बुधवार, 16 मार्च 2011

भाषा, इतिहास और वर्गसंघर्ष- 2- डेविड मेक्नेलि


शोषण और प्रतिरोध की संस्कृति
कुछ लोगों द्वारा वोलोशिनोव की बहुस्वराघातीय संकेत की अवधारणा की गलत विवेचना की गई है। उनके अनुसार इसका आशय यह है कि अर्थ इतने अस्थिर होते हैं कि वे पूर्ण रूपेण यादृच्छिक और अनंत रूप से बहुलीकरण योग्य होते हैं। इस तरह की व्याख्या जीवन की स्थितियों के निर्माण और पुनर्निर्माण के दरम्यान लोगों के बीच हुए संबंधों के संकुल से भाषा और बोली के एक आदर्शवादी पृथक्करण की ओर प्रवृत्त होती है। इस तरह की व्याख्या की कमियों की ओर मैं पहले ही इशारा कर चुका हूं। मसलन, इस बात को समझने में इसकी विफलता कि अनाधिकारिक या वैकल्पिक विमर्श वास्तविक सामाजिक संबंधों, विशेषकर उत्पादन से संबंधित संबंधों से उत्पन्न होते हैं। इस संबंध
में वोलोशिनोव के विचार के पक्ष में सशक्त रूप से तर्क देने के लिए हम सामाजिक इतिहास में काफी महत्वपूर्ण सामग्री पा सकते हैं। क्योंकि बहुत सारे प्रमुख ऐतिहासिक अध्ययनों ने दरशाया है कि विरोधात्मक विमर्शों की उत्पत्ति विशेष रूप से शोषक वर्ग तथा इसके प्रतिनिधियों द्वारा अतिरिक्त उत्पादों के छीने जाने के विरुध्द विरोध की क्रियाओं से होती है।
लोककथाओं, गीतों, कर्मकांडों, कहावतों और इसी प्रकार की कलाओं में निहित प्रतिरोध के बिंबों की सबसे रोचक बात वह रूप होती है जिससे वे शोषण के अनुभवों को उलटा करती हैं। आखिर शोषण के केंद्र में ही यह अहसास होता है कि उसे लूटा गया है। उस संबंध को उलटा करना यानी लुटेरे को लूटना, वह चाहे किसी का मालिक हो, लॉर्ड हो या बॉस हो, यही लोक संस्कृति की स्थायी विषयवस्तु है।
दक्षिणी संयुक्त राज्य के कृषिदासों द्वारा सृजित चालबाजी की कथाओं के बारे में यहनिश्चित रूप से सच है। एक इतिहासकार कहता है, 'चालबाजों का सबसे बड़ा सुख अपने शक्तिशाली शत्रुओं से चुराए हुए भोजन को खाना था'8 ये कहानियां, जिनमें मालिकों और दासों के स्थान पर पशुओं को पात्र के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, बार-बार कही जाती थीं। इसका उद्देश्य अवज्ञा की संस्कृति को वैध बनाना था, जिसमें अपने मालिक से कुछ चोरी करने को न केवल माफ किया जाता था वरन इसकी प्रशंसा भी की जाती थी। इसके अलावा ये कहानियां महज कपोल कल्पनाएं नहीं थीं। ये चोरी के वास्तविक कार्यों के अंग थीं, जिसे दास समुदाय बचाकर रखना चाहते थे।
