नेशलन कालिज में भाई परमानंद प्राध्यापक थे। वे पढ़ने-लिखने में ही लगे रहते। एक प्रकार से भाई परमानंद ही लाला लाजपत रायजी की ओर से नेशलन कालिज के व्यवस्थापक थे। भाई परमानंदजी की स्थिति के व्यक्ति का केवल कुर्ता-धोती पहनना और वह मोटे और घर के धोये, बिना स्त्री किए विशेष ध्यान आकर्षित करता था। उन्हें साधारणत: लोग त्याग मूर्ति भाई परमानंदजी कहते थे।
भाई परमानंदजी को पायजामा और कोट पहनने वाले विद्यार्थियों के प्रति खासी वितृष्णा थी। जो विद्यार्थी जुल्फें रखकर तेल और कंघी का व्यवहार करते थे, उन्हें तो वे बिल्कुल जनखा ही समझते थे। वे कालेज में इतिहास पढ़ाते थे और साधारणत: विद्यार्थियों में राष्ट्र सेवा की भावना को उत्साहित भी करते थे। जिनमें ऐसी रुचि देखते उन्हें प्रोत्साहित भी करते। इस प्रसंग में यदि किसी ऐसे विद्यार्थी का नाम उन्हें सुझाया जाता जो धोबी के धुले साफ कपड़े पहनने का शौक रखता हो, तो वे उसकी ओर से तुरंत ही निराशा प्रकट कर देते।
नेशनल कालेज के प्रिंसिपल आचार्य जुगल किशोरजी थे। आचार्यजी 1951 में उ.प्र. कांग्रेस के प्रधान और तदनंतर श्रमविभाग के मंत्री हो गए थे। उ.प्र. कांग्रेस के प्रधान आचार्यजी कुछ ही समय पहले इंग्लैंड में शिक्षा के लिए कई बरस रहकर लौटे थे। उस समय उन्हें हिंदुस्तानी की अपेक्षा अंग्रेजी बोलने में ही अधिक सुविधा होती थी। कालेज में शिक्षा का माध्यम हिंदुस्तानी हिंदी और अंग्रेजी था। पुस्तकें सब अंग्रेजी में ही थीं। परंतु अध्यापक लोग हिंदुस्तानी में भी समझाने की चेष्टा करते थे। केवल आचार्यजी और प्रोफेसर जी.सी.मेहता हिंदुस्तानी नहीं बोल पाते थे। आचार्यजी का दृष्टिकोण मुख्यत: अध्ययन को प्रोसाहन देने का ही था। उन्होंने कालेज में गांधी आश्रम की पध्दति को लागू करने का यत्न नहीं किया। वे प्राय: विद्यार्थियों के अध्ययन को उचित धाराओं की ओर प्रेरित करने की चेष्टा भी करते।
कॉलेज के प्रोफेसरों की विचारधारा का प्रभाव विद्यार्थियों के विचारों पर काफी पड़ा। इनमें प्रो. जयचंद्र विद्यालंकार का नाम विशेषत: उल्लेखनीय है। जयचंद्रजी प्राय: ही विद्यार्थियों की तर्क और जिज्ञासा की प्रकृति को उकसाते रहते थे। वे भारतीय इतिहास और राजनीति के अध्यापक थे। उनकी चेष्टा रहती थी कि विद्यार्थी इतिहास को श्रुति और स्मृति मानकर केवल विश्वास द्वारा ही न अपनाते चले जाएं बल्कि तर्क और खोज के दृष्टिकोण से उसका अध्ययन करें। उनकी कक्षा में अनेक प्रकार के विषयांतरों पर भी वाद-विवाद हो जाता था, जैसे आस्तिकता-नास्तिकता, आत्मवाद और भौतिकवाद। उनका दृष्टिकोण विद्यार्थियों को बहुत ही सुलझा हुआ जान पड़ता था। इसलिए जिज्ञासु और अध्ययनशील विद्यार्थियों का एक गिरोह उनके चारों ओर इकट्ठा हो गया था जिसे भविष्य में तैयार हो जाने वाले क्रांतिकारी दल की पृष्ठभूमि कहा जा सकता है। उस गिरोह में से अधिकांश विद्यार्थी छंट गए और कुछ नए भी आ मिले।
