करीब दो दशक पहले इस प्रकार के विचार जो कि स्त्री-पुरुष संबंधों के ढांचे के बाहर हैं, किसी भी प्रकार से महिला की स्थिति को समझने में प्रासंगिक हैं, प्रचारित हो रहे थे। ये आपातकाल के तुरंत बाद के दिन थे। देश भर में लोकतांत्रिक अधिकारों और संसाधनों के पक्ष में एक लहर उठी थी। इस लहर के एक हिस्से के रूप में शहर आधारित महिलाओं के समूह की एक बहुत बड़ी भीड़ थी, जिनमें से अधिकतर महिलाओं के आंदोलन के अंतर्राष्ट्रीय चलन से प्रभावित थीं, जिसने महिलाओं के अधिकारों के पूरे संघर्ष को स्त्री-पुरुष के संदर्भ में लाकर रख दिया।
स्वयं महिलाओं के बीच असमानताएं थीं। उदाहरण के तौर पर, उनके बीच वर्ग और जाति के आधार पर श्रेणियां थीं। महिलाएं एक समान समाज नहीं था। ये विवादास्पद मुद्दे थे। यह चलन जो उस समय के आंदोलन में स्पष्ट रूप से प्रभावित
था, उसने परिवार में एक महिला की स्थिति पर अवरोधक लगा रखा था जो कि एक महिला की स्थिति को सबसे अधिक और सबसे गहरे रूप से प्रभावित करती है। महिलाओं के एक-दूसरे से बहनापा जैसे संबंधों का स्वागत था, यह स्वीकार्य था। जो कि वर्ग, जाति या समुदाय से संबंधित किसी भी पहचान को मिटा देता था। इनको 'राजनीतिक' उपनाम दिया गया जिनका महिलाओं से कोई सरोकार नहीं था। आप किसी विषय को अति सामान्य तरीके से पेश करने का आरोप लगा सकते हैं। यदि अकादमिक शब्दजाल को एक तरफ कर दिया जाए तो इन महिलाओं का पूरा ध्यान इस बात पर रहता था कि एक परिवार में क्या हो रहा है या स्त्री और पुरुष के बीच क्या हो रहा है। मुझे उस समय दिया गया एक नारा याद है, 'हर पुरुष में एक बलात्कारी बैठा है।' जिसके आधार पर दिल्ली विश्वविद्यालय में हुए यौन प्रताड़ना के एक बहुत ही अत्याचारपूर्ण हादसे के खिलाफ हुए प्रदर्शन में पुरुषों को हिस्सा नहीं लेने दिया गया। यह उदाहरण काफी अतिवादी प्रतीत हो सकता है लेकिन यह संघर्ष की रणनीति, उसकी खामियां और सोच की संकीर्णता को इंगित करता है।
'केवल महिलाओं के लिए' लिखा दिखने वाला साइनबोर्ड माना कि परिवार के भीतर महिलाओं का एक खास तरह से किए जा रहे दमन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उपयोगी था लेकिन यह उस सामाजिक-आर्थिक ढांचे से खुद को रूबरू करने में नाकामयाब रहा जो परिवार और उसके भीतर स्त्री की स्थिति को प्रभावित कर रहा था।
बेशक, अब तक नजर नहीं आने के कारण घरेलू हिंसा, यौन संबंधी अत्याचार और प्रताड़ना के मसलों पर ध्यान देना आवश्यक था। समस्या इस मुद्दे से नहीं थी। समस्या थी बाहर मौजूद ढांचे से अंदर परिवार में, महिलाओं और पुरुषों के बीच, जो हो रहा था उसके बीच तालमेल बैठाना। पीछे मुड़कर देखते हैं तो यह स्पष्ट है कि यदि यह आंदोलन महिलाओं के दमन को समझने की मात्र इसी दिशा तक अपनी कोशिश को सीमित कर देता तो परिणाम विनाशकारी रहते। विनाश की दिशा में एकतरफा ट्रैक पर केवल महिलाओं के लिए बोगी।
उदाहरण के लिए कई समूहों का घरेलू हिंसा की ओर रवैया व्यक्तिगत मामले पर काम करने जैसा रहता था। अर्थात पुरुष बनाम स्त्री और साहसी महिलाओं की व्यक्तिगत कहानियों को विशिष्ट रूप से प्रस्तुत करना। यह आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, लेकिन उनका क्या जो इतने दमखम वाले नहीं थे। उनका क्या जिनका कहना होता : मैं दुर्व्यवहार करने वाले अपने पति को कैसे छोड़ दूं, जब मेरे पास अपना कहने के लिए कुछ नहीं है, मेरे जीवन निर्वाह का कोई साधन नहीं है। यह साफ था कि उनके लिए उनकी किसी प्रकार की संपत्तिविहीन स्थिति, रोजगार की गारंटी का सवाल और आर्थिक तंत्र का सवाल बहुत ही नाजुक था। लेकिन यह समझने के लिए हमको स्त्री-पुरुष संवाद से परे हटकर उस ढांचे को समझने की जरूरत थी जिसने औरत को शक्तिहीन बनाकर रख रखा था। जायदाद के स्वामित्व की पध्दति और सरकार की नीतियों को समझने की आवश्यकता थी। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मुद्दे से निबटने के लिए भी हमें किसी खास मामले में पुरुष के आक्रमण से परे उस आर्थिक और राजनीतिक ढांचे को देखने की आवश्यकता थी जो उस हिंसा को ताकत और आधार देता है।
वापमंथ के विचार से मूलभूत सवाल यह था कि वर्ग और जाति के आधार पर मौजूद शोषण और इतनी स्पष्ट असमानताओं के होते हुए एक समान व्यवहार कैसे अपनाया जाएगा? राज्य, न्यायपालिका या सांप्रदायिकों की भूमिका का क्या होगा? यद्यपि अलग-अलग प्रवृत्तियों में शक और नफरत थी, यदि महिलाओं के अधिकारों और सुरक्षा की रक्षा करनी थी तो एक संयुक्त संघर्ष और व्यापक गोलबंदी की बहुत अधिक आवश्यकता थी।
अस्सी के दशक के शुरुआती दौर में दिल्ली में दहेज विरोधी संयुक्त आंदोलन एक उदाहरण था कि कितनी ज्यादा गहरी समझ विकसित हो गई थी। हालांकि आंदोलन में कुछ ऐसे थे जो यह चाहते थे कि दहेज के मसले को केवल पुरुषों के बढ़ते हुए लालच और लोलुपता के रूप में स्वीकार करना चाहिए। अन्य मसले उठाए गए, उदाहरण के लिए, संपत्ति में समान अधिकारों की मांग, कानून में परिवर्तनों की मांग, पुलिस की लापरवाही के विरुध्द या अपराधों में भागीदार होने के खिलाफ मांग। पितृसत्तात्मक मूल्यों को मजबूत बनाने में राज्य की भूमिका का मुद्दा उठाया गया। सासों और ननदों के रूप में महिलाएं ही अकसर हिंसा की एजेंट बनती हैं इसलिए दहेज हिंसा के मुद्दