शील जी हिन्दी की प्रगतिशील काव्यधारा के अग्रणी कतार के लेखक हैं। उनके कर्म,विचार,सृजन और आंदोलन में फांक नहीं है। ऐसा एकीकृत समग्र व्यक्तित्व हिन्दी में विरल घटना है। हिन्दी के अनेक प्रगतिशील लेखकों जैसे नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल,शमशेर ,त्रिलोचन आदि में आजादी के बाद के दौर में अनेक किस्म के विचलन देखे गए। कर्म,विचार और सृजन में फांक भी देखी गयी,लेकिन शील जी इस व्याधि से मुक्त अविचलभाव से मार्क्सवाद,कम्युनिस्ट आंदोलन,प्रगतिशील-जनवादी साहित्य की एकनिष्ठ भाव से सेवा करते रहते रहे।
शील जी का व्यक्तित्व सामाजिक आग्रहों और गरीबों की मुक्ति के संकल्पों से बना था। उनके व्यक्तित्व की अनेक खूबियों को मुझे करीब से देखने का भी सौभाग्य मिला था। शील जी ने मजदूरों-किसानों और प्रतिशील साहित्य के प्रति कमिटमेंट को कभी नहीं छोड़ा। उन्होंने अपने संकलन ' लावा और फूल' (1967) के समर्पण में लिखा है, "देश की उन असंख्य बलिदानी माताओं की तरह,माँ तूने भी अपने लाल को देश की स्वतंत्रता के लिए न्यौछाबर कर दिया था। 1930 में में गान्धी बाबा की पुकार पर में जेल गया ।यह अंग्रेज परस्त जमींदार को अच्छा न लगा। लेकिन मां ! तुझे पुत्र विछोह की असीम पीड़ा के साथ गर्व भी था कि तेरा लाल देश की स्वतंत्रता के लिए जेल गया है। यह बात भी,अंगरेज परस्त जमींदार को अच्छी न लगी। मेरे छूटने के चौबीस घंटे पूर्व उसने यह अफ़वाह फैलाकर ( कि तेरा लाल,मन्नू जेल के दंगे में गोली से मार दिया गया) तेरे प्राण ले लिए। मां,तेरी पीड़ा,जमींदार का जुल्म,और मेरी ममता-सब कुछ मेरे देखते-देखते उनकी आँखों से वह निकली। और वे भी तेरी ही तरह सदा के लिए मुझसे दूर हो गए।माँ बता कि तेरे और पिता जी के सिवा अपना यह कृतित्व,किसे समर्पित करूं,यह तो तुम दोनों की आहुति का ही परिणाम है। और तुम्हें ही समर्पित है।"
शीलजी का अपनी माँ की कुर्बानियों और पीड़ाओं को काव्य संकलन के समर्पण वक्तव्य में इस तरह याद करना अपने आपमें विरल बात है। हिन्दी के लेखकों को माँ की पीड़ा और कुर्बानियों का ध्यान कम आता है,सार्वजनिक तौर पर उसका उल्लेख वे कभी नहीं करते। इस नजरिए से देखें तो 1967 में यह बात जो शीलजी ने लिखी,नयी बात थी और इससे कविमन की पीड़ा,मानवीयता,रिश्तों के प्रति कृतज्ञता,वफादारी आदि का बोध भी व्यक्त होता है।
हिन्दी की अकादमिक समीक्षा की आयरनी है कि वह जीवन के ज्वलंत सवालों से कन्नी काटती रही है। यह बात शीलजी की उपेक्षा के संदर्भ में भी कही जा सकती है। लेखक के लिए किस तरह की पीड़ा रही है,इसका अंदाजा आज के मीडिया युग में लगाना संभव नहीं है। अपने काव्य संकलन ' लावा और फूल' के प्रकाशन के लिए लेखक को मुहिम चलानी पड़ा,कोई छापने के लिए तैयार नहीं था।
उल्लेखनीय है शील जी के प्रथम काव्यसंकलन 'अंगडाई' (1944)के साथ एक प्रकाशक ने बड़ी बुरी की, उसने उस संकलन के कवर पर एक नंगी औरत का फोटो छाप दिया था। इससे भी बुरी बात यह हुई कि इस संकलन को किसी भी प्रगतिशील समीक्षक ने नोटिस ही नहीं लिया। वे उन दिनों पंत की ग्राम्या और अंचल की लाल चूनर को लेकर व्यस्त थे।
'लावा और फूल' की भूमिका में शील जी ने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान खींचा है। लिखा है, " अखबारों का प्रभाव एक अध्ययनशील विद्यार्थी को प्रभावित कर सकता है,उकसा सकता है किन्तु उसमें कर्म का उपक्रम पैदा नहीं कर सकता। उसकी सबसे बड़ी योग्यता ,उसकी अनुभूति की अपरोक्षता और तीव्रता में होती है।जो केवल पुस्तकीज्ञान से नहीं पैदा हो सकती। रोटी और प्रेम के राग बिना साक्षात के नहीं गाए जाते। जिन्होंने जीविकोपार्जन की मुसीबतों,अपमानों का अनुभव नहीं किया,भोक्तावर्ग में बने रहकर दूर-दूर से अवलोकन मात्र किया है। वे शोषितमात्र पर दया ही कर सकते हैं:-उसकी आवाज में बोल नहीं सकते।"