अठारहवीं सदी के आरंभ में इंगलैंड में भी विस्थापित किसानों, निर्धन झोपड़ीवासियों तथा ग्रामीण मजदूर किसानों में इस प्रकार की परिघटनाएं देखी जाती हैं। जैसा कि ई.पी. थामसन ने अपनी रोचक पुस्तकों 'व्हिग्स एंड हंटर्स' तथा 'कस्टस्म इन कामन' में लोगों को विभिन्न उल्लंघनकारी कार्यों में लिप्त दरशाया जैसे जानवरों का चोरी-चोरी शिकार (हिरण, खरगोश, मछली तथा हाल में कब्जे में ली गई सार्वजनिक भूमियों से अन्य चीजाें की चोरी)। इसका उद्देश्य संपत्ति की नई परिभाषाओं तथा उनके पारंपरिक अधिकारों पर लगाए गए प्रतिबंधों को चुनौती देना था। एक समृध्द लोक संस्कृति द्वारा इन उल्लंघनों का समर्थन किया जाता था जो धनी लोगों के कार्यों को अवैध करार देती थी और कानून की सुस्पष्ट अवमानना को प्रोत्साहित करती थी। इस लोक संस्कृति की अपनी भाषा, अपने अलंकार तथा अपने संकेत होते थे तथा इसने दीवारनोटिसों, गीतों, धमकी भरे पत्रों आदि के रूप में एक दस्तावेजी रिकार्ड छोड़े हैं।
थामसन को ध्यान में रखते हुए हम यह भी नोट कर सकते हैं कि प्रतिरोध तथा वर्ग अभिव्यक्ति के रूपों की प्रकृति केवल आर्थिक नहीं है, न ही वे उत्पादन के क्षेत्र में संघर्षों तक सीमित हैं। थामसन ने अपनी पुस्तक 'दे मेकिंग ऑफ दि इंग्लिश वर्किंग क्लास' (1963) में आरंभ में ही वर्ग को एक गतिशील जीवंत अनुभव के रूप में दरशाना चाहा है, जो अपना ताना-बाना सामाजिक जीवन के तंतुओं से बुनता है। वर्ग अनुभव अपने आपको भाषा और साहित्य में व्यक्त करता है : काम पर, मयखाने में और घर में; गीतों और यौन संबंधों में; संघटन के बाहरी रूपों में तथा गुप्त कर्मकांडों में यह व्यक्त होता है। जब थामसन हमें वर्ग रूपों में लोगों को संघर्ष करते दरशाते हैं तो वह हमें उन स्थलों पर ले जाते हैं जहां कार्य, लिंग संबंध, लैंगिकता तथा प्रतिरोध की विविध रीतियां एक दूसरे
को काटती हैं। इन्हें दरकिनार करने के बजाए जीए हुए अनुभव के रूप में वर्ग संघर्ष की धारणा में यह अपेक्षा होती है कि हम ज्ञात करें कि कैसे कार्य, शोषण और शोषण का प्रतिरोध सामाजिक जीवन के अन्य आयामों को निर्धारित करते हैं। ठीक उसी प्रकार प्रकारांतर से सामाजिक जीवन के अन्य आयाम उन्हें कैसे निर्धारित करते हैं। फिर भी चूंकि हम उत्पादनकारी जीव हैं; जिस प्रकार से हम अपने आपको बनाते हैं और हम बनाए जाते हैं, उसमें कार्य की केंद्रीय भूमिका है, अत: कार्य पर केंद्रित सामाजिक संबंधों तथा संघर्षों का हमारे जीवन में निर्णायक रूप से उपस्थित होना लाजिमी है। और वर्ग समाज में इनसबसे गुजरना, लूटे जाने का तथा इस लूट को उलटा करने का या इसके विध्वंस का प्रयास करने का अनुभव है।
हालांकि इन आचरणों की संरचना कृषिदासों या अठारहवीं सदी के श्रमिकों के आचरणों की संरचना से भिन्न है। फिर भी हम आधुनिक फैक्टरी मजदूरों के मामले में भी यही पाते हैं। मैं यहां दो उदाहरण लेता हूं : पहला हंगरी से जो 1970 के दशक का है तथा दूसरा फ्लिंट, मिशिगन से जो इसके कुछ वर्षों बाद का है। अपनी पुस्तक 'ए वर्कर इन ए वर्कर्स स्टेट' में हंगरी के फैक्टरी जीवन का वर्णन करते हुए मिक्लोस हारास्टाय हमें 'हमारी' और 'उनकी' दुनिया में ले जाते हैं; एक ऐसी दुनिया जहां स्वयं अपने लिए किए गए कार्य पर दिया गया समय ही प्रतिरोध का अंतिम स्वरूप है। यह प्रतिरोध मजदूर की अपनी ही जुबान में यों है :
