरानी दलीलों के समर्थक कह देना जितना आसान है, उसी प्रकार उनकी निंदा कर जनता से उनसे सहयोग न करने को कहना, जिससे वे अलग-अलग हो अपना कार्यक्रम स्थगित करने के लिए बाध्य हो जाएं, यह सब करना विशेष रूप से उस व्यक्ति के लिए आसान होगा जो कि जनता के कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों का विश्वासपात्रा हो। गांधीजी ने जीवनभर जनजीवन का अनुभव किया है, पर वह बडे दुख की बात है कि वे क्रांतिकारियों का मनोविज्ञान न तो समझते हैं और न समझना ही चाहते हैं। वह सिध्दांत अमूल्य है, जो प्रत्येक क्रांतिकारी को प्रिय है। जो व्यक्ति क्रांतिकारी बनता है, जब वह अपना सिर हथेली पर रखकर किसी क्षण भी आत्मबलिदान के लिए तैयार रहता है तो वह केवल खेल के लिए नहीं। वह यह त्याग और बलिदान इसलिए भी नहीं करता कि जब जनता उसके साथ सहानुभूति दिखाने की स्थिति में हो तो उसकी जयजयकार करे। वह इस मार्ग का इसलिए अवलंबन करता है कि उसका सद्विवेक उसे इसकी प्रेरणा देता है, उसकी आत्मा उसे इसके लिए प्रेरित करती है।
      एक क्रांतिकारी सबसे अधिक तर्क में विश्वास करता है। वह केवल तर्क और तर्कमें ही विश्वास कता है। किसी प्रकार का गाली-गलौज या निंदा, चाहे फिर वह ऊंचे से ऊंचे स्तर से की गयी हो, उसे वह अपनी निश्चित प्राप्ति से वंचित नहीं कर सकता। यह सोचना कि यदि जनता का सहयोग न मिला तो या उसके कार्य की प्रशंसा न की गयी तो वह अपने को छोड़ देगा, निरी मूर्खता है। अनेक क्रांतिकारी, जिनके कार्यों की वैधानिक आंदोलनकारियों ने घोर निंदा की, फिर भी वे उसकी परवाह न करते हुए  फांसी के तख्ते पर झूल गए। यदि तुम चाहते हो कि क्रांतिकारी अपनी गतिविधियों को स्थगित कर दें तो उसके लिए होना तो यह चाहिए कि उनके साथ तर्क द्वारा अपना मत प्रमाणित किया जाये। यह एक और केवल यही एक रास्ता है, और बाकी बातों के विषय में किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। क्रांतिकारी इस प्रकार की डराने धमकाने से कदापि हार मानने वाला नहीं है।
      हम प्रत्येक देशभक्त से निवेदन करते हैं कि वह हमारे साथ गंभीरता पूर्वक इस युध्द में शामिल हो। कोई भी व्यक्ति अहिंसा और ऐसे ही अजीबो-गरीब तरीकों से मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर राष्ट्र की स्वतंत्रता के साथ खिलवाड़ न करे। स्वतंत्रता राष्ट्र का प्राण है। हमारी गुलामी हमारे लिए लज्जास्पद है, न जाने कब हममें यह बुध्दि और साहस होगा कि हम उससे मुक्ति प्राप्ति कर स्वतंत्रा हो सकें? हमारी प्राचीन सभ्यता और गौरव की विरासत का क्या लाभ है, यदि हममें यह स्वाभिमान न रहे कि हम विदेशी गुलामी, विदेशी झंडे और बादशाह के सामने सिर झुकाने से अपने आप को न रोक सकें।
      क्या यह अपराध नहीं है कि ब्रिटेन ने भारत में अनैतिक शासन किया? हमें भिखारी बनाया, हमारा समस्त खून चूस लिया? एक जाति और मानवता के नाते हमारा घोर अपमान तथा शोषण किया गया है। क्या जनता अब भी चाहती है कि इस अपमान को भुलाकर हम ब्रिटिश शासकों को क्षमा कर दें। हम बदला लेंगे, जो जनता द्वारा शासकों से लिया गया न्यायोचित बदला होगा। कायरों को पीठ दिखाकर समझौता और शांति की आशा से चिपके रहने दीजिए। हम किसी से भी दया की भिक्षा नहीं मांगते हैं और हम भी किसी को क्षमा नहीं करेंगे। हमारा युध्द विजय या मृत्यु के निर्णय तक चलता ही रहेगा। क्रांति चिरंजीवी हो।
                                                                                                             करतार सिंह
प्रेसीडेण्ट




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