मंगलवार, 29 मार्च 2011

यादों के आइने में भगतसिंह और उनके साथी -2-यशपाल


     आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद ने यद्यपि विदेशी शासन से विद्रोह की पुकार नहीं उठाई थी, अपने धर्मग्रंथ 'सत्यार्थप्रकाश' में उन्होंने राजभक्ति का भी उपदेश जरूर दिया है परंतु वे यह लिखे बिना भी नहीं रह सके कि विदेशी शासन चाहे जितना भी सुखदायक और उन्नतिशील क्यों न हो, अपनी जाति के स्वतंत्र शासन से अच्छा नहीं हो सकता। आर्यसमाज के आंदोलन से प्रभावित होने वाले लोगों की भावना पर स्वामीजी के इस वाक्य का प्रभाव न पड़ा हो, यह नहीं हो सकता। यह सामाजिक चेतना का अनिवार्य परिणाम था। एक समय ऐसा था कि कोई भी व्यक्ति आर्यसमाजी बन जाने से ही सरकार की दृष्टि में राजनैतिक रूप से संदिग्ध हो जाता था। उस समय किसी नवयुवक के आर्यसमाजी बन जाने पर परिवार के लोग ऐसे ही चेहरा लटका लेते थे जैसे कि आजकल घर के लड़के के कम्युनिस्ट बन जाने पर आशंका अनुभव की जाती है।
      आर्यसमाज के प्रभाव से देश की अधोगति के प्रति असंतोष, समाज को पतन से बचाने की इच्छा और विदेशी शासन के प्रति मूक विरोध की भावना दो तरह प्रकट हो रही थी। इसका एक रूप था- भारत की प्राचीन समृध्दि और शक्ति का अत्युक्तिपूर्ण प्रचार। इसका अभिप्राय था अपने देश और समाज को हीन न समझ कर आत्मविश्वास का भाव पैदा करना। अपने समाज की श्रेष्ठता के विश्वास का अर्थ था; अपने समाज में गिरी हुई अवस्था से उन्नति करने का साहस उत्पन्न करना; परंतु जब अपनी श्रेष्ठता के विश्वास के कारण हम ने संसार के दूसरे देशों में हुई प्रगति से आंखें मूंद लीं, तो यह मिथ्या विश्वास हमें उन्नति से रोकने लगा।
      आर्यसमाज द्वारा उत्पन्न की गई सुधार की भावना का दूसरा रूप था- विदेशी सरकार के नियंत्राण से मुक्त अपनी शिक्षण संस्थाएं स्थापित करना। स्वतंत्र देश और समाज की उन्नति की आशा जनता में शिक्षा द्वारा ही जगाई जा सकती थी।
      आर्यसमाज में संगठनात्मक रूप से दो पार्टियां रही हैं, एक कालिज पार्टी और दूसरी गुरुकुल पार्टी। कालिज पार्टी में सरकारी नौकरों, वकीलों और सरकारी विश्वविद्यालयों से संबंधित शिक्षण संस्थाओं के लोगों की अधिकता रही है। यह पार्टी राजभक्ति की दृष्टि से विदेशी सरकार के अधिक समीप थी। दूसरी, गुरुकुल पार्टी का मुख्य आधार प्राचीन शिक्षा प्रणाली और प्राचीन संस्कृत का पुनरुत्थान रहा है। गुरुकुल पार्टी की शिक्षण संस्थाओं का सरकारी यूनिवर्सिटियों से कोई संबंध नहीं रहा इन के सामने सरकार द्वारा अस्वीकृति कर दिए जाने का भय नहीं था। इसलिए इस पार्टी से संबंधित लोगों में विदेशी सरकार के प्रति घृणा और विरोध का भाव भी अपेक्षाकृत उग्र रहा है, परंतु गुरुकुल पार्टी भी राजद्रोही समझ ली जाने के भय से सर्वथा मुक्त न थी और समय-समय पर हर उच्च पदस्थ अंग्रेज हाकिमों को अपनी संस्थाओं में निमंत्रण दे-दे कर यह विश्वास दिलाने की चेष्टा किया करती थी कि वह केवल धार्मिक संस्था मात्रा है। राजनीति से उसका कोई संबंध नहीं है। विदेशी शासन के प्रति इन के मन में घृणा और विरोध था परंतु उसे प्रकट करने का साहस इन में भी न था।