नेशनल कालेज में अधिकांश विद्यार्थी राजनीति, अर्थशास्त्रा और इतिहास की शिक्षा ले रहे थे। यों फारसी और संस्कृत भी पढ़ाई जाती थी। फारसी पढ़ने वाले केवल दो या तीन विद्यार्थी थे और संस्कृत पढ़ने वाले पांच या छह। कुछ पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि भगत सिंह संस्कृत पढ़ता था। संस्कृत में भगत सिंह की रुचि का कारण उस समय बहुत हदतक उसके परिवार की आर्यसमाजी रुचि समझी जा सकती थी। डी.ए.वी. स्कूल में संस्कृत अनिवार्य होने के कारण उसने कुछ संस्कृत वहां भी पढ़ी थी। साहित्य की ओर उसकी प्रवृत्ति तो थी ही।
भगत सिंह मैट्रिक पास किये बिना और काफी समय गुरुद्वारा आंदोलन वगैरह में लगा कर हमारा सहपाठी बना था। इस कारण वह पढ़ाई में, खास कर पाठयक्रम में दूसरे साथियों से अपने आपको कुछ पिछड़ा हुआ अनुभव कर रहा था। कक्षा में प्रोफेसरों से उसे डांट-फटकार भी काफी सुननी पड़ती थी। भगत सिंह के स्वभाव में सब से बड़ी बात समय और परिस्थिति के अनुकूल सट जाने की थी। पढ़ाई की अपनी कमी को पूरा करने के लिए वह विशेष यत्न कर रहा था परंतु कक्षा में हम लोग यदि गुट बांधकर कोई शरारत करते तो वह पीछे नहीं रहता था। यह शरारतें अधिकतर होती थीं हमें भारतीय इतिहास पढ़ाने वाले प्रोफेसर सोंधी और प्रोफेसर मेहता की अंग्रेजी की कक्षा में। प्रोफेसर सोंधी कुछ औंघाते-औंघाते अपना लेक्चर देते थे। कोई भी सवाल कर देने पर उलझ बैठते-''तुम लिंक आफ थौट को डिस्टर्ब कर देते हो।'' उनका एक बार यह कहना था कि हम लोग अप्रासंगिक प्रश्नों की झड़ी लगा देते। परिणाम होता कि सोंधी साहब कक्षा छोड़ देते और हम लोग दंगे के लिए बाहर निकल जाते।
प्रोफेसर मेहता पढ़ाते बहुत लगन से थे परंतु उनका हिंदुस्तानी का ज्ञान बहुत परिमित था, हिंदुस्तानी शब्दों का उच्चारण और भी विचित्र। किसी भी शब्द का हिंदुस्तानी पर्यायवाची शब्द उनसे पूछ लेना मजाक आरंभ करने के लिए काफी था और फिर ठेठ पंजाबी का कोई ऊटपटांग शब्द उन्हें सुझा देना। दूसरे विद्यार्थियों के खिलखिला पड़ने पर मेहता साहब परेशान हो जाते और सबसे पहले झंडासिंह की ओर संकेत कर हुक्म दे देते-'गेट आउट आफ दि क्लास।' उसके बाद मेरी बारी आती फिर सुखदेव की फिर भगत सिंह की और दूसरे दो-एक साथियों की।
पंडित चेतरामजी शर्मा हमारे हिंदी के पहले अध्यापक थे और संगीत के विशेष अनुरागी। पंड़ित जी बहुत ही गंभीर थे और छंदों की व्याख्या करते समय उनके मात्रा और अनुपात इत्यादि को प्राय: संगीत के क्रियात्मक प्रदर्शन से समझाने की चेष्टा करते। पंडितजी को संगीत का ज्ञान गहरा होने पर भी कंठ काफी बोझल था। हम लोग संगीत की शुध्दता क्या जानें? हंसी रोकना कठिन हो जाता परंतु पंडितजी की शिष्टता का लिहाज इतना था कि अपने ऊपर जब्र करना पड़ता। हमारी मुस्कानों और आंखों में भरी शरारत की पंडितजी विशेष चिंता भी न करते थे।
