बुधवार, 23 मार्च 2011

बम का दर्शन - 1- क्रांतिकारी भगतसिंह


   (राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान क्रांतिकारियों की निंदा में गांधीजी ब्रिटिश सरकार से एक कदम आगे रहते थे। 23 दिसंबर, 1929 को क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के स्तंभ वायसराय की गाड़ी को उड़ाने का प्रयास किया, जो असफल रहा। गांधीजी ने इस घटना पर एक कटुतापूर्ण लेख 'बम की पूजा' लिखा, जिसमें उन्होनें वायसराय को देश का शुभचिंतक और नवयुवकों को आजादी के रास्ते में रोड़ा अटकाने वाले कहा। इसी जवाब में हिसप्रस की ओर से भगवतीचरण वौहरा ने 'बम का दर्शन' लेख लिखा, जिसका शीर्षक 'हिंदुस्तान प्रजातंत्र समाजवादी सभा का घोषणा पत्र' रखा। भगत सिंह ने जेल में इसे अंतिम रूप दिया। 26 जनवरी, 1930 को इसे देशभर में बांटा गया।)

      हाल ही की घटनाएं। विशेष रूप से 23 दिसंबर, 1929 को वायसराय की स्पेशल ट्रेन उड़ाने का जो प्रयत्न किया गया था, उसकी निंदा करते हुए कांग्रेस द्वारा पारित किया गया प्रस्ताव तथा यंग इंडिया में गांधीजी द्वारा लिखे गए लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने गांधीजी से सांठगांठ कर भारतीय क्रांतिकारियों के विरुध्द घोर आंदोलन प्रारंभ कर दिया है। जनता के बीच भाषणों तथा पत्रों के माध्यम से क्रांतिकारियों के विरुध्द बराबर प्रचार किया जाता रहा है। या तो यह जान बूझकर किया गया या फिर केवल अज्ञान के कारण उनके विषय में गलत प्रचार होता रहा है और उन्हें गलत समझा जाता रहा है। परंतु क्रांतिकारी अपने सिध्दांतों तथा कार्यों की ऐसी आलोचना से नहीं घबराते हैं। बल्कि वे ऐसी आलोचना का स्वागत करते हैं, क्योंकि वे इसे इस बात का स्वर्णावसर मानते हैं कि ऐसा करने से उन्हें उन लोगों को क्रांतिकारियों के मूलभूत सिध्दांतों तथा उच्च आदर्शों को, जो उनकी प्रेरणा तथा शक्ति के अनवरत स्रोत हैं, समझाने का अवसर मिलता है। आशा की जाती है कि इस लेख द्वारा आम जनता को यह जानने का अवसर मिलेगा कि क्रांतिकारी क्या हैं, उनके विरुध्द किए गए भ्रमात्मक प्रचार से उत्पन्न होने वाली गलतफहमियों से उन्हें बचाया जा सकेगा।
      पहले हम हिंसा और अहिंसा के प्रश्न पर ही विचार करें। हमारे विचार से इन शब्दों का प्रयोग ही गलत किया गया है, और ऐसा करना ही दोनों दलों के साथ अन्याय करना है, क्योंकि इन शब्दों से दोनों ही दलों के सिध्दांतों का स्पष्ट बोध नहीं हो पाता। हिंसा का अर्थ है कि अन्याय के लिए किया गया बल प्रयोग, परंतु क्रांतिकारियों का तो यह  नहीं है, दूसरी ओर अहिंसा का जो आम अर्थ समझा जाता है वह है आत्मिक शक्ति का सिध्दांत। उसका उपयोग व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय अधिकारों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। अपने आप को कष्ट देकर आशा की जाती है कि इस प्रकार अंत में अपने विरोधी का हृदय परिवर्तन संभव हो सकेगा।
