शनिवार, 19 मार्च 2011

हिन्दी का विलक्षण कवि मनमोहन

               मनमोहन के बारे में बातें करना बेहद जोखिमभरा काम है। खासकर उसके काव्य व्यक्तित्व पर बातें करते समय यही समस्या रहती है कि आखिर उस पर क्या बात करें ? वह 45 साल से कविताएँ लिख रहा है । वह देखने में जितना सीधा,सरल,सौम्य है, विचारों के क्षेत्र में उतना ही दुर्धर्ष है। विचारों की दुनिया में उसे पछाड़ना असंभव है। एकदम मौलिक पैराडाइम पर रखकर सोचने की कल्पनाशील बुद्धि उसे विरासत में अपने पिता की संगीतचेतना से मिली है। मनमोहन का परिवार मथुरा के उन चंद चतुर्वेदी परिवारों में से एक है जो पूरी तरह मॉडर्न परिवार कहलाते थे।सामंती मान्यताओं और आजीविका के सामंती तरीकों से एकदम मुक्त चतुर्वेदी परिवार की कल्पना करना उस जमाने में असंभव थी।
     मनमोहन के पिता संगीत के विद्वान शिक्षक थे और बेहद सुलझे हुए,ईमानदार, जनप्रिय सांस्कृतिक अभिरूचियों के पुंज थे। उनके स्वभाव में चतुर्वेदी समाज की सामंती-अर्द्ध सामंती मान्यताएं,मूल्य और संस्कार एकदम नहीं थे। यही वह बुनियादी पारिवारिक परिवेश था जिसमें मनमोहन का मनोजगत और सामाजिक जगत तैयार हुआ। सभ्यता, संस्कृति, शालीनता आदि में मनमोहन के पिता को आदर्श के रूप में समूचा शहर जानता था और यही वह चीज है जिसने मनमोहन के समूचे व्यक्तित्व को बनाया है। 
     परिवार की संगीत परंपरा के प्रभाव के कारण मनमोहन की संवेदनाएं और इन्द्रियबोध पक्षियों जैसा है। मैंने करीब से उसके सरल और पढ़ाकू स्वभाव को देखा है। बचपन में मेरा पढ़ने में कम मन लगता था उसका खूब,वो शहर के सबसे अच्छे कॉलेज में पढ़ता था मैं संस्कृत पाठशाला में। मैं पक्का ईश्वरभक्त था और वो पक्का नास्तिक। वो नास्तिक कब और कैसे बना यह मैं नहीं जानता लेकिन उसके घर में मंदिर था और मंदिर की कभी -कभार उसे सेवा भी करनी पड़ती थी,इस काम को वो बखूबी अंजाम देता था।  
   मेरा उसके साथ बचपन से संबंध है। मैं पौराणिक कथाओं में डूबा रहता वो मार्क्सवादी सिद्धान्तों से जुड़े वैज्ञानिक चिंतन की समस्याओं में उलझा रहता। मैं उसकी किसी भी बात से सहमत नहीं होता था।उसके साथ विवाद करता था। मेरे और उसके बीच में खेल के लिए कभी दोस्ती नहीं हो पायी, वह कम खेलता था,मेरे कहने के बाद उसने शतरंज खेलना आरंभ किया और कभी-कभार मेरे कहने पर दशहरे पर पतंग उड़ाने छत पर भी चला जाता था। मेरी क्रिकेट,पतंग,शतरंज आदि खेलों में रूचि थी,उसकी दोस्ती करने, कविता सुनाने,दोस्तों के साथ ज्ञान बांटने,पार्क में घूमने और विभिन्न विषयों पर विमर्श और बहस करने में रूचि थी।
      मुझे यहां याद है वह कक्षा 10 में पढ़ता था तब से उसकी कविताएं हिन्दी की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में छपती रही हैं। मथुरा में मनमोहन के चंद पाठक थे उनमें एक मैं भी था।सव्यसाची उसके बड़े प्रशंसक थे।वे उन दिनों मथुरा में कम्युनिस्ट पार्टी के जिलामंत्री थे।एक साहित्यिक पत्रिका 'उत्तरार्द्ध ' निकालते थे।उनके यहां हिन्दी की समस्त साहित्यिक पत्रिकाएं आती थीं । हम सभी उनसे वे पत्रिकाएं लेकर पढ़ते थे।
      मनमोहन की काव्य बुनावट की धुरी है मथुरा के वातावरण का बांकपन और व्यंग्य। उसकी कविता की खूबी है नियोजित विचार औऱ व्यंग्यपूर्ण काव्यभाषा । वह कविता लिखने के पहले कोई योजना नहीं बनाता। वह योजना बनाकर न तो सोचता है और न लिखता ही है। विषय, कल्पना और विचार में वह मुक्तभाव से विचरण करता है। ब्रज के वैष्णवसंतों की उदारता और पैनापन उसकी काव्यभाषा में घुला-मिला है। इस परंपरा के असर के कारण उसमें एकदम अहंकार नहीं है। वह स्वभाव और आदतों से वैष्णव है और विचारों से मार्क्सवादी है।