शील जी ने सवाल किया है कि "नयी कविता में नए यथार्थ की स्वीकृति है,पर यह नया यथार्थ किस सभ्यता का यथार्थ है ? नयी कविता का कवि किस सभ्यता की सेवा कर रहा है ? नए कवि की नई कविता में किस सभ्यता के चरण पड़ रहे हैं ? क्योंकि सभ्यता,मनुष्य के समाज के सदस्य होने के ज्ञान को कर्म में परणित करती है। सभ्यता परिष्कृत सामाजिक चेतना के लिए उन्मेषपूर्ण अवस्थाएं जन्मती है। वह सभ्यता अधिक समय तक नहीं बदलती जो बदली हुई दुनिया के लिए कोई नयी वस्तु देने में असमर्थ होती है।''
शील जी ने यह भी लिखा '' पूँजीवादी सभ्यता की प्रजननशक्ति समाप्त हो चुकी है। पूँजीवादी सभ्यता पितृसत्तात्मक सभ्यता है। पूँजीवादी सभ्यता में श्रम और नारी ,दोनों ही अनुपस्थित होकर ईश्वर के अधीन रखे जाते हैं। हमारे देश में तो पितृसत्ता के अभिशापस्वरूप ,कन्या-दान कर दी जाती है। मार्क्सवादी दृष्टिकोण की सभ्यता, श्रम और नारी के मुक्ति की सभ्यता -समाजवादी सभ्यता है,यह न मातृ सत्तात्मक है,पितृसत्तात्मक।"
यहां शील जी की वे काव्यपंक्तियां प्रस्तुत हैं जो मैंने अपने फेसबुक वॉल पर दी हैं। इन काव्यअंशों में जीवन के यथार्थ को कवि ने समाजवादी नजरिए से रूपायित किया है।
शील जी ने 1964 में लिखा था- "समाजवाद की घोषणा और मेरा गाँव ! मुझे हंसी आती है/मैं अनुभव करता हूँ/मेरे देश का कांग्रेसी लोकतंत्र /मेरे गांव की तरह अनाथ है/"
शील की एक कविता है 'तुम्हारा न्याय' उसका अंश देखें- "तुम्हारा न्याय/बेलगाम तंग कसे घोड़े की तरह/ दुलत्ती झा़ड़ रहा है/तुम्हारे सभासदःअपराधों की अपच से मोटे हो गए हैं/ भेडिए बतखों के साथ बलात्कार करते हैं /सामाजिक प्रश्नों के हल तुम्हें विघटन में दिखाई देते हैं/ गॉव केचुए काटते रहे/गलियाँ प्रस्तावों की सुगंध लेती रहें/भूमि प्रबन्धक समिति अंगूठों की स्याही देखते रहे/और उत्पीड़न की देह-तुम्हें फूल फल देती रहे।"
भ्रष्टाचार के खिलाफ 30अगस्त 1965 को शील जी ने एक कविता लिखी थी जो आज भी प्रासंगिक है,लिखा- "मर्ज़ लाइलाज है/दाँत न दिखाओ/सोख्ते की मलाई खाओ ! सन्तति निग्रह रस की मालिश करो !बहादुर बनो !कोई क्या कर सकता है !भ्रष्टाचार जिंदाबाद !सोख्ते की सरकार जिंदाबाद।"
शील की कविता एकजमाने में इप्टा की शान थी और उनकी लिखी रचनाएं मुम्बई के पृथ्वी थियेटर में गूंजती थीं। लिखा- "आंधियां उठ रहीं भूख की आग की/फिर क़हर के फरिश्तों में है गूफ्तगू/ काम देगी न फसलों की जल्वागिरी/हम ख़यालो मनोरथ के हांक दो ! बदचलन मुंसिफ़ों के उठादो चलन !हाँकदो- हाँकदो चौमुखी हाँक दो !"
शील जी ने लिखा- "हमें मिटाने की हलचल है/मन्दिर-मसजिद के भीतर/नागपाश लेकर बैठे हैं/युग के जड़ शोषक ईश्वर/"
शील जी नागार्जुन-केदारनाथ अग्रवाल-त्रिलोचन के समकालीन थे,लिखा- "ये शब्दों के बीज/तुम्हारी गर्भवती आस्था की तह में/फूट पड़ेंगे/अंकुर देंगे/आलोडित होने दो अपने मन की पीड़ा/और सपचने दो जठरानल/संयम के संराधक तुम ! /शिव की साध पचाकर देखो ! / ये शब्दों के बीज तुम्हारे पुत्र बनेंगे/"
शील जी ने लिखा- साथियो ! "अंधराष्ट्रवाद /पूंजीपतियों का रिसाला है/ जो खोखली राष्ट्रीयताओं के लिए/कुर्बानियों की चादर ओढ़े/पिला रहा है तुम्हें अफ़यून के घूंट/"
प्रगतिशील कवि शील ने लिखा- "साथियो ईश्वर और नफ़रत,इन्हीं पूजीपतियों की विरासत है,साथियो पूंजीपतियों का उसूल,घृणा का गुब्बारा है,जो मशीन पै ढलता है।"
प्रगतिशील कवि शील ने लिखा- "साथियो होश में हो ! वक्त आराम का नहीं,कलम की नोंक से अवाम के फफोलों को कुरेदो ?लहू गर्म करो ?दिलों के दर्द में सियासत की हरारत भर दो ?अदब को सरमाया की गर्दिश से निकालो? "
एक कविता अंश देखें - "कागज के पुल से-फार्मूला लादे/योजनाओं के गधे जा रहे हैं/ आप मुस्करा रहे हैं/जैसे आप,नसबंदी से बच जाएंगे/और आपकी पत्नी लूप लगाने से/"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें