कोलकाता में एक दशक से हिन्दी सेमीनार के प्रमाणपत्र जुटाने की संक्रामक बीमारी कॉलेज शिक्षकों में फैल गयी है। सेमीनार में वे इसलिए सुनने जाते हैं जिससे उन्हें सेमीनार में भाग लेने का सर्टीफिकेट मिल जाए। यह साहित्य के चरम पतन की सूचना है। ये वे लोग हैं जो हिन्दी साहित्य से रोटी-रोजी कमा रहे हैं। ये लोग सेमीनार में बोले बिना सेमीनार में भाग लेने का प्रमाणपत्र पाकर अपने को धन्य कर रहे हैं। आयोजक यह कहकर शिक्षकों को बुलाते हैं कि प्रमोशन कराना है तो सेमीनार सर्टीफिकेट लगेगा, आ जाओ सुनने, सर्टीफिकेट मिल जाएगा। फलतः ज्यादातर शिक्षक सेमीनार को सुनने आते हैं। सेमीनार का सर्टीफिकेट पाने के लिए वे डेलीगेट फीस भी देते हैं। इस प्रक्रिया में दो किस्म का साहित्यिक भ्रष्टाचार हो रहा है. पहला नौकरी में प्रमोशन के स्तर पर हो रहा है। श्रोता के सर्टीफिकेट को वक्ता के सर्टीफिकेट के रूप में पेश करके तरक्की के पॉइण्ट प्राप्त किए जा रहे हैं। दूसरा , साहित्य विमर्श के नाम पर कूपमंडूकता बढ़ रही है। सेमीनारों में वक्ताओं के भाषण साधारण पाठक की चेतना से भी निचले स्तर के होते हैं और सेमीनार के बाद सभी लोग एक-दूसरे की पीठ ठोंकते हैं, गैर शिक्षक श्रोता फ्रस्टेट होते हैं,वे मन ही मन धिक्कारते हैं और कहते हैं और कहते हैं कि वे सुनने क्यों आए। वक्तागण आशीर्वाद देते हैं,पैर छुआते हैं। इस समूची प्रक्रिया में कई लोग तो इस कदर नशे में आ गए हैं कि उन्हें यह बीमारी हो गयी है कि शहर में कोई भी साहित्यिक कार्यक्रम हो उनको अध्यक्षता के लिए बुलाओ,ये लोग अध्यक्ष न बनाए जाने पर कार्यक्रम में जाते नहीं है। नहीं बुलाने पर नाराज हो जाते हैं। इन पंडितों का मानना है वे जिस सेमीनार में जाते हैं उस सेमीनार को सार्थक करके आते हैं। इस प्रसंग में मुझे कई लेखकों की रचनाएं याद आ रही हैं। इनमें सबसे पहले में मुक्तिबोध को उद्धृत करना चाहूँगा। बहुत पहले मुक्तिबोध ने हिन्दी के प्रोफेसरों के बारे में लिखा, ''बटनहोल में प्रतिनिधि पुष्प लगाए एक प्रोफ़ेसर साहित्यिक से रास्ते में मुलाकात होने पर पता चला कि हिन्दी का हर प्रोफेसर साहित्यिक होता है। अपने इस अनुसन्धान पर मैं मन ही मन बड़ा खुश हुआ। खुश होने का पहला कारण था अध्यापक महोदय का पेशेवर सैद्धान्तिक आत्मविश्वास। ऐसा आत्मविश्वास महान् बुद्धिमानों का तेजस्वी लक्षण है या महान् मूर्खों का दैदीप्यमान प्रतीक ! मैं निश्चय नहीं कर सका कि वे सज्जन बुद्धिमान हैं या मूर्ख ! अनुमान है कि वे बुद्धिमान तो नहीं, धूर्त और मूर्ख दोनों एक साथ हैं।''
मुक्तिबोध ने यह भी लिखा है '' चूँकि प्रोफेसर महोदय साहित्यिक हैं इसलिए शायद वे यह कुरबानी नहीं कर सकते। नाम- कमाई के काम में चुस्त होने के सबब वे उन सभी जगहों में जाएंगे जहॉं उन्हें फायदा हो-चाहे वह नरक ही क्यों न हो।''
कोलकाता के शिक्षकों की अवस्था इससे बेहतर नहीं बन पायी है। हिन्दी के इस तरह के आयोजनों में किस तरह के भाषण होते हैं और चेले-चेलियां किस तरह प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं इस पर कवि -कहानीकार उदयप्रकाश की बड़ी शानदार कविता है 'पाँडेजी' उसका अंश देखें-
"छोटी-सी काया पाँडेजी की/छोटी-छोटी इच्छाएँ/ छोटे-छोटे क्रोध/और छोटा दिमाग।
गोष्ठी में दिया भाषण,कहा- 'नागार्जुन हिन्दी का जनकवि है '/फिर हँसे कि ' मैंने देखो
कितनी गोपनीय/चीज को खोल दिया यों।यह तीखी मेधा और/वैज्ञानिक आलोचना का कमाल है। '/एक स-गोत्र शिष्य ने कहा-' भाषण लाजबाब था /अत्यन्त धीर-गंभीर/
तथ्यपरक और विश्लेषणात्मक/हिन्दी आलोचना के खच्चर/ अस्तबल में/आप ही हैं /एकमात्र/काबुली बछेड़े/ 'तो गोल हुए पाँडे जी/मंदिर के ढ़ोल जैसे/ठुनुक -ठुनुक हँसे और/फिर बुलबुल हो गए/फूलकर मगन !"
