(वृन्दावन के निधिवन की होली का दृश्य)
होली हो और नजीर अकबरावादी पर बातें न हों यह हो नहीं सकता। ब्रज की होली के रंगों को जिन लोगों ने देखा और जिया है उनके लिए होली का अर्थ समझना आसान है ,लेकिन जिन लोगों ने ब्रज की होली नहीं देखी है वे उसके मर्म को समझ नहीं सकते। टीवी से ब्रज की होली समझ में नहीं आ सकती।
विगत वर्षों में होली खेलते खेलते ब्रज बदला है,मंदिर,बदले हैं,मंदिरों में होने वाला हुरंगा बदला है, सड़कों की रौनक और रंगों का खेल बदला है। आम लोगों का होली के प्रति मिजाज बदला है। ब्रज की होली का अर्थ है कोई नियम नहीं। यह दिन मनुष्य के लिए मुक्ति और आनंद का दिन है। इसदिन को मनुष्य पूर्ण उल्लास और आनंद के साथ व्यतीत करता है।
(ब्रज के होली के हुरंगा का एक दृश्य)
होली में रंग तो बहाना है असल मकसद है बंधनों से मुक्ति। रंग यहां बंधनमुक्ति का प्रतीक हैं। जब आप किसी को रंग देते हैं तो बंधन मुक्ति की कामना करते हैं। जिसने भी होली को आरंभ में खेला था वह बंधनों में बंधे मनुष्य की पीड़ा का भुक्तभोगी रहा होगा। होली का मतलब महज होलिका दहन नहीं है,कुछ लकड़ियों का जलाया जाना नहीं है.यह पौराणिक आख्यान की पुनरावृत्ति भी नहीं है। वैसे हमारे समाज में प्रत्येक त्यौहार के साथ पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं ,कोई न कोई देवी-देवता,नायक-नायिका आदि जुड़े हैं। ये इन पर्वों के गौण रूप हैं। उत्सवधर्मिता इसके पीछे प्रदान लक्ष्य है।
(बरसाने की लट्ठमार होली का एक दृश्य)
होली सांस्कृतिक पर्व है अतः इसकी महिमा निराली है। उसके रंगों का अर्ख रंगों के परे है। यह रंगों से आरंभ जरूर होता है,लेकिन खत्म बंधनों से मुक्ति में होता। रंग पड़ने का अर्थ है निषिद्ध की मौत,बंधन का अंत।यही वजह है होली सब मनाते हैं, लेकिन होली के बहाने भारतीय समाज बंधनों से मुक्ति का महा उत्सव मनाता है।
मजेदार बात यह है कि होली ब्रज की ही सुंदर मानी गयी है,सवाल यह है कि ब्रज की होली क्यों ? ब्रज में भी मथुरा की ही होली क्यों महत्वपूर्ण है ? मथुरा भारत की प्राचीन नगर सभ्यता के बड़े केन्द्रों में से एक रहा है। कृष्ण की जन्मभूमि है और सामाजिक परिवर्तन का श्रीकृष्ण सबसे बड़ा मिथकीय नायक है। वह बंधनों से मुक्ति का भी नायक है।यही वजह है मथुरा को होली का आदर्श स्थान माना गया ।
इसके अलावा जिस चीज ने होली को महान बनाया वह है इसका जातिभेद रहित रूप। होली एकमात्र त्यौहार है जो परंपरा में शूद्रों का पर्व माना जाता है, लेकिन इसको मनाते सभी जाति के लोग हैं। भारत की जातिप्रथा के प्रतिवाद में इस पर्व की बड़ी भूमिका रही है। बंधन,जाति,भेद आदि को होली में जलाते हैं। भेदरहित बंदनमुक्त समाज के आदर्श सांस्कृतिक पर्व के रूप में इस मनाया जाता है। होली पर यदि आप किसी रंग पर डाल दें,किसी को गाली दे दें, किसी को रंग के हौदा में डुबो दें। या फिर प्रेम व्यक्त कर दें।कोई बुरा नहीं मानता। होली में सात खून माफ हैं।
लेकिन परवर्ती पूंजीवाद में होली में मौजूद सहनशीलता को प्रभावित किया है। इन दिनों हम असहिष्णु ज्यादा बने हैं।किसी ने बिना बताए और स्वीकृति के बिना रंग डाल दिया तो प्रतिवाद करते हैं,झगड़ा करते हैं,नाराज होते हैं। होली का नारा है बुरा न मानो होली है। होली में मनुष्य की एक नई परिकल्पना की गई है वह है 'भडुए' की। यह अनुशासित नागरिक की मौत की सूचना का पर्व भी है। यह तथाकथित अभिजनवादी सभ्य समाज की विदाई का दिन भी है। यह जानते हुए भी सभ्य लोग होली पर रंग पड़ने पर बुरा मानते हैं। सरकार ने अनिच्छा से रंग फेंकने के खिलाफ कानून बना दिया है,रंग फेंकना अपराध घोषित कर दिया है। यह होली नहीं है बल्कि होली का सरकारी नियमन है।