वे, उनको, उनका (दे, देम, देयर्स) : मुझे नहीं लगता कि जिसने किसी फैक्टरी में काम किया हो या मजदूरों के साथ अपेक्षाकृत सतही बातचीत भी की हो उसे इन शब्दों के अर्थ के बारे में कोई संदेह हो सकता है। 'देम' का अर्थ वही है यानी प्रबंधन; जो आदेश देता है और निर्णय करता है, वे लोग तथा उनके एजेंट्स जो प्रभारी हैं, जो हमारे दृष्टि क्षेत्र से गुजरकर भी हमारी पहुंच से बाहर है। (पृ. 71)
हारास्टाय कहते हैं, ये मजदूर उजरती काम करते हैं। अपना कोटा पूरा करते समय ये उन वस्तुओं के उत्पादन का समय निकाल लेते हैं जो उनके अपने उपयोग के लिए होते हैं तथा जिन्हें वे प्लांट से चोरी से बाहर निकाल लेते हैं और घर ले जाते हैं। इन मुफ्त के स्वतंत्र कामों के लिए उन्होंने एक शब्द का इजाद किया है, जिसे वे 'निशुल्क गृह-उत्पाद (होमर्स)' कहते हैं। यही उनके कार्य दिवस में सबसे अधिक खुशी का पल लगता है। 'यह साधारण छोटा सा 'होमर' ही स्वतंत्र तथा सृजनात्मक कार्य का एक मात्र संभव रूप है, जिसका निर्माण गुप्त रूप से और काफी त्याग के साथ किया जाता है। इसका कोई दूरगामी उद्देश्य नहीं होता।' (पृ. 142) 'होमर्स के निर्माण के द्वारा हम मशीन पर अपनी विजय तथा मशीन से अपनी आजादी हासिल करते हैं।' (पृ. 143) हालांकि 'होमर्स' का निर्माण अधिकांशत: व्यक्तिगत होता है लेकिन इसके लिए एक सहयोग संस्कृति की आवश्यकता होती है। मसलन किसी निश्चित प्रकार की 'कटिंग और शेपिंग' साथी मजदूरों द्वारा अपने मशीन पर किया जा सकता है। साथ ही, होमर्स को चोरी से प्लांट के बाहर भेजने में भी अन्य साथियों को शामिल करना आवश्यक होता है। 'होमर्स का निर्माण सहयोग, स्वैच्छिक सहयोग की मांग करता है।' सचमुच 'अधिकांश दोस्ती संयुक्त 'होमर' के निर्माण से ही आरंभ होती है।' (पृ. 143-144)
सहयोग, मित्रता, एकजुटता, स्वतंत्र सृजनात्मक कार्य : ये सारी चीजें होमर्स के निर्माण में शामिल होती हैं। यह विरोध का कोई विरलित विमर्श नहीं; होमर्स के निर्माण में प्रतिरोध की क्रियाएं शामिल होती हैं। 'होमर्स' विरोधात्मक मूल्यों तथा अभिवृत्तियों काभौतिक निरूपण है। यह सामाजिक सहयोग और उत्पादन पर मजदूरों के नियंत्रण की दृष्टि प्रस्तुत करता है। जैसा कि हारास्टाय ने कहा है, 'होमर्स सभी विरोध आंदोलनों के लिए माडल है।' (पृ. 143)