      एक क्रांतिकारी जब कुछ बातों को अपना अधिकार मान लेता है तो वह उनकी मांग करता है, अपनी उस मांग के पक्ष में दलीलें देता है, समस्त आत्मिक शक्ति के द्वारा उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करता है, उसकी प्राप्ति के लिए अत्यधिक कष्ट सहन करता है, इसके लिए वह बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहता है और उसके समर्थन में वह अपना समस्त शारीरिक बल प्रयोग भी करता है। इसके इन प्रयत्नों को आप चाहें जिस नाम से पुकारें, परंतु आप इन्हें हिंसा के नाम से सम्बोधित नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करना कोष में दिए इस शब्द के अर्थ के साथ अन्याय होगा। सत्याग्रह का अर्थ है, सत्य के लिए आग्रह। उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक शक्ति का ही प्रयोग क्यों? इसके साथ-साथ शारीरिक बल प्रयोग भी क्यों न किया जाए? क्रांतिकारी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक, अपनी नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास करता है परंतु नैतिक शक्ति का प्रयोग करने वाले शारीरिक बल प्रयोग को निषेध मानते हैं। इसलिए अब यह सवाल नहीं है कि आप हिंसा चाहते हैं या अहिंसा, बल्कि प्रश्न तो यह है कि आप अपनी प्राप्ति के लिए शारीरिक बल सहित नैतिक बल का प्रयोग करना चाहते हैं या केवल आत्मिक शक्ति का?
      क्रांतिकारियो का विश्वास है कि देश को क्रांति से ही स्वतंत्रता मिलेगी। वे जिस क्रांति के लिए प्रयत्नशील हैं और जिस क्रांति का रूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों तथा उनके पिट्टुओं से क्रांतिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जाएं। क्रांति पूंजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों को ही विशेषाधिकार दिलाने वाली प्रणाली का अंत कर देगी। यह राष्ट्र को अपने पैरों पर खड़ा करेगी, उससे नवीन राष्ट्र और नये समाज का जन्म होगा। क्रांति से सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि वह मजदूर व किसानों का राज्य कायम कर उन सब सामाजिक अवांछित तथ्यों को समाप्त कर देगी जो देश की राजनैतिक शक्ति को हथियाये बैठे हैं।
      आज की तरुण पीढ़ी को मानसिक गुलामी तथा धार्मिक रूढ़िवादी बंधन जकडे हैं और उससे छुटकारा पाने के लिए तरुण समाज की जो बैचेनी है, क्रांतिकारी उसी में प्रगतिशीलता के अंकुर देख रहा है। नवयुवक जैसे-जैसे मनोविज्ञान आत्मसात् करता जायेगा, वैसे वैसे राष्ट्र की गुलामी का चित्र उनके सामने स्पष्ट होता जायेगा तथा उसकी देश को स्वतंत्र करने की इच्छा प्रबल होती जायेगी। और उसका यह क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक कि युवक न्याय ,क्रोध और क्षोभ से ओत प्रोत हो अन्याय करने वालों की हत्या न प्रारंभ कर देगा। इस प्रकार देश में आतंकवाद का जन्म होता है। आंतकवाद संपूर्ण क्रांति नहीं और क्रांति ही आतंकवाद के बिना पूर्ण नहीं। यह तो क्रांति का एक आवश्यक अंग है, इस सिध्दांत का समर्थन इतिहास की किसी भी क्रांति का विश्लेषण कर जाना जा सकता है। आतंकवाद आततायी के मन में भय पैदा कर पीड़ित जनता में प्रतिशोध की भावना जागृत कर उसे शक्ति प्रदान करता है। अस्थिर भावना वाले लोगों से इससे हिम्मत बंधती है तथा उनमें आत्मविश्वास पैदा होता है। इससे दुनिया के सामने क्रांति का वास्तविक रूप प्रकट हो जाता है क्योंकि यह किसी राष्ट्र की स्वतंत्रता की उत्कट महत्वाकांक्षा का विश्वास दिलाने वाले प्रमाण हैं, जैसे दूसरे देशों में होता आया है, वैसे ही भारत में आतंकवाद क्रांति का रूप धारण कर लेगा और अंत में क्रांति को ही देश को सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।
