जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप ,कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली-
मली मुख-चुम्बन-रोली।
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गयी चोली,
एक-वसन रह गयी मन्द हँस अधर -दशन अनबोली-
कली -सी काँटे की तोली।
मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक,मुँद गये पलक-दल,श्रम-सुख की हद हो ली-
बनी रति की छवि भोली।
बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल,मुख-लट,पट,दीप बुझा,हँस बोली
रही यह एक ठठोली।
(सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की यह कविता 'जागरण' ,पाक्षिक,काशी,22मार्च 1932 को होली शीर्षक से छपी थी )
रंगों की चलाई है हमने पिचकारी
जवाब देंहटाएंरहे ने कोई झोली खाली
हमने हर झोली रंगने की
आज है कसम खाली
होली की रंग भरी शुभकामनाएँ