जब इतिहास की उत्तरआधुनिकतावादी उत्तर-संरचनावादी पाठ की जांच यह पता लगाने के लिए की जाती है कि महाख्यान को किस तरह दबाया जाता है जिसकी परिणति अनिवार्यत: अतीत वर्तमान और भविष्य की खास संरचना में होती है तभी महाख्यान के परित्याग की कीमत और विषय वस्तु सबसे अधिक स्पष्ट होती है। जब फ्रांस की क्रांति की व्याख्या राजशाही और बुर्जुआ के बीच संघर्ष, जिसमें उग्र क्रांतिकारियों को शामिल कर मध्यस्थता की गई, के रूप में नहीं बल्कि आवाम, जो जितना बिंब से उत्तेजित हुई उतना ही राजनीतिक सिध्दांत से, की सांकेतिक इच्छा के प्रकटीकरण के रूप में की जाती है तो समयुगीन इतिहास लेखन में वर्ग को खारिज करने की प्रवृत्ति उल्लेखनीय रूप से परिलक्षित होती है। प्राच्य महाख्यान की अपनी अस्वीकृति तथा साम्राज्यवादी लूट और मूल निवासियों के प्रतिरोध के दुर्भाग्यपूर्ण पाठ निर्माण के कारण उत्तरऔपनिवेशिक विरचनावादी लेखन का विडंबनायुक्त परिणाम उन सीमांतिक 'अन्यों' को चुप कराना है जिनके विभेदों का उत्सव मनाया जाता है लेकिन विश्विक स्तर पर वर्ग निर्माण के केंद्रीकृत संपर्क को संस्कृतियों और देशों की दुर्बोध पृथकताओं में तोड़ दिया जाता है। डेविड हार्वे के शब्दों में :
उत्तरआधुनिकतावाद आत्मपदार्थीकरण तथा विभाजनों को हमें स्वीकार करने को कहता है। यह दरअसल स्थानीयता, स्थान या सामाजिक समूह निर्माण के प्रति सभी आसक्तियों को छिपाने के कार्य की सराहना करता है जबकि उस प्रकार के महा-सिध्दांत (मेटा-थ्योरी) को अस्वीकृत करता है जो उन राजनीतिक-आर्थिक प्रक्रियाओं (मुद्रा प्रवाह, अंतर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन, वित्तीय बाजार) को समझ सकता है जो अपनी गहराई, तीव्रता और दैनिक जीवन में पहुंच की दृष्टि से अधिकाधिक सार्वभौम होती जा रही हैं।
अत: महाख्यान के प्रति उत्तरआधुनिकतावादी विरोध भावना अपने साथ एक खास 'प्राइस टैग' लटका कर चलती है जिसमें वर्ग का महत्व प्राय: सार्वभौम रूप से अंकित होता है। 'वर्ग से पश्चगमन' के साथ यह प्रक्रिया सिध्दांत में कम और बीसवीं सदी के अंतिम बरसों की भौतिक राजनीति में अधिक निहित है। यह एक ऐसी वापसी जो पूंजीवाद और राज्य की ओर से नए हमलों के कारण तीव्र हो गई है तथा 'वास्तव में उपस्थित समाजवाद' की स्तालिनवादी विरूपणों तथा अंतिम पतन द्वारा निर्धारित होती है। यह यहां एक इतिहासकार के विश्वासपूर्ण वक्तव्य में स्पष्ट है। पैट्रिक जॉयस का दावा है कि ब्रितानी इतिहास, जिसकी विवचेना कभी वर्ग संघर्ष के रूप में की जाती थी, को अब अनिवार्यत: दूसरे रूप में समझा जाना चाहिए : एक व्यापक अर्थ में कहा जा सकता है कि वर्ग का 'पतन' हो गया है। ऐतिहासिक विश्लेषण का सर्वमान्य संवर्ग होने के बजाए यह अन्य पदों में एक पद बन गया है जो मोटे तौर पर अन्य पदों के समान है (वर्ग के 'पतन' से मेरा यही अभिप्राय है), इसका कारण ढूंढ़ना कोई मुश्किल नहीं है। ब्रिटेन में आर्थिक अवनति तथा पुनर्संरचना के कारण रोजगार के पुराने शारीरिक श्रम वाले क्षेत्र का विखंडन हो गया है और जिसे गलती से 'पारंपरिक' मेहनतकश वर्ग माना जाता था। 