      बचपन में मैं स्वयं लगभग सात वर्ष गुरुकुल में रहा हूं। मुझे याद है कि गुरुकुलकांगड़ी विश्वविद्यालय के संस्थापक महात्मा मुन्शीराम जी, जो बाद में संन्यास ग्रहण करके स्वामी श्रध्दानंद कहलाने लगे थे, प्रांतीय गवर्नरों और वाइसरायों को गुरुकुल आमंत्रिात करके उनका प्रेमपूर्वक सत्कार करने का पाखंड करते रहते थे। जब दिल्ली में लार्ड हार्डिंग पर बम फेंका गया और लाट साहब बाल-बाल बच गए तो गुरुकुल में ईश्वर की इस कृपा पर धन्यवाद देने के लिए एक सभा की गई थी। लार्ड और लेडी हार्डिंग के चित्र विद्यार्थियों को बांटे गए। उनके दीर्घ जीवन के लिए ईश्वर से प्रार्थना की गई थी। पाखंड शब्द का उपयोग मैंने इसलिए किया है कि गुरुकुल कांगड़ी के वातावरण में अंग्रेज और विदेशी शासन के प्रति उत्कट घृणा थी। विदेशी शासन के प्रति वहां परवशता का भाव था, प्रेम का नहीं।
      गुरुकुल पार्टी में राजनैतिक चेतना अधिक होने का प्रमाण कालिज पार्टी के प्रमुख नेता महात्मा हंसराज और गुरुकुल पार्टी के प्रमुख नेता स्वामी श्रध्दानंद के व्यवहार से ही स्पष्ट हो जाता है। 1921 में जब जलियांवाला बाग की घटना के कारण विदेशी शासन और देश की जनता के आंदोलन की टक्कर ने उग्र रूप धारणा कर लिया तो स्वामी श्रध्दानंद राजभक्ति की अपनी पुरानी घोषणाओं के बावजूद राष्ट्रीय आंदोलन के अगले मोर्चे पर आए बिना न रह सके और उनकी गणना कांग्रेस के उग्र राजनैतिक नेताओं में होने लगी। दूसरी ओर कालिज पार्टी के अधिकारी विद्यार्थियों के राजनैतिक दमन में सरकार का साथ दे रहे थे।
      सरदार अजीत सिंह ने मुख्यत: और सरदार किशन सिंह ने भी विदेशी शासन  विरोधी राजनैतिक आंदोलन में भाग लिया था। उस समय अभी कृष्ण मंदिर (जेल) में तपस्या करके आत्मिक शक्ति द्वारा स्वराज्य प्राप्त कर लेने के गांधीवादी सिध्दांत का विकास नहीं हो पाया था। इसलिए सरदार अजीत सिंह पुलिस के हाथ पड़ कर जेल में सड़ते रहने के बजाय फरार होकर अपना काम करते रहे। गिरफ्तारी से बचने के लिए अम्बाप्रसाद सूफी के साथ वे भारत के अनेक भागों और नैपाल की तराई में फिरते रहे और फिर इस देश में कुछ कर पाने का अवसर न देखकर विदेश चले गए। विदेश में भी वे लाला हरदयाल, राजा महेंद्र प्रताप और बरकतुल्ला आदि दूसरे प्रमुख क्रांतिकारियों के सहयोग से जैसे तैसे भारत में राजनैतिक क्रांति की तैयारी के लिए प्रयत्न करते ही रहे। इटली से लौटे एक मित्र का कहना है कि दूसरे महायुध्द के समय रोम से रेडियो पर जो ब्रिटिश विरोधी प्रचार हिंदुस्तान में होता था और जिस की भाषा में ब्रिटिश साम्राज्यशाही और भारतीय ब्रिटिश सरकार के प्रति अदम्य घृणा और विरोध उबला पड़ता था वह सरदार अजीत सिंह के ब्रिटिश सरकार से आमरण टक्कर लेते रहने की भावना का ही परिणाम था।
      सरदार अजीत सिंह के लिए 1948 से पहले भारत लौट सकना संभव न हुआ। जिस समय वे लौटे, अत्यंत वृध्द और निरंतर संघर्ष से जीर्ण हो चुके थे। शीघ्र ही उन का देहांत हो गया। सरदार किशन सिंह भी कुछ हद तक अपने भाई का साथ देते रहे