प्रोफेसर जयचंद्रजी विद्यालंकार की कक्षा में किसी शरारत के लिए अवसर नहीं रहता था। उनकी बात की उपेक्षा करने में अपना ही नुकसान था। कोई भी बेतुका प्रश्न सुनकर जयचंद्रजी एक क्षण के लिए चुप हो जाते और फिर प्रश्न का उत्तर से आंखें मिला पूछ लेते-'प्रस्तुत विषय से तुम्हारे प्रश्न का क्या संबंध है?' इसलिए कोई वास्तविक समस्या होने पर ही प्रश्न किये जाते थे। जयचंद्रजी का पाठय विषय तो राजनैतिक सिध्दांत और शासन-व्यवस्था संबंधी ऐतिहासिक विश्लेषण था परंतु बातचीत प्राय: सत्याग्रह-आंदोलन पर भी चल जाती थी। और विद्यार्थी उसकी विफलता पर मनन किए बिना न रह सकते थे। अपने देश के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति की लगन मन में रखने वाले विद्यार्थियों के लिए इस मनन का एक ही परिणाम हो सकता था कि वे अपने राष्ट्र की राजनैतिक समस्या के समाधान का कोई दूसरा मार्ग सोचें।
सत्याग्रह-आंदोलन की विफलता के अनुभवों और दूसरे मार्ग की खोज की इच्छा के समय हम लोगों के हाथ कौन-सा साहित्य पड़ा? डैनब्रीन की-'माई फाइट फार आइरिश फ्रीडम', मैजिनी और गैरबाल्डी की जीवनियां, फ्रांसीसी राज्यक्रांति का इतिहास, बोल्तेर और रूसो के रूढ़िवाद विरोधी क्रांतिकारी विचार, रूसी क्रांतिकारियों की जीवनियां, 'वीराफिगन' 'क्रौपोटकिन' आदि और इस के साथ-साथ भारत में सत्याग्रह से भिन्न देश की स्वतंत्राता के लिए किये गए प्रयत्नों का परिचय जिनमें सान्याल दादा की आप बीती 'बंदी जीवन' प्राथमिक पुस्तक के रूप में थी और फिर 'रौलेट कमेटी की रिपोर्ट।'
रौलेट कमेटी ने अपनी रिपोर्ट रौलेट बिल बनाया जाने की आवश्यकता प्रमाणित करने के लिए लिखी थी। इस में भारत में हुए सशस्त्रा क्रांति की चेष्टा के प्रयत्नों का काफी ब्योरेवार वर्णन है। रिपोर्ट इन प्रयत्नों को अपराध प्रमाणित करने के लिए लिखी गई थी परंतु लेखकों का दृष्टिकोण ऐतिहासिक या वास्तविकता का यथासंभव यथार्थ (आक्जेक्टिव) चित्राण करना था। इस पुस्तक को पढ़ कर हम लोगों पर यह प्रभाव नहीं पड़ा कि भारतीय क्रांतिकारी अपराधी थे। हम इस परिणाम पर पहुंचे कि उन्होंने अपनी परिस्थितियों में एक स्वाभाविक मार्ग का अवलम्बन किया था और उस प्रयत्न के लिए संभावना का बहुत विस्तृत क्षेत्र है। हमें उन कार्यों और मार्ग का भी कुछ परिचय मिल गया।
यह याद नहीं कि किस साथी ने इन पुस्तकों को पढ़ने की बात मुझे सुझाई। इनमें से अधिकांश पुस्तकें तो कालिज के छोटे से पुस्तकालय में ही थीं। शेष कहां से कैसे आ जाती थीं, यह अब याद नहीं। उस समय उस की खोज करने की आवश्यकता भी अनुभव न हुई थी। यह भी नहीं कहा जा सकता कि इन पुस्तकों को हम कुछ लोग ही, भगत सिंह और सुखदेव जैसे ही पढ़ते हों। सभी विद्यार्थी इन पुस्तकों को पढ़ते थे।