1970 के दशक से दक्षिणपंथ का उत्थान और ट्रेड यूनियनों सहित वामपंथ का पतन आर्थिक परिवर्तन की भी समान दिशा का संकेत देना था। यह न केवल शिक्षाविदों पर बल्कि व्यापक जनसमुदाय पर वर्ग तथा श्रमकार्य पर आधारित श्रेणियों की ढीली होती पकड़ का संकेत था। ब्रिटेन में हो रहे परिवर्तन अन्य स्थानों में भी प्रतिबिंबित हो रहे थे लेकिन सबसे बड़ा परिवर्तन साम्यवादी दुनिया का विघटन और इसी के साथ बौध्दिक मार्क्सवाद का पीछे हटना था।
इस प्रकार के कथन की 'विरचना' करना इसकी विषय वस्तु की पारदर्शी अपरिष्कृति का परदाफाश करना है, जिसकी 'टाइम' पत्रिका के साथ निराशाजनक समानता है। यदि 1990 के दशक की प्रवृत्तियां स्पष्ट रूप से वैसी ही थी, जैसी कि जॉयस ने उल्लेख किया था तो निश्चित ही ऐसा नहीं है कि कल्पित परिवर्तन की इस अवधि के अर्थों को एक अतीत समाज में अंतरित कर दिया जाए जो इससे बिलकुल अलग है। भ्रष्ट और विरूपित मजदूर 'राज्यों' (सोवियत संघ, पोलैंड, हंगरी आदि) के पतन की उन्नीसवीं सदी के आरंभ के बरसों की वर्ग संरचना की हमारी गवेषणा में क्या संभव प्रासंगिकता हो सकती है? क्या यह कल्पित बुध्दिजीवियों के लिए अपेक्षाकृत अधिक हानिकारक नहीं है कि वे अपनी व्याख्यात्मक सत्यनिष्ठा को राजनीतिक फैशन के स्थूल सिक्के में, अपनी कल्पित रूप से नए विचार की अदला-बदली कर रहे हों जिसमें किसी खास ऐतिहासिक काल की पूर्णरूपेण पक्षपाती राजनीति टपक रही हो?
विडंबना यह है कि जॉयस के शब्द ऐतिहासिक भौतिकवाद के महत्व को कम करने के बजाए इसकी पुष्टि करते हैं। जैसा कि जॉयस वर्ग के 'पतन' को भूमंडलीय पुनर्संरचना, टे्रड यूनियन और वामपंथ की हार, सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप के अंत:स्फोटन, दक्षिणपंथ के उदय का परिणाम मानते हैं, ऐसे में यह 'बौध्दिक मार्क्सवाद' की पुष्टि नहीं तो और क्या है? क्या मार्क्स ने नहीं लिखा कि 'शासक वर्ग के विचार ही हर युग में प्रचलित विचार होते हैं' और क्या यह सुझाव नहीं दिया कि 'परिवर्तन के लिए उत्साहपूर्ण प्रयास के क्षणों में इस प्रकार के विचारों की परिणति पुराने नित्यकर्म के और गहरे वर्चस्व के रूप हो सकती है जो कि निश्चित ही उत्तरआधुनिक की विशेषता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद यह दरशाएगा कि एक युग में राजनीतिक अर्थरचना की दिशा और इसके आनुषंगिक सिध्दांतों तथा दूसरे ऐतिहासिक काल में उत्पादन तथा संघर्ष के वास्तविक सामाजिक संबंधों के बीच व्यापक अंतर है। जॉयस दोनों को मिला देते हैं। ऐसा करने में वह पुन: अतीत और वर्तमान दोनों का अहित करते हैं। जहां वामपंथ की लगातार पराजय की पुस्तक सूची के समान सूचीबध्दता की कुछ अभिव्यंजना समयुगीन राजनीतिक आर्थिक परिवर्तन में हुई है, वहीं जॉयस ने अन्य आयामों की उपस्थिति की कम चर्चा की है। उनका विवरण एकतरफा है और एकआयामी भी।