       कविता में बाँकपन और सीधे कहने की कला उसे मथुरा के परिवेश से विरासत में मिली हैं। मथुरा में उस समय आमतौर पर मध्यवर्ग के लोगों में ब्रजभाषा का प्रयोग होता था लेकिन मनमोहन ने अपने को सचेत रूप से ब्रजभाषा के दायरे से बाहर निकालकर खड़ी बोली हिन्दी के आधुनिक वातावरण में ढ़ाला। उस समय मथुरा में ब्रजभाषा में कविता लिखने वाले कवियों की अच्छी-खासी संख्या थी। मनमोहन के दोस्तों में मेरी याद में महेन्द्र 'नेह' अकेले कवि थे जो खड़ी बोली में क्रांतिकारी कविता लिखा करते थे।
    वह पहले भी युवाओं में नायक था और आज भी युवाओं में नायक है,युवा उसके दीवाने हैं। उसके विचारों में डूबते उतराते रहते हैं । उन्हें वह किसी न किसी वैचारिक-सामाजिक युक्ति के आधार पर बाँधने में सफल भी हो जाता है। मैंने अनेक कवि देखे हैं जिनका प्रगतिशील परंपरा में बड़ा योगदान है लेकिन उनमें से अधिकांश कम्युनिस्ट पार्टी और उसके संगठनों में जनता और युवाओं को संगठित करके लाने के काम में कमजोर रहे हैं। मनमोहन इस मामले में बेजोड़ है। वह जितना शानदार कवि है उतना ही शानदार संगठनकर्ता भी है। मनमोहन का मोटो है संगठन के बिना आंदोलन नहीं, आंदोलन के बिना कविता नहीं,कविता के बिना जीवन नहीं।
     भारत में किसी कवि ने इतने बड़े पैमाने पर कम्युनिस्ट कार्यकर्ता तैयार नहीं किए जितने उसने किए हैं। उसके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सैंकड़ों युवाओं ने कम्युनिस्ट पार्टी का रूख किया है। इस तरह की मिसाल पुराने जमाने में इप्टा के दौर में मिलती हैं। लेकिन आजाद भारत में ऐसी मिसाल नहीं मिलती कि कवि स्वयं लिखे,जनता को संगठित करे,कम्युनिस्ट कैडर तैयार करे।
    जमीनी हकीकत को जानने और समझने की क्षमता वाले सैंकड़ों कम्युनिस्ट कार्यकर्ता पैदा करने में मनमोहन का अतुलनीय योगदान रहा है। मनमोहन के लिए मार्क्सवाद और क्रांति महज विचार नहीं हैं जिनके सहारे जी लिया जाए और कविता लिख दी जाए। मार्क्सवाद और क्रांति के कामों के लिए संरचनाओं के निर्माण के काम को जिस प्राथमिकता के साथ मनमोहन ने किया है उसके कारण वह बड़े-बड़े प्रगतिशीलों की नजर में छोटी उम्र में ही आदर का पात्र बन गया। उसकी यही चीज उसे हिन्दी की प्रगतिशील कवि परंपरा से भिन्न धरातल पर खड़ा कर देती है।  
          मथुरा में मनमोहन ने जब कविता लिखना आरंभ किया था तो  उस जमाने के ब्रज के ज्यादातर कवि सामयिक विषयों पर कविता नहीं लिखते थे। उनकी कविताओं में 17वीं और 18वीं शती के काव्य विषयों की भरमार थी। स्थानीयताबोध हावी था। मनमोहन की कविता का आरंभ ब्रजभाषा के इस स्थानीयतावाद से लड़ते हुआ। उसके नजरिए पर हिन्दी की प्रगतिशील काव्य परंपरा का गहरा असर था जिसने उसे कम उम्र में ही  ब्रजभाषा के स्थानीयतावाद से मुक्त होने में मदद की। उसे आरंभ से ही किसी भी किस्म के रीतिवाद से घृणा थी, वह न तो साहित्यिक रूढ़ियों को मानता था और नहीं सामाजिक रूढ़ियों की मानता था।यह सिलसिला आज भी जारी है।  
मनमोहन की कविता का आज जो ठाट दिखाई देता है वह एक दिन में नहीं बना है। इसमें मनमोहन की बड़ी मेहनत लगी है। मनमोहन की खूबी है उसे प्रगतिशील कविताएं बेहद पसंद हैं मुक्तिबोध और नागार्जुन का वो दीवाना है। लेकिन उसे प्रगतिशील कविता में व्याप्त स्टीरियोटाइप और एक खास किस्म के रीतिवाद से नफ़रत भी है।