      तो यह क्रांतिकारी के सिध्दांत, जिनमें वह विश्वास करता है और जिन्हें देश के लिए प्राप्त करना चाहता है। इस तथ्य की प्राप्ति के लिए वह गुप्त तथा खुलेआम दोनों ही तरीकों से प्रयत्न कर रहा है। इस प्रकार एक शताब्दी से संसार में जनता तथा शासक वर्ग में जो संघर्ष चला आ रहा है, वही अनुभव उसके लक्ष्य पर पहुंचने का मार्गदर्शक है। क्रांतिकारी जिन तरीकों में विश्वास करता है, वे कभी असफल नहीं हुए।
      इस बीच कांग्रेस क्या कर रही थी? उसने अपना ध्येय स्वराज्य से बदलकर पूर्ण स्वतंत्रता घोषित किया। इस घोषणा से कोई भी व्यक्ति यही निष्कर्ष निकालेगा कि कांग्रेस ने ब्रिटिश शासन के विरुध्द युध्द की घोषणा न कर क्रांतिकारियों के विरुध्द युध्द की घोषणा कर दी है। इस संबंध में कांग्रेस का पहला वार था उसका वह प्रस्ताव जिसमें 23 दिसम्बर, 1929 को वायसराय की स्पेशल ट्रेन उड़ाने के प्रयत्न की निंदा की गयी। और प्रस्ताव का मसौदा गांधीजी ने स्वयं तैयार किया था और उसे पारित करने के लिए गांधीजी ने अपनी सारी शक्ति लगा दी। परिणाम यह हुआ कि 1913 की सदस्य संख्या में वह केवल 31 अधिक मतों से पारित हो सका। क्या इस अत्यल्प बहुमत में भी राजनीतिक ईमानदारी थी? इस संबंध में हम सरला देवी चौधरानी का मत ही यहां     उद्धृत करें। वे तो जीवन भर काग्रेस की भक्त रही हैं। इस संबंध में प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा है कि 'मैंने महात्मा गांधी के अनुयायियों के साथ इस विषय में जो बातचीत की, उससे मालूम हुआ कि वे इस संबंध में स्वतंत्र विचार महात्माजी के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा के कारण प्रकट न कर सके, इस प्रस्ताव के विरुध्द मत देने में असमर्थ रहे जिसके प्रणेता महात्माजी थे।' जहां तक गांधीजी की दलील का प्रश्न है, उस पर हम बाद में विचार करेंगे। उन्होंने जो दलीलें दी हैं वे कुछ कम या अधिक इस संबंध में कांग्रेस में दिए गए भाषण का ही विस्तृत रूप हैं।
      इस दुखद प्रस्ताव के विषय में एक बात मार्के की है जिसे हम अनदेखा नहीं कर सकते, यह सर्वविदित है कि कांग्रेस अहिंसा का सिध्दांत मानती है और पिछले दस वर्षों से वह इसके समर्थन में प्रचार करती रही है। यह सब होने पर भी प्रस्ताव के समर्थन में भाषणों में गाली-गलौज़ की गयी। उन्होंने क्रांतिकारियों को बुजदिल कहा और उनके कार्यों को घृणित। उनमें से एक वक्ता ने धमकी देते हुए यहां तक कह डाला कि यदि वे (सदस्य) गांधीजी का नेतृत्व चाहते हैं तो उन्हें इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित करना चाहिए। इतना सब कुछ किए जाने पर भी यह प्रस्ताव बहुत थोड़े मतों से ही पारित हो सका। इससे यह बात निशंक प्रमाणित हो जाती है कि देश की जनता पर्याप्त संख्या में क्रांतिकारियों का समर्थन कर रही है। इस तरह से इसके लिए गांधीजी हमारे बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस प्रश्न पर विवाद खड़ा किया और इस प्रकार संसार को दिखा दिया कि कांग्रेस, जो अहिंसा का गढ़ माना जाता है, वह संपूर्ण नहीं तो एक हद तक तो कांग्रेस से अधिक क्रांतिकारियों के साथ है।(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...