मैं 20 सालों से कोलकाता में रह रहा हूँ और आए दिन हिन्दी सेमीनारों की दुर्दशापूर्ण अवस्था के किस्से अपने दोस्तों और विद्यार्थियों से सुनता रहा हूँ। मैं आमतौर पर इन सेमीनारों से दूर रहता हूँ। इसके कारण लोग यह मानने लगे हैं कि मैं साहित्य के बारे में नहीं जानता। कई मित्र हैं जो सेमीनार के कार्ड में वक्ता के रूप में मेरा नाम न देखकर दुखी होकर फोन करते हैं कि यहां तो आपको होना ही चाहिए था। मेरी स्थिति इस कदर खराब है कि एकबार कोलकाता की सबसे समर्थ साहित्यिक संस्था की कर्ताधर्ता साहित्यकार नेत्री ने चाय पर अपने घर बुलाया और कहा कि हम इतने कार्यक्रम करते हैं और आपस में बातें भी करते हैं कि स्थानीय स्तर पर कौन विद्वान हैं जिन्हें बुलाया जाए तो लोग आपका नाम कभी नहीं बताते, मैं स्वयं भी नहीं जानती कि आप विद्वान हैं। मैंने कहा मैं विद्वान नहीं हूँ। इसी प्रसंग में मैंने उन्हें त्रिलोचन की एक कविता ' प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है' सुनायी, कविवर त्रिलोचन ने लिखा- " प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है/उसमें कहीं त्रिलोचन का नाम नहीं था/आँख फाड़कर देखा/दोष नहीं था/पर आँखों का/सब कहते हैं कि प्रेस छली है/शुद्धिपत्र देखा ,उसमें नामों की माला छोटी न थी/ यहाँ भी देखा ,कहीं त्रिलोचन नहीं/तुम्हारा सुन सुनकर सपक्ष आलोचन कान पक गए थे/मैं ऐसा बैठा ठाला नहीं,तुम्हारी बकबक सुना करूँ/किसी जगह उल्लेख नहीं है,तुम्हीं एक हो,क्या अन्यत्र विवेक नहीं है/ तुम सागर लाँघोगे ? -डरते हो चहले से/बड़े-बड़े जो बात कहेंगे-सुनी जायगी/व्याख्याओं में उनकी व्याख्या चुनी जाएगी/"
कोलकाता हिन्दी के क्षयिष्णु वातावरण का एक अन्य पक्ष है हिन्दी के पठन-पाठन की ह्रासशील अवस्था। यह स्थिति कमोबेश पूरे राज्य में है। मसलन जो आज छात्र है वह कल शिक्षक होगा।जो विद्यार्थी एम.ए. में आते हैं उनमें अधिकांश ठीक से हिन्दी लिखना तक नहीं जानते । अब आप ही सोचिए कि जो विद्यार्थी एम.ए. तक आ गया वह हिन्दी लिखना नहीं जानता। इस तरह के विद्यार्थियों की संख्या हर साल बढ़ रही है। उच्च शिक्षाकी सुविधाओं का निचलेस्तर पर विस्तार हुआ है। बड़े पैमाने पर छात्र हिन्दी ऑनर्स कर रहे हैं , वे जब ठीक से हिन्दी लिखना नहीं जानते,ठीक से प्रश्नों का उत्तर तक नहीं देते तब वे कैसे एम.ए. तक अच्छे अंक प्राप्त करके आ जाते हैं, इसका रहस्य कोई भी आसानी से समझ सकता है कि कोलकाता में हिन्दी में अंक कैसे दिए जाते होंगे। हिन्दी प्रमोशन के नाम पर बड़े पैमाने पर ऐसे छात्रों की पीढ़ी तैयारहुई है जो येन-केन प्रकारेण अंक हासिल करके पास हुए हैं। पढ़ने,समझने और सीखने की आदत बहुत कम विद्यार्थियों में है। जिनमें यह आदत है उन्हें पग-पग पर छींटाकशी, अपमान और अकल्पनीय असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। कोलकाता में सारे विद्यार्थी जानते हैं कि हिन्दी में नौकरी पाने के नियम क्या हैं ? किसके हाथ में नौकरियां हैं ? किस नेता और प्रोफेसर को पटाना है और कैसे पटाना है । इस समस्या की जड़ें गहरी हैं,गहराई में जाकर देखें तो हिन्दी के शिक्षक नए से डरते हैं,विचारों का जोखिम उठाने से डरते हैं। अन्य से सीखने और स्वयं को उससे समृध्द करने में अपनी हेटी समझते हैं। साहित्य को अनुशासन के रूप में पढ़ने पढ़ाने में इनकी एकदम दिलचस्पी नहीं है।