ब्रिटिश विरोधी प्रचार हिंदुस्तान में होता था और जिस की भाषा में ब्रिटिश साम्राज्यशाही और भारतीय ब्रिटिश सरकार के प्रति अदम्य घृणा और विरोध उबला पड़ता था वह सरदार अजीत सिंह के ब्रिटिश सरकार से आमरण टक्कर लेते रहने की भावना का ही परिणाम था।
      सरदार अजीत सिंह के लिए 1948 से पहले भारत लौटना संभव न हुआ। जिस समय वे लौटे, अत्यंत वृध्द और निरंतर संघर्ष से जीर्ण हो चुके थे। शीघ्र ही उनका देहांत हो गया। सरदार किशन सिंह भी कुछ हद तक अपने भाई का साथ देते रहे।रौलेट-कानून विरोधी हड़ताल उसी समय टूटी जब गांधी ने अपनी भूल पर पश्चाताप करके हड़ताल को तुरंत तोड़ देने की आज्ञा दे दी। यह हड़ताल केवल लाहौर में ही नहीं अमृतसर, गुजरावाला आदि कई शहरों में भी इसी रूप में हुई।
      रौलेट कानून के विरुध्द प्रदर्शनों और हड़तालों को रोक कर गांधीजी और कांग्रेस ने सरकार द्वारा किए गए दमन की जांच की जाने की मांग और प्रार्थना अंग्रेज सरकार से आरम्भ की। कांग्रेस की यह मांग सरकार द्वारा स्वीकार न की जाने पर असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ। पंजाब केसरी लाला लाजपत राय कई वर्ष के विदेश वास के बाद उसी समय भारत लौटे थे। देश में राजनैतिक उत्साह देख कर उन्होंने पंजाब में असहयोग आंदोलन का नेतृत्व आरंभ किया। पंजाब में इस आंदोलन ने खूब उग्र रूप ले लिया। कांग्रेस ने सरकारी खिताबों, नौकरियों, अदालतों और स्कूल कालिजों से असहयोग की  पुकार की। खिताब, नौकरियां और अदालतें तो कम ही लोगों ने छोडीं होंगी परंतु विद्यार्थियों ने स्कूल कालिज बड़ी संख्या में छोड़ दिये। इन्हीं असहयोगी विद्यार्थियों को योग्य राष्ट्रीय कार्यकर्त्ता बनाने के लिए लालाजी और पंजाब के कांग्रेसी नेताओं ने लाहौर में पंजाब नेशनल कालिज की स्थापना की थी।
      भगत सिंह असहयोगी विद्यार्थियों में से था। राष्ट्र की पुकार पर उसने शायद नवीं कक्षा से स्कूल छोड़ दिया था और वह कांग्रेस के स्वयं सेवकों में भर्ती होकर राष्ट्रीय  काम करने लगा था। सन् 1922 में गांधीजी के सत्याग्रह स्थगित कर देने के कारण राष्ट्रीय आंदोलन फिर दब गया। जो विद्यार्थी राष्ट्र की पुकार पर स्कूल कालिज छोड़ आए थे, वे ठगे गए से अनुभव करने लगे। उनकी परिस्थिति कठिन हो गई। आंदोलन स्थगित होने का प्रभाव केवल विद्यार्थियों पर ही नहीं बल्कि आंदोलन के लिए उत्साहित हो जाने वाली सम्पूर्ण जनता पर विचित्र ढंग से पड़ा। जनता गांधीजी की सन् 1921 के 31 दिसम्बर तक स्वराज्य प्राप्त कर लेने की प्रतिज्ञा पर विश्वास कर बहुत उत्साहित और
मरने- मारने के लिए तैयार हो चुकी थी। 22 फरवरी, 1922 की घोषणा से स्वराज्य प्राप्त किये बिना ही आंदोलन पूर्णत: स्थगित हो गया।
      आंदोलन के यों स्थगित हो जाने से जनता में जाग उठी संघर्ष की भावना को ऐसा धक्का लगा जैसे तेज चाल से चलती रेलगाड़ी को सहसा रोक देने से रेलगाड़ी के डिब्बे आपस में ही टकराने लगते हैं। जनता में जाग उठी उग्रता और संघर्ष की भावना कई लाभदायक और हानिकारक रूपों में परिणित हो गई। सांप्रदायिक दंगे भी हुए परंतु उसके साथ सांप्रदायिक सुधारवादी आंदोलन, उदाहरणत: सिक्खों में 'गुरुद्वारा-आंदोलन' भी वेग से चल पड़े।