अंतिम दृष्टांत समूह 'बेन हैम्पर' की अद्भुत पुस्तक 'राइवेटहेड' से है। फ्लिंट में 'जी एम्स ट्रक' तथा 'बस प्लांट' में 'एसेंबली लाइन' के मजदूरों के अनुभवों को लिपिबध्द करते हुए हैम्पर भी दरशाते हैं कि समय संबंधी संघर्षों की अहम भूमिका है। 'जी एम' को दिए गए समय की अनुभूति जीवन से छीने गए समय के समान होती है। हैम्पर जिन विध्वंसात्मक क्रियाओं की चर्चा करते हैं उनमें से एक है 'डबलिंग अप', जिसमें दो मजदूर अपना कार्य करने तथा अपने साथी मजदूर की आधी शिफ्ट का कार्य करने के लिए आपस में करार करते हैं। बाकी समय का इस्तेमाल सोने, पढ़ने-लिखने या यहां तक कि अपनी पसंद का काम करने के लिए प्लांट से चुपके से भाग लेने के लिए किया जा सकता है। हैम्पर का यह स्पष्ट मानना है कि कंपनी जितना समय मजदूरों से लूटती है, उसमें से कुछ समय 'वापस चुरा लेने' की क्षमता में वह तथा उसके साथी मजदूर गौरवान्वित अनुभव करते हैं।
'रिवेट लाइन' में भेज दिए जाने के बाद उन्होंने किस प्रकार एक नए साथी मजदूर के साथ 'डबलिंग-अप' (दोहराने की क्रिया)  कार्य-सहयोग पुन: स्थापित किया, इसकी चर्चा करते हुए हैम्पर लिखते हैं :
एक बार फिर सब कुछ 1978 जैसा ही था। चार घंटे का काम, आठ घंटे का वेतन। एक बार फिर वही उल्लास था। यह जानकर कि आपका काम सक्षम हाथों द्वारा किया जा रहा है और आप मार्क्स लाऊंज में स्क्रीन पर नजरें गड़ाए हैं क्याेंकि लाओ व्हीटेकर ने ठीक ऊपरी डेक में हैंगिंग कर्व को उड़ा दिया है। इस तरह की चीजें शारीरिक श्रम से अधिक सार्थक लगती थीं।
वह आगे कहते हैं, 'इन सबसे अधिक मैंने प्रबंधन से जुड़े उन तमाम लोगों को बेवकूफ बनाने के विचार को पसंद किया जिनके नाखून साफ-सुथरे थे लेकिन  बोनस बड़े गंदे।' (पृ. 191)
हैम्पर भी प्रतिरोध की एक समृध्द संस्कृति दरशाते हैं। वह आदर्श का निर्माण नहीं करते। विभाजन और पिछड़ापन उनकी व्याख्या में मौजूद हैं। लेकिन साथ ही सहयोग भी है। सहयोग समय को मात देने के लिए, सत्तावादी फोरमैन या पर्यवेक्षक को पराजित करने के लिए, अपनी सामान्य मानवता के एक छोटे से हिस्से को वापस लेने के लिए चाहे यह महज एसेंबली लाइन पर जीवन की एकरसता में हास्य का पुट डालकर ही क्यों न हो।
जिन उदाहरणों को मैंने चुना है वे प्रतिरोध के एक निश्चित तर्क की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। इनकी संख्या कई गुनी हो सकती है। ये उदाहरण उत्पादनकर्ता मजदूरों को शोषण के अनुभव को पलटने का प्रयास करते, उनके श्रम के उत्पादों को उनसे छीनने वालों सेकुछ अपने लिए चुराने की कोशिश करते हुए दरशाते हैं। ये उनकी स्वतंत्रता, स्वयं उनके जीवन की गतिविधि तथा प्रतीकात्मक रूप से एक ऐसी भाषा का अन्वेषण करते दरशाते हैं जो उनके विध्वंसक प्रयासों को व्यक्त करती है तथा उन्हें कार्यान्वित करती है। इस प्रकार प्रतिरोध के विमर्श किसी भी सूरत में यादृच्छिक या स्वेच्छाचारी नहीं हैं। कई सर्वाधिक शक्तिशाली तथा स्थायी विमर्श श्रम तथा शोषण की संरचनाओं के विरुध्द प्रतिक्रियाए हैं जो प्राय: अत्यधिक सृजनात्मक होती हैं। जैसे, यहां विरचनावादियों द्वारा 'प्ले' (नाटक) शब्द का उपयोग पसंद किया जाता है। फिर, बिडंवना, हास्य-व्यंग्य, महोत्सव विपर्यय जैसे पद हैं। लेकिन संघर्ष जैसे पद भी है; अति गंभीर संघर्ष, जो जीविका के लिए है, जीवन के लिए है। और स्वतंत्रता के लिए है।