एक दिन मैं और भगत सिंह रावी नदी में नौका खेने का अभ्यास करने गए थे। हम दोनों ही थे, तीसरा कोई साथ नहीं था। यह तो याद नही कि प्रसंग कैसे चला परंतु एकांत देखकर मैंने भगत सिंह से एक बात पूर्ण विश्वास से कह डाली- 'हम लोग अपना जीवन देश के लिए अर्पण करने की प्रतिज्ञा कर लें।'
भगत सिंह ने सहसा गंभीर हो कर अपना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया- 'मैं प्रतिज्ञा करता हूं।'
हाथ मिलाने के बाद हम दोनों ही कुछ देर तक चप्पू चलाना छोड़ निश्चल बैठे रहे। उस समय सूर्यास्त हुआ ही था, आकाश पर लाली थी। अंधेरा होता देखकर हम लोगों ने नाव किनारे लगाकर मांझी को सौंप दी। लौटते समय भी हम लोग चुप ही रहे, बोले नहीं। यह बात इतनी भावुकता से हुई थी कि उस की याद बनी है।
सन् 1925 की एक घटना याद है। पंजाब में हिंदी साहित्य सम्मेलन की नयी-नयी स्थापना हुई थी। उर्दू प्रधान लाहौर में सम्मेलन की ओर बहुत कम लोगों की रुचि थी। नेशनल कालेज के कुछ विद्यार्थी और संस्थाओं के हिंदी अध्यापक ही प्राय: उस में योग देते। सम्मेलन ने किसी एक विषय पर सर्वोत्ताम निबन्ध लिखने के लिए पचास रुपये के पुरस्कार की घोषणा की थी। मैंने निबंध लिखा था। कई महीने तक परिणाम की प्रतीक्षा करने पर पता लगा कि पुरस्कार किसी व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता क्योंकि निर्णायकों ने तीन निबन्धों को एक ही कोटि का ठहराया था। यह भी मालूम हो गया कि उन तीनों में से एक निबंध मेरा था। दूसरे दो निबंध लेखकों के नाम जानने के लिए खोज की तो पता लगा कि दूसरा निबंध भगत सिंह का था और तीसरा जयचंद्रजी की मां जी का था।
लिखने की ओर भगत सिंह की प्रबल रुचि थी। मैं केवल हिंदी में लिखता था। भगत सिंह उर्दू में भी लिखता था। कुछ दिन बाद स्थानीय उर्दू पत्रों में उस की लिखी छोटी-छोटी चीजें प्रकाशित भी होने लगी थीं। अपने विचारों के प्रचार के लिए अथवा सन 1924-25 में प्राय: सोई राष्ट्रीय भावना को जगाने के लिए, नेशनल कालिज के विद्यार्थियों ने नाटकों का माध्यम भी अपनाया था। इस चेष्टा के दोनों ही कारण थे, नाटक खेलने की इच्छा और नाटक को अपने विचारों के प्रचार का साधन बनाना भी। किसी लेखक का 'महाभारत' नाटक था। उसके वार्तालापों में जगह-जगह परिवर्तन करके हम लोगों ने अपने लिए उपयोगी बना लिया। इस नाटक का नाम रखा गया था 'कृष्ण विजय'। व्यंजना से अंग्रेजों को कौरव और देश भक्तों को पांडव बना लिया था। इस में कुछ गाने, विशेष कर प्रहसन भाग में, सम्मिलित कर लिए थे। इन में से एक गाना था-'कदे तूं बी हिंदिया होश सम्भाल ओ' (ऐ हिंद कभी तू भी होश सम्भाल! तेरा घरबार विदेशी लूट ले गया और तू भी बेखबर सो रहा है। ओ लूटने वाले हमारे साथ ज्यादतियां न कर। हम तेरी सब चालकियां समझ चुके है... इत्यादि।