      इसमें संदेह नहीं कि गुरुद्वारा आंदोलन सांप्रदायिक क्षेत्रा में ही सीमित था और इस का उद्देश्य गुरुद्वारों (सिख मंदिरों) से अनाचार दूर करना था परंतु इसकी भावना उग्र   सुधारवादी और अपने सीमित क्षेत्रा में क्रांतिकारी भी अवश्य थी। यह गुरुद्वारे  कुछ महंतों की पैतृक और वैयक्तिक संपत्तिा के रूप में चले आ रहे थे। गुरुद्वारों में भेंट के रूप में आने वाली लाखों की सम्पत्तिा और गुरुद्वारों से जुड़ी हुई जागीरों की आय इन महंतों की व्यक्तिगत या पारिवारिक आमदनी समझी जाती थी। इन महंतों के स्वामित्व में यह  गुरुद्वारे प्राय: तमाशबीनी और व्यभिचार के अव्े बन चुके थे। गुरुद्वारा आंदोलन का उद्देश्य इन मन्दिरों को महन्तों की पैतृक और व्यक्तिगत सम्पत्ति न रहने  देकर संगत (संप्रदाय) की सामाजिक संपत्ति बना देना और इन गुरुद्वारों का तथा उनकी आमदनी-खर्च का प्रबंध निर्वाचित पंचायतों द्वारा करना था। यह गुरुद्वारों के सामाजीकरण की मांग थी।
      सरकार मंदिरों की संपत्ति के सामाजीकरण करने के विरुध्द और मंदिरों की संपत्ति पर महंतों के पैतृक स्वामित्व के अधिकार की रक्षा करने के पक्ष में थी। सुधार चाहने वाली सिख जनता ने यह आंदोलन सत्याग्रह के रूप में चलाया। सिखों के नि:शस्त्रा जत्थे गुरुओं की वाणी का पाठ करते हुए इन मंदिरों और मठों पर सामाजिक अधिकार कायम करने के लिए जाते थे। महंतों के पालतू गुंडे और पुलिस की बड़ी-बड़ी गारदें इन नि:शस्त्रा स्वयंसेवकों पर लाठियों की अंधाधुंध बौछार करते थे। कई जगह गोली चली। प्राय: मंदिरों की जमीन खून से रंग जाती थी। मूर्छित होकर गिर पडे स्वयंसेवकों को ले जाकर जेलों में बंद कर दिया जाता था। गुरुद्वारा आंदोलन के संघर्ष का अनुमान 'ननकाना साहब गुरुद्वारे' के उदाहरण से ही किया जा सकता है। इस मंदिर पर अधिकार करने के लिए लगभग दो सौ स्वयं सेवकों की जानें गर्इं।
      सन् 1922 में राष्ट्रीय आंदोलन के स्थगित हो जाने पर भगत सिंह गुरुद्वारा आंदोलन में भाग लेने लगा था। इस आंदोलन में भाग लेने वाले क्रांतिकारियों के प्रतिश्रध्दा के कारण और इस आंदोलन में भाग ले सकने का अवसर पाने के लिए उस ने भी सिर पर केश रखा लिए थे। वह अकाली बन कर काली पगड़ी पहनने और कृपाण भी रखने लगा था। इन दिनों और भी अनेक हिंदू युवक सिख और अकाली सज गए थे। काली पगड़ी युवकों में फैशन ही बन गई थी। कृपाण के प्रति भगत सिंह की श्रध्दा इसलिए थी कि कृपाण के आधार पर सरकार द्वारा लगाये हुए प्रतिबंध का विरोध करने के लिए सिखों ने 'कृपाण-आंदोलन' चलाया था और सिख लोग तीन फीट लम्बी तलवारें हाथ में लिए कानून भंग करते थे।
      जब भगत सिंह नेशनल कालिज में पहुंचा, वह नियम से काली पगड़ी ही बांधता था परंतु गुरुद्वारा आंदोलन समाप्त हो चुका था। अब काली पगड़ी सांप्रदायिकता का ही चिह्न बन गई थी। भगत सिंह का काली पगड़ी बांधने का नियम धीरे-धीरे शिथिल हो गया। गुरुद्वारा आंदोलन में सिखों के सफल हो जाने पर उन में सांप्रदायिक संकीर्णता का अहंकार और रूढ़िवाद जोर पकड़ने लगे थे। नवयुवकों और भगत सिंह को अकाली संगठन से विरक्ति होने लगी थी। उन दिनों वह कभी भी गुरुद्वारे में नहीं जाता था।

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