हां, निश्चित तौर पर स्तालिनवादी अर्थव्यवस्थाएं और उनकी प्रचलित जातियों ने, क्यूबा और चीन (थोड़ा कम) से बाहर, 1990 के दशक के निजीकरण की निरंकुशताओं में सीधे छलांग लगा दी है जिसकी भविष्यवाणी त्रातस्कीवादी परंपरा के मार्क्सवादी 'दि रिव्योलूशन बिट्रेड' (1937) के प्रकाशन के समय से ही करते रहे हैं। जो स्तालिनवाद के नौकरशाहीपरक शिकंजे में बाजार संबंधों की पुनर्स्थापना के विरुध्द एक मौलिक, लेकिन त्रुटिपूर्ण अवरोध देखते थे। उनके विरुध्द त्रातस्की ने लिखा, 'वास्तव में पूंजीवाद का पीछे फिसलना पूरी तरह संभव है।'14 1989 के बाद के बरसों में स्तालिनवादी अंत:स्फोटनों तथा पूंजीवादी प्रतिक्रांतियों से वर्ग राजनीति को करारा झटका लगा। फिर भी इस बात का कोई संकेत नहीं है कि इससे सामाजिक परिवर्तन तथा मानव संभाविता (महाख्यान की प्रमुख श्रेणी) के एक अभिकरण के रूप में वर्ग का महत्व कम हो गया है। सचमुच वर्ग संघटन को पुनर्जीवित करके ही 1990 के दशक के दौरान रूस तथा अन्य देशों में खोई समाजीकृत मानवता को पुन: प्राप्त किया जा सकेगा या हाल के पूंजीवाद के पुनर्जागरणवाद की पहले से ही स्पष्ट हानियों से कोई लाभ नहीं होगा। एक दशक से भी अधिक समय तक येल्त्सिन के तानाशाही महान रूसवाद तथा छोटे 'राष्ट्र' के अतिराष्ट्रवादों की बर्बरता से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि 'राष्ट्रीय अस्मिता' की राजनीति का परिणाम क्या होता है।
इस प्रकार वर्ग ने शक्ति की एक श्रेणी तथा सक्रियतावाद के एक अभिकरण, दोनों रूपों में अपने मौलिक महत्व को पुनर्स्थापित किया है। अधिकाधिक मानवता पूंजीवाद के अति निरंकुशतावादी, अनिवार्यतापरक तथा समरूपकारी आवेगों की विनाशकारी शक्तियों का सामना कर रही है। और वर्तमान में ये आावेग और भी अधिक तीव्र बदले की भावना से आक्रमण कर रहे हैं क्योंकि कभी भ्रष्ट और विरूपित रहे मजदूर-राज्य भी अपने अस्तित्व के लिए सर्वहारा की शक्तियों पर निर्भर करने के बजाए विश्व बाजार के विचारधारात्मक अमूर्तनों की ओर ताकते हैं। सामूहिक हड़ताल अब आए दिन पूंजीवादतथा इसके राज्यों, फ्रांस से लेकर कनाडा, तथा कोरिया से लेकर ब्राजील तक को चुनौती देते हैं। सोवियत मजदूर 1990 के दशक के समस्यामूलक अभिप्रायों के बावजूद पुन: कम्युनिस्ट को वोट दे रहे हैं, जिन्होंने समाजवाद को कभी स्तालिनवाद की पीढ़ियों की सड़ांध में खराब होते देखा। 1995 के अंत में पश्चिम के उन्नत पूंजीवादी देशों में हुए चुनाव यह प्राय: सार्वभौम रूप में स्थापित करते हैं कि समाज का प्रमुख असंतोष उस सामाजिक व्यवस्था की भौतिक विफलता में है, जिसने अमीरों और गरीबों के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया है। जिसने कल्पित मध्यम वर्ग का महत्व कम किया है और खुशकिस्मती से अपनी आजीविका बचाकर रखे गरीब मजदूरों के रहन-सहन के स्तर को और भी खराब किया है। भौतिक रूप से संरचित प्रतिरोध का यह महाख्यान विशिष्ट उत्पीड़नों को चाहे जितना काटे, वर्ग संघर्ष से अलग इसका कोई उत्तर नहीं है। वर्ग का उतना पतन नहीं हुआ है जितना यह वापस सामने आया है।
