मंगलवार, 29 मार्च 2011

रघुवीर सहाय की पांच छोटी कविताएं



उसका रहना  
  रोज़ सुबह उठकर पाते हो उसको तुम घर में
  इससे यह मत मान लो वह हरदम मौजूद रहेगी



बेटे से

 टूट रहा है यह घर जो तेरे वास्ते बनाया था
जहाँ कहीं हो आ जाओ... 
नहीं यह मत लिखो लिखो जहाँ हो वहीं अपने को टूटने से बचाओ
हम एक दिन इस घर से दूर दुनिया के कोने में कहीं
बाहें फैलाकर मिल जाएँगे



 भ्रम निवारण
तुम क्या समझते हो कि
हर लड़की जो मुझे देखकर 
मुस्कुराती है मेरी पहचानी है
नहीं,वह तो सिर्फ 
अपनी दुनिया में मस्त रहती है



ग़रीबी
 "हम गरीबी हटाने चले
और उस समाज में जहाँ आज भी दरिद्र होना दीनता नहीं
भारतीयता की पहचान है,दासता विरोध है दमन का प्रतिकार है
हम ग़रीबी हटाने चले
हम यानी ग़रीबों से नफ़रत हिकारत परहेज़ करनेवाले
 हम गरीबी हटाते हैं तो ग़रीब का आत्म सम्मान लिया करते हैं
इसलिए मैं तो इस तरह ग़रीबी हटाने की नीति के विरूद्ध हूं
क्योंकि वही तो कभी-कभी अपने सम्मान की अकेली 
रचना रह जाती है



 ख़तरा 
एक चिटका हुआ पुल है 
एक रिसता हुआ बाँध है
ज़मीन के नीचे बढ़ता हुआ पानी है
ख़तरे में राम ख़तरे में राजधानी है
पहले खुदा के यहाँ देर थी अँधेर न था
 अब खुदा के यहाँ अंधेर है और उसमें देर नहीं







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