आज वास्तविकता यह है कि ज्यादातर शिक्षक और समीक्षक आजीविका और थोथी प्रशंसा पाने लिए अपने पेशे में हैं।वे किसी भी चीज को लेकर बेचैन नहीं होते। उनके अंदर कोई सवाल पैदा नहीं होते। एक नागरिक के नाते उनके अंदर वर्तमान की विभीषिकाओं को देखकर उन्हें गहराई में जाकर जानने की इच्छा पैदा नहीं होती।वे पूरी तरह अतीत के रेतीले टीले में सिर गडाए बैठे हैं।
हिन्दी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि शिक्षक और आलोचक अपने नियमित अभ्यास और ज्ञान विनिमय को अनुसंधान का जरिया नहीं बना पाए है। विद्यार्थियों में मासूमियत और अज्ञानता बनाए रखने में इस तरह के शिक्षकों की बड़ी भूमिका है।ये ऐसे शिक्षक हैं जो ज्ञान के आदान-प्रदान में एकदम विश्वास नहीं करते। कायदे से शिक्षक को पारदर्शी, निर्भीक और ज्ञानपिपासु होना चाहिए।किन्तु हिन्दी विभागों में मामला एकदम उल्टा है।हिन्दी के शिक्षक कम ज्ञान में संतुष्ट,आरामतलब,और दैनन्दिन जीवन की जोड़तोड़ में मशगूल रहते हैं।
इसके विपरीत यदि कोई शिक्षक निरंतर शोध करतााहै या निरंतर लिख रहा है तो उसका उपहास उडाने और केरीकेचर बनाने में हमारे शिक्षकगण सबसे आगे होते हैं। और कहते हैं कि बड़ा कचरा लिख रहे हैं।हल्का लिख रहे हैं। यानी हमारे शिक्षकों को निरंतर लिखने वाले से खास तरह की एलर्जी है।वे यह भी कहते हैं कि फलां का लिखा अभी तक इसलिए नहीं पढ़ा गया या विवेचित नहीं हुआ क्योंकि जब तक उनकी एक किताब पढकर खत्म भी नहीं हो पाती है तब तक दूसरी आ जाती है।इस तरह के अनपढों के तर्क उसी समाज में स्वीकार किए जाते हैं जहां लिखना अच्छा नहीं माना जाता। कहीं न कहीं गंभीर लेखन के प्रति एक खास तरह की एलर्जी या उपेक्षा जिस समाज में होती है वहीं पर ऐसी प्रतिक्रियाएं आती हैं। इस तरह की मनोदशा के प्रतिवादस्वरूप त्रिलोचन ने लिखा है- "शब्द/ मालूम है/व्यर्थ नहीं जाते हैं/पहले मैं सोचता था/उत्तर यदि नहीं मिले /तो फिर क्या लिखा जाय/किन्तु मेरे अन्तरनिवासी ने मुझसे कहा- लिखाकर/तेरा आत्म-विश्लेषण क्या जाने कभी तुझे/एक साथ सत्य शिव और सुंदर को दिखा जाय/अब मैं लिखा करता हूँ/अपने अन्तर की अनुभूति बिना रँगे चुने/कागज पर बस उतार देता हूँ/"
हिन्दी से जुड़े अधिकांश जटिल सवालों की हमारी समीक्षा ने उपेक्षा की है। वे किसी भी साहित्यिक और सांस्कृतिक बहस को मुकम्मल नहीं बना पाए हैं। हिन्दी में साहित्यिक बहसें विमर्श एवं संवाद के लिए नहीं होतीं,बल्कि यह तो एक तरह का दंगल है,जिसमें डब्ल्यू डब्ल्यू फाइट चलती रहती है।हमने संवाद,विवाद और आलोचना के भी इच्छित मानक बना लिए हैं। इसे भी हम अनुशासन के रूप में नहीं चलाते।
परंपरा का मूल्यांकन करते हुए हमने सरलीकरण से काम लिया है।परंपरा की इच्छित इमेज बनाई है।परंपरा की जटिलताओं को खोलने की बजाय परंपरा के वकील की तरह आलोचना का विकास किया है। परंपरा का मूल्यांकन करते हुए जो लेखक-शिक्षक परंपरा के पास गया वह परंपरा का ही होकर रह गया। परंपरा के बारे में हमारे यहां तीन तरह के नजरिए प्रचलन में हैं। पहला नजरिया परंपरावादियों का है जो परंपरा की पूजा करते हैं।परंपरा में सब कुछ को स्वीकार करते हैं। दूसरा नजरिया प्रगतिशील आलोचकों का है जो परंपरा में अपने अनुकूल की खोज करते हैं और बाकी पर पर्दा डालते हैं।तीसरा नजरिया आधुनिकतावादियों का है जो परंपरा को एकसिरे से खारिज करते हैं। इन तीनों ही दृष्टियों में अधूरापन है और स्टीरियोटाईप है।
परंपरा को इकहरे,एकरेखीय क्रम में नहीं पढ़ा जाना चाहिए।परंपरा का समग्रता में जटिलता के साथ मूल्यांकन किया जाना चाहिए।परंपरा में त्यागने और चुनने का भाव उत्तर आधुनिक भाव है। यह भाव प्रगतिशील आलोचकों में खूब पाया जाता है। परंपरा में किसी चीज को चुनकर आधुनिक नहीं बनाया जा सकता। नया नहीं बनाया जा सकता। परंपरा के पास हम इसलिए जाते हैं कि अपने वर्तमान को समझ सकें वर्तमान की पृष्ठभूमि को जान सकें।हम यहां तक कैसे पहुँचे यह जान सकें।परंपरा के पास हम परंपरा को जिन्दा करने के लिए नहीं जाते। परंपरा को यदि हम प्रासंगिक बनाएंगे तो परंपरा को जिन्दा कर रहे होंगे। परंपरा को प्रासंगिक नहीं बनाया जा सकता।परंपरा के जो लक्षण हमें आज किसी भी चीज में दिखाई दे रहे हैं तो वे मूलत: आधुनिक के लक्षण हैं, नए के लक्षण हैं।नया तब ही पैदा होता है जब पुराना नष्ट हो जाता है। परंपरा में निरंतरता होती है जो वर्तमान में समाहित होकर प्रवाहित होती है वह आधुनिक का अंग है।
हिन्दी में सबसे ज्यादा अनुसंधान होते हैं।आजादी के बाद से लेकर अब तक कई लाख शोध प्रबंध हिन्दी में लिखे जा चुके हैं।सालाना 7 हजार से ज्यादा शोध प्रबंध हिन्दी में जमा होते हैं। लेकिन इनमें एक फीसद शोध प्रबंधों में भी सामयिक समाज की धड़कन सुनाई नहीं देगी। हमें विचार करना चाहिए कि रामविलास शर्मा, नगेन्द्र,नामवर सिंह,विद्यानिवास मिश्र, मैनेजर पांडेय,शिवकुमार मिश्र, कुंवरपाल सिंह , चन्द्रबलीसिंह ,परमानन्द श्रीवास्तव,नन्दकिशोर नवल आदि आलोचकों ने कितना वर्तमान पर लिखा और कितना अतीत पर लिखा है ? इसका यदि हिसाब फैलाया जाएगा तो अतीत का पलड़ा ही भारी नजर आएगा। ऐसे में हिन्दी के वर्तमान जगत की समस्याओं पर कौन गौर करेगा ? खासकर स्वातंत्र्योत्तर भारत की जटिलताओं का मूल्यांकन तो हमने कभी किया ही नहीं है।
आपने बहुत महत्वपूर्ण विषय पर बेबाक लिखा है। हिन्दी प्राध्यापकों में इस अगम्भीर लेखन की भारी बीमारी है। 2002 में मैं कोलकाता में ही था और हम काव्यम शुरु करने जा रहे थे। उस समय हमारी संस्था के वयोवृद्ध साथी का आग्रह हम टाल नहीं पाए थे और हमें एक चलताऊ विषय पर नियमित रूप से कई पृष्ठ उनकी एक प्रिय प्राध्यापिका को देने पडे थे ताकि बाद में उस की अपनी ही संस्था से किताब छपवा दी जाए और उन्हें तरक्की मिलती चली जाए। ऐसे लोगों का साहित्य उनकी अपनी जुगाड़ की दुनिया से बाहर नहीं जाता।
जवाब देंहटाएंजो जोकर इन सर्टिफिकेटों को भाव देते हैं उनकी अक़्ल पर पत्थर पड़ गए दिखते हैं.
जवाब देंहटाएंमेरे ख्याल से यह समस्या केवल हिन्दी और कोलकाता की न होकर पूरे देश और दूसरे सभी विषयों की है ... सेमिनार के नाम पर केवल और केवल जनता के धन का अपव्यय ही होता है।
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