भाषा और वर्चस्व पर ग्राम्शी के विचार
फिर भी, यदि दमित वर्ग आधिकारिक विमर्शों के आधिपत्य के पूरी तरह अधीन नहीं हैं, यदि वह अपने शासकों के विरुध्द प्रतिरोध के विमर्शों और समृध्द परंपराओं का सृजन करते हैं, तो उनके निरंतर दमन और शोषण की व्याख्या हम किस रूप में कर सकते हैं? यहां इतालवी क्रांतिकारी अंतोनियो ग्राम्शी के भाषा तथा वर्चस्व संबंधी विचार काफी सहायक सिध्द हो सकते हैं।
ग्राम्शी एक ऐसे परिप्रेक्ष्य का विकास करना चाहते थे जो प्रचलित विचारों; शासक वर्ग के विचारों को स्वीकार करता हो और उस सीमा तक विकास करना चाहते थे जहां ऐसा वर्चस्व कभी भी पूर्ण नहीं होता बल्कि 'वर्चस्व-विरोधी' विचारों तथा अभिवृत्तियों के साथ एक असहज संबंध में हमेशा उपस्थित रहता है। ये विचार और अभिवृत्तियां प्रबल मूल्यों और विचारों के विरुध्द खड़ी होती हैं।
बौध्दिक संभ्रांतवर्गवाद की अवज्ञा में ग्राम्शी यह तर्क देते हैं कि 'मनुष्य दार्शनिक होते हैं।'11 ऐसा इसलिए है क्योंकि हर व्यक्ति भाषा, जिसमें नियमित धारणाओं तथा विचारों की समग्रता शामिल होती है, के उपयोग द्वारा समाज की तथा जिस दुनिया में वह रहतारहती है, उसकी अवधारणाा का इस्तेमाल करता है। अधिकांश समय इस तरह की विश्वदृष्टि की सिलसिलेवार विवेचना इसके मूल सिध्दांतों के अनुसार नहीं की जाती है। लेकिन बोली के जरिए हम अवधारणाओं की एक ऐसी दुनिया में होते हैं जो चीजों की कुछ व्यापक दृष्टि की पूर्वकल्पना करती है।
लेकिन ऐसी विश्वदृष्टियों में शायद ही कोई तालमेल होता है; इनमें विचारों का अंतर्विरोधी सम्मिश्रण होता है। इस प्रकार अधिकांश मेहनतकश वर्ग ने प्रबल विचारधारा से निकले विभिन्न विचारों और अभिवृत्तियों को अपनाया है। साथ ही, उनके दैनिक जीवन की गतिविधि में ये विचार और अभिवृत्तियां शामिल होती हैं। जैसा कि हमने देखा है, ये उन आचरणों में भी शामिल होती हैं जो प्रबल विश्वदृष्टि के कम से कम कुछ पहलुओं काखंडन करते हैं। अत: मजदूर वर्ग के किसी सदस्य के बारे में विचार करते समय प्राय: ऐसा देखा जाता है कि उसकी सैध्दांतिक चेतना दरअसल ऐतिहासिक दृष्टि से उसकी गतिविधि के विरुध्द हो सकती है। कोई यह कह सकता है कि उसकी दो सैध्दांतिक चेतनाएं (या एक अंतर्विरोधी चेतना) है : एक जो उसकी गतिविधि में निहित है तथा वास्तव में उसे वास्तविक दुनिया के व्यावहारिक रूपांतरण में अपने सभी साथी मजूदरों के साथ जोड़ती है; और दूसरी वह जो सतही तौर पर बाह्य या मौखिक है, जिसे उसने अपने अतीत से प्राप्त किया है तथा बिना किसी मीनमेख के आत्मसात किया है। 