स्वाभाविक है कि यह कहीं भी नहीं गया था। इसकी पहचान कई बहुल वस्तुपरकताओं (सब्जेक्टिविटिज) में से एक की है। दरअसल वर्ग उत्तरसंरचनावाद द्वारा खड़ा किए गए विश्लेषणात्मक दुर्ग के कारण विश्लेषणात्मक तथा राजनीतिक दृष्टि से ओझल हो गया है। यह विश्लेषणात्मक दुर्ग ऐसे क्षण में खड़ा किया गया है जब वामपंथ को उस स्पष्टता और दिशा की सख्त आवश्यकता है जो एक संवर्ग, एक अभिकरण, एक संरचना और एक राजनीति के रूप में वर्ग ही प्रदान कर सकता है। सामान्य रूप में मार्क्सवाद की विरासत तथा विशेष रूप से ऐतिहासिक भौतिकवाद को ही इस आच्छादन को चुनौती देना है। यही इस प्रकार के भौतिक गलत अध्ययन का विकल्प प्रस्तुत कर सकता है। ऐसा यह विरोधात्मक विश्वदृष्टि का निर्माण कर करेगा जो वर्ग संघर्ष की पराजय तथा अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक आंदोलन के कमजोर होने की दिशा को पलट सके; जो कि पिछले तीस बरसों में पूंजीवाद तथा राज्य के ऊर्ध्वगमन के कारण हुआ है। जो विचारक उत्तरआधुनिकतावादउत्तर-संरचनावाद की अस्थायी प्रकृति को समझने मे विफल रहे हैं, जिनमें से कई मार्क्सवाद के अनुकूल परिस्थितियों के अकादमिक मित्र भी हैं, और अपनी तार्किक रूप से संरचित पहचान की राजनीति की हाल की घोषणाओं में बहुत कुछ दांव पर लगाया है, हो सकता है कि वे उन अंतिम लोगों में से हो, जो पूंजीवाद की सर्वसत्तात्मक भौतिकता के अर्थग्रहण में वर्ग के पुनर्जीवन को स्वीकार करें। निस्संदेह वे 'विभेद' के कुछ दूसरे रूप को ढूंढ लेंगे, जिससे वे चिपके रहें तथा जो वस्तुपरकता तथा पूंजीवाद के अधीन इसके दमनकारी निरपेक्षकरण में लिप्त होने की आवश्यकता से बेहतर हो। वही वर्ग सत्ता के विभिन्न रूपों को संघटित करने तथा मनुष्य की अन्य श्रेणियों को समाहित करने की अपनी एकल क्षमता में शोषण के उस महाख्यान को शासन करता तथा शासित होता है जिसके भीतर सभी अस्मिताएं अंत: दमनवर्चस्व का अपना स्तर पाती हैं। सचमुच यह दुनिया को देखने का पुराना नजरिया है। लेकिन उत्तरआधुनिकतावादउत्तर-संरचनावाद के होते हुए भी, वे सारी चीजें जो पुरानी हैं हमेशा मूल्यहीन नहीं होतीं। जैसा कि मार्क्सवाद के एक 'बुजुर्ग'(ओल्डमैन), जो कि उग्र प्रबोधन मूल्यों के आजीवन पक्षधर थे, ने एक बार नीतिवचन, जो भौतिकवाद के अतीत, वर्तमान और भविष्य से जुड़ा है, में कहा था कि 'जो अपने पुराने दृष्टिकोण की रक्षा नहीं कर सकते, नए दृष्टिकोणों को कभी जीत नहीं सकेंगे।'
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