ब्रज में होली पूरे फाल्गुन माह चलती है। रंगों का मंदिरों में जमकर हुरंगा चलता है। होली एकमात्र ऐसा पर्व है जिस पर दुश्मन से भी लोग गिला -शिकवा खत्म करके गले मिलते हैं। यह रंजिशों के अंत का दिन है। स्त्री-पुरूष के भेद के अंत का सांस्कृतिक पर्व है,यह अकेला ऐसा सांस्कृतिक पर्व है जिसमें औरतें लट्ठमार होली खेलती हैं और पुरूष निहत्थे होते हैं। वरना और किसी पर्व पर औरतों के हाथ में कोई लट्ठ आपको नहीं मिलेगा।
(कवि नज़ीर अकबराबादी)
यहां हम नज़ीर अकबरावादी की होली पर लिखी एक शानदार कविता पेश कर रहे हैं जिसमें होली के मर्म की शानदार प्रस्तुति की गई है।
"जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ (चंग) के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
खुम (सुराही), शीशे,जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की
महबूब (सुंदर प्रेमिकाएं) नशे में छकते ( मस्त हों,बहकते हों) हों तब देख बहारें होली की
हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुलरू (फूलों जैसे सुंदर मुखड़े वाले) रंग भरे
कुछ भीगे ताने होली के कुछ नाज़-ओ-कदा के ढ़ंग भरे
दिल भोले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़के रंग भरे कुछ ऐश के दम मुँह जंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों तब देख बहारें होली की
सामान जहाँ तक होता है इस इशरत के मतलूबों का (भोग-विलास के प्रेमियों का)
वो सब सामान मुहय्या हो और बाग़ खिला हो खूबों (सुंदरियों) का
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का
इस ऐश मज़े के आलम में इक ग़ोल खड़ा महबूबों का
कपड़ों पर रंग छ्ड़कते हों तब देख बहारें होली की
गुलज़ार खिले हों परियों के, और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो
मुँह लाल ,गुलाबी आँखें हों,और हाथों में पिचकारी हो
इस रंग भरी पिचकारी को,अँगिया पर तककर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों ,तब देख बहारें होली की
इस रंग रंगाली मजलिस में , वो रंडी नाचने वाली हो
मुँह जिसका चाँद का टुकड़ा हो,औऱ आँखे भी मय की प्याली हो
बद मस्त,बड़ी मतवाली हो,हर आन बजाती ताली हो
मयनोशी (मदिरा पान) हो बेहोशी हो 'भडुए' की मुँह में गाली हो
भडुवे भी भडुवा बकते हों,तब देख बहारें होली की
और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब मवय्यों के लड़के
हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट-घटके कुछ बढ़ -बढ़के
कुछ नाज़ जतावें लड़-लड़के कुछ होली गावें अड़-अड़के
कुछ लचके शेख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन फड़के
कुछ काफिर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की
ऐ धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का झक्कड़ हों
उस खींचा-खींच की कुश्ती में और भडुवे रंड़ी का फक्कड़ हो
माजून(कई शराबों को मिलाकर बनाई जाने वाली शराब) शराबें,नाच,मज़ा और टिकिया,सुलफा ,कक्कड़ हो लड़-भिड़के 'नज़ीर' फिर निकला हो कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश झमकते हों तब देख बहारें होली की
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