(पृ. 333)
मजदूर वर्ग की चेतना की अंतर्विरोधी प्रकृति अत्यधिक गतिशील परिघटना है। सबसे पहले तो, मजदूर वर्ग में कोई सदृश चेतना नहीं होती। मजदूरों के एक ही समूह में कुछ मजदूर मालिकों, पर्यवेक्षकों, राष्ट्राध्यक्षों आदि के विचारों को करीब-करीब पूर्णरूपेण स्वीकार करना चाहेंगे जबकि दूसरे मजदूर इनके विचारों का लगभग पूरी तरह विरोध करेंगे। इन दो वैचारिक खेमों के बीच अधिकांश मजदूर होंगे। लेकिन उनकी चेतना निश्चित नहीं होगी। बड़े आयोजन जैसे, व्यापक हड़ताल और प्रदर्शन, यूनियन के प्रयास आदि तथा विरोधपरक विचारों के संगठित प्रचार-प्रसार महत्वपूर्ण उग्र आंदोलन खड़ा करने में मदद कर सकते हैं; जबकि पराजय, गतिरोध तथा विरोधात्मक विमर्शों में कमी का काफी गहरा रूढ़िकारी प्रभाव हो सकता है।
लेकिन एक दिए हुए समय में वस्तुस्थिति चाहे जो भी हो, ग्राम्शी का स्पष्ट मानना है कि मजदूर वर्ग की चेतना की अंतर्विरोधी प्रकृति को समाप्त नहीं किया जा सकता। पूंजीवादी समाज का यह अंतर्निष्ठ लक्षण है कि शासक वर्ग अपने शासन के लिए विचारधारात्मक स्वीकृति प्राप्त करने का प्रयास करता है; (और इस प्रकार के प्रयास प्राय: काफी हद तक सफल भी हो जाते हैं) और मजदूरों के जीवन के अनुभव तथा शोषण और दमन के खिलाफ उनके प्रतिरोध उन आचरणों को जन्म देते हैं जो उस समय प्रभावशाली विचारों के साथ फिट नहीं बैठते। यह दरअसल एक अंतर्निष्ठ विश्वदृष्टि की अपेक्षा करता है जो इन प्रबल विचारों को चुनौती देता हो। सचमुच ग्राम्शी के अनुसार किसी क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी का एक महत्वपूर्ण कार्य एक ऐसी विश्वदृष्टि उत्पन्न करना है तथा सुव्यवस्थित करना है जो प्रतिरोध के इन आचरणों में अंतर्निहित हो। यह दृष्टिकोण ग्राम्शी को क्रांतिकारी राजनीति के प्रश्न को उन विरोधाभासों के रूप में समझने में सक्षम बनाता है जो समाज के दमित सदस्यों के अनुभव, गतिविधि तथा भाषा में व्याप्त हैं।
वह कहते हैं कि क्रांतिकारी राजनीति का आरंभ मेहनतकश वर्ग की सामान्य बुध्दि से होता है। इस सामान्य बुध्दि में वे सभी विरोधात्मक अभिवृत्तियां होती हैं जो काफी हद तक अंतर्निष्ठ होती हैं। और चूंकि समाजवाद, जैसा कि मार्क्स जोर देते थे, मजदूर वर्ग कीआत्ममुक्ति है, अत: क्रांतिकारी विचार मजदूर वर्ग के आंदोलन में अंत:क्षेपित कोई अन्यदेशिक विमर्श नहीं हो सकता। इसके विपरीत मजदूर वर्ग तथा क्रांतिकारी विचारों के बीच का संबंध सावयविक होना चाहिए। यह दरशाना मार्क्सवादियों का काम है कि समाजवाद मजदूर वर्ग के प्रतिरोध के आचरणों का तर्कसंगत तथा निरंतर विकास है। अत: क्रांतिकारी पार्टी के लिए मजदूर वर्ग के आंदोलन का जीवंत हिस्सा होना आवश्यक है। इसे उनके अनुभवों को बांटना और उनकी भाषा बोलना जरूरी है। साथ ही, इसके लिए वह शक्ति भी बनना आवश्यक है जो विरोध के अनुभवों को अधिकाधिक सुव्यवस्थित प्रोग्राम का सामान्य रूप दे सके; एक ऐसी शक्ति जो मजदूरों द्वारा विरासत के रूप में ढोए जा रहे पारंपरिक तथा प्रबल प्रत्ययों (देशभक्ति, लिंगवाद, नस्लवाद आदि) को यह दरशाकर चुनौती दे सके कि ये शोषण और दमन के प्रतिरोध में अंतर्निष्ठ हितों और आकांक्षाओं का कैसे खंडन करते हैं। ग्राम्शी अपने कुछ आदर्शवादी विवेचनाओं, जो हाल के बरसों में चर्चा में रही हैं, के विपरीत इस बात पर बल देते हैं कि इतना व्यापक वर्चस्व-विरोधी आंदोलन केवल सांस्कृतिक धरातल पर या किसी विचारधारात्मक विरोध की बौध्दिक प्रक्रिया के रूप में खड़ा नहीं होता। उनका तर्क है कि वर्चस्व-विरोधी आंदोलन राजनीतिक संघर्ष के माध्यम से खड़े होते हैं; उन आंदोलनों में खड़े होते हैं जिनमें आर्थिक प्रतिरोध तथा विचारधारात्मक लड़ाई दोनों साथ-साथ चलती हैं। दूसरे शब्दों में दमित व्यक्तियों के लिए 'आलोचनात्मक आत्म-अर्थग्रहण राजनीतिक 'वर्चस्वों' की लड़ाई के माध्यम से होता है।' (पृ. 333) वह इस बात पर बल देते हैं कि 'राजनीतिक पार्टियां' वर्चस्व-विरोधी विश्वदृष्टियों की 'ऐतिहासिक प्रयोगशाला' के रूप में कार्य करती हैं; वे इस तरह की 'घड़िया' (क्रूसिबल) हैं जिसमें सिध्दांत और आचरण का एकीकरण होता है जिसे वास्तविक ऐतिहासिक प्रक्रिया समझा जाता है। (पृ. 335)
ग्राम्शी की भाषा, वर्चस्व और राजनीतिक संघर्ष संबंधी विवेचना हमें वोलोशिनोव की बोली संबंधी विधाओं की अवधारणा को व्यावहारिक राजनीति के धरातल पर स्पष्ट रूप से समझने में मदद करती है। वोलोशिनोव की धारणा यह है कि शोषित वर्गों के सदस्य प्रभुत्वशाली बोली विधाओं में (अपनी अधीनस्थ स्थिति के अनुसार) तथा अपेक्षाकृत समतावादी विधाओं में भाग लेते हैं, जो उनके (अपने बराबर के) अन्य साथियों के साथ विभिन्न संबंधों, विभिन्न मूल्यों, विभिन्न आचरणों की व्याख्या करती हैं। ग्राम्शी की अंतर्विरोधी चेतना वोलोशिनोव की इस धारणा के केवल स्थान-परिवर्तन का एक तरीका है। ग्राम्शी यह सुझाव देते हैं कि क्रांतिकारी समाजवादी राजनीति के लिए इन विरोधी आचरणों को एकजुट करना महत्वपूर्ण है जो कि ठोस मुद्दों के इर्द-गिर्द वास्तविक संघर्षों तथा उन जनवादी विधाओं में अंतर्निष्ठ विश्वदृष्टि को व्यापक बनाने और सुव्यवस्थित करने का प्रश्न है, जिनमें एकजुटता, सहयोग तथा समतावाद शामिल है।(क्रमशः)





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