मसलन् प्रगतिशील कविता में उन दिनों सार्वभौम लेखन हावी था,एक ही किस्म के विषयों पर लिखना,एक ही किस्म के सजे-सजाए विचारों को परोसना,मजदूर-किसान-आंदोलन और क्रांति ये चार विषय थे जिनके इर्दगिर्द हिन्दी की प्रगतिशील कविता के सार्वभौम विषयों का संसार घूमता रहा है। प्रगतिशीलों में सर्जनात्मकता के स्तर पर इस सार्वभौम (यूनीवर्सल) की हिमायत में खूब लिखा भी गया है। मनमोहन की कविता में आरंभ से यह प्रगतिशील यूनीवर्सल गायब है। हिन्दी कविता में यूनीवर्सल विषय और भावबोध के बिना कविता लिखी जा सकती है और उसे प्रगतिशील कविता कहते हैं इस बात को सामने लाने में मनमोहन की कविताओं की बड़ी भूमिका है।  
    वह आरंभ से प्रतिबद्ध कवि है। मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता आज भी बनी हुई है। मार्क्सवाद के जड़ और यांत्रिक प्रयोगों को मनमोहन ने कभी स्वीकार नहीं किया। सार्वजनिक मंचों पर वह मार्क्सवाद के लिए लड़ता है और अंदर पार्टी मंचों पर मार्क्सवाद और मार्क्सवादियों से लड़ता है।
    मार्क्सवाद को समाज में पाना और अंदर से उसकी अविवेकवादी मान्यताओं से लड़ना उसके कवि व्यक्तित्व की विशेषता है। इस क्रम में मनमोहन ने पाया कम और खोया ज्यादा है। मनमोहन की प्राप्ति है उसकी सामाजिक साख ,अभिव्यक्ति का पैनापन और सामाजिक परिवर्तन के कामों के प्रति उसका एकनिष्ठ समर्पणभाव ।
   मनमोहन की कविता में आधुनिकता के पूंजीवादी रूपों, संस्कारों,आदतों और रोमानियत के प्रति तेज और तीखा व्यंग्य मिलता है। उसने बुनियादी तौर पर आधुनिकतावादी राजनीति,संस्कृति,तकनीक और विधाओं से जुड़े सवालों को निशाना बनाया है। उसकी एक कविता है 'इच्छा',लिखा है- "एक ऐसी स्वच्छ सुबह मैं जागूँ/ जब सब कुछ याद रह जाय/और बहुत कुछ भूल जाय,जो फ़ालतू है/"
    मनमोहन की कविता में एक चीज में आरंभ से देख रहा हूँ कि उसे 'छिपाने' की आदत और 'भय' से सख्त नफरत है। 'छिपाने' की आदत और 'भय' के कारण आम तौर पर खोज का काम नहीं हो पाता। 'छिपाने' की आदत और 'भय' के प्रतिवाद के कारण उसकी कविताएं भावुकता से पूरी तरह मुक्त हैं।
     हिन्दी कविता में भावुकता को वे कवि ज्यादा इस्तेमाल करते हैं जो 'छिपाने' की कला में माहिर हैं। मनमोहन की कविता में जो फैंटेसी,भाषा और व्यंग्य है उसकी पहली और आखिर मुठभेड़ इस छिपाने की काव्यकला से है।यह सामंती कला रूप है।इसका जीवन से लेकर साहित्य तक साम्राज्य है।
     मनमोहन की कविता को खोलने के लिए 'छिपाने' की कला के समूचे ताने-बाने को जानना बेहद जरूरी है। छिपे को उजागर करने के चक्कर में उसे अनेक बार अभिव्यक्ति के संकट का भी सामना करना पड़ता है। फलतः अनेक बार उसकी कविता में प्योर विचारों में सच्चाई व्यक्त होती है। कविता में उसे जब अपनी बेचैनी और आक्रोश को व्यक्त करने के लिए कुछ नहीं मिलता तो विचार के अस्त्र का सफलता के साथ इस्तेमाल करता है। विचार को भी वह उजागर करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। अनेक कवि हैं जो विचार का छिपाने के लिए इस्तेमाल करते हैं लेकिन मनमोहन के लिए विचार छिपाने के कौशल का हिस्सा नहीं है। वह कविता कुछ इस तरह पेश करता है कि पाठक को लगे कि अरे यह तो मैं जानता था। ऐसी एक बेहद सुंदर कविता है 'ईश वन्दना' ,देखें-
"धन्य हो परमपिता ‍!