यह गाना सरदार अजीत सिंह के एक पुराने गीत-'पगड़ी सम्भाल ओ जट्टा' (अरे बेखबर किसान तेरे सिर की पगड़ी उतरी जा रही है) के भाव को लेकर बनाया गया था। सरदार अजीतसिंह के उस गीत को सरकार ने गैरकानूनी कर दिया था। हमारे नाटकों के ऐसे विदेशी सरकार-द्रोही भागों को भी गैरकानूनी करार दे दिया गया था। कुछ दिन हम लोगों को नाटक खेलने का खूब शौक रहा। दो नाटक हम लोगों ने लाहौर में खेले। फिर 'गुजरांवाले' में प्रांतीय-कांग्रेस की कांफ्रेंस के अवसर पर भी 'भारत दुर्दशा' नाटक खेला।
नाटकों का आरंभ किया गया था देहरादून में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के मौके पर 1924 में राजा भोज के कवि दरबार का नाटक खेलने से। राजा भोज के दरबार में आधुनिक हिंदी कवियों की उपस्थिति की कल्पना जयचंद्रजी के मस्तिष्क की उपज थी। इसमें मैंने राजा भोज की भूमिका की थी। भगत सिंह भी 'भारत दुर्दशा' आदि कई नाटकों में अभिनय करता रहा। नाटकों के कार्यक्रम में साथी झंडासिंह (अब सरदार जसवंत सिंह) धर्माभिलाषी, हुंडू और बलदेव जो अब रिजर्व बैंक आफ इंडिया में बहुत जिम्मेवार पद पर हैं, बहुत अग्रणी भाग लिया करते थे। इन दिनों भगत सिंह और सुखदेव प्राय: कालेज से गायब रहने लगे थे। भगत सिंह का व्यवहार मजाक के अलावा कामकाज के बारे में कुछ सख्त हो गया था ।
इस समय दल के संगठन की बात कुछ-कुछ स्पष्ट होने लगी थी। हिंदुस्तानी प्रजातंत्र दल(एच.आर.ए.) का एक परचा लाहौर में बलराज के दस्तखत से बांटा गया था। इस खतरनाक परचे का सफल बंटवारा संगठन और आयोजन के बिना नहीं हो सकता था। मैं सहयोग तो दे रहा था परंतु स्कूल में अपनी नौकरी और परीक्षा की तैयारी छोड़ने के लिए तैयार न था। सत्याग्रह के मार्ग की विफलताओं पर हम लोगों की बहस उन दिनों बहुत चलती थी और प्रजातंत्र और समाजवादी पध्दति की भी चर्चा काफी जोर से होती थी। समाजवाद की ओर ध्यान जाने का सीधा-सादा कारण था, रूस के संबंध में साहित्य हाथ आना। 'तिलक स्कूल आफ पालिटिक्स' और 'सरवेंट्स आफ पीपुल्स सोसाइटी' के अतिरिक्त लाला लाजपत रायजी ने अपने पिता के नाम पर 'द्वारकादास पुस्तकालय' की भी स्थापना की थी। इस पुस्तकालय में राजनैतिक पत्र-पत्रिकाएं और सामयिक साहित्य काफी मात्रा में आता था।
कानपुर के प्रसिध्द समाजवादी राजाराम शास्त्री इस पुस्तकालय के पुस्तकालयाध्यक्ष थे। हम लोग प्राय: समवयस्क थे और शास्त्रीजी को हमारे विचारों से भी सहानुभूति थी इसीलिए 'द्वारकादास पुस्तकालय' हम लोगों का अच्छा-खासा अब बन गया था। इस पुस्तकालय में सुविधा यह थी कि आस-पास अनेक कालेजों के बोर्डिंग होने के कारण यहां विद्यार्थी राजनैतिक अथवा क्रांतिकारी साहित्य में रुचि रखते थे।
शास्त्रीजी स्वभाव से विनोदी, मिलनसार और कद में काफी छोटे हैं। इसलिए प्राय: उनके ना ना करते रहने पर भी लाइब्रेरी से जरूरत के मुताबिक पुस्तकें झपट ली जा सकती थीं। कभी रात-बिरात घूम-घाम कर आने पर उनकी खाट या कमरे पर भी जबर्दस्ती दखल कर लिया जा सकता था। एच.आर.ए. का परचा बांटने में भी शास्त्राीजी का पूरा सहयोग था।(क्रमशः)
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