 सबसे ऊँचा अकेला आसन
ललाट पर विधान का लेखा                             
ओंठ तिरछे
नेत्र निर्विकार अनासक्त
भृकुटि में शाप और वरदान
रात और दिन कन्धों पर
स्वर्ग इधर नरक उधर
 वाणी में छिपा है निर्णय
 एक हाथ में न्याय की तुला
 दूसरे में संस्कृति की चाबुक
 दूर -दूर तक फैली है
 प्रकृति
 साक्षात पाप की तरह।"
        इस तरह की कविताशैली के जरिए मनमोहन एक ऐसे संसार की ओर ध्यान खींचना चाहता है जिसे हम भूल गए हैं। अपनी कविताओं में मनमोहन उन बातों का व्यापक जिक्र करता है जिन्हें हम भूल गए हैं। आधुनिकता ने स्मृतिक्षय को तेज गति से सम्पन्न किया है इस संदर्भ में देखें तो समझ सकते हैं कि वह भुलादी गयी बातों को कविता के केन्द्र में क्यों लाना चाहता है। यह रेखांकित करता है कि हमारी ईश्वर ,चीजों,विषयों,यथार्थ आदि के बारे में हमारी कितनी सीमित समझ है।
      छिपे यथार्थ को सामने लाने के पीछे प्रधान कारण है सत्य की खोज करना। इस सत्य की खोज के चक्कर में मनमोहन दैनंदिन जीवन के छोटे से अंश को पकड़ता है और अनसुलझे जटिल अलगाव की ओर संकेत करता है तो कभी मनोदशाओं के चित्रण में खो जाता है,कभी अवसाद और क्रांति की शरण में चला जाता है।
    छिपे हुए की खोज अंततः मनमोहन की कविता में विरल खेल करती है वह जब छिपे सत्य की खोज करता है तो झूठ को नंगा कर बैठता है। आपातकाल के प्रतिवाद में लिखी उसकी कविता 'आ राजा का बाजा बजा' कुछ इसी तरह के शिल्प की कविता है। यही कलात्मक कौशल उसकी कविता 'ग़लती ने राहत की साँस ली' में दिखाई देता है। लिखा है, "उन्होंने झटपट कहा/हम अपनी ग़लती मानते हैं/ग़लती मनवाने वाले खुश हुए/कि आख़िर उन्होंने ग़लती मनवा कर ही छोड़ी/उधर ग़लती ने राहत की साँस ली/कि अभी उसे पहचाना नहीं गया/"
     मनमोहन ने कविता के प्रचलित आख्यान को डिस्टर्ब किया है। वह कविता के नरेटिव की आकांक्षाओं को डिस्टर्ब करता है। उसकी कविता के नरेटिव के डिस्टर्ब होने का प्रधान कारण है कविता में अवधारणाओं का सृजन। आमतौर पर हिन्दी कवियों के यहाँ कविता में निहित आख्यान सीधे चलता है और यह परंपरा निराला से लेकर नागार्जुन तक सभी के यहां बरकरार है लेकिन मनमोहन इस परंपरा की काव्यशैली के गठन से अपने को अलग करता है।





       

1 टिप्पणी:

  1. मनमोहन के रचना संसार और उनके व्यक्तित्व पर
    बड़ा ही सूक्ष्म विवेचनात्मक लेख है ! कवि के कृतित्व
    और व्यक्तित्व के प्रति आकर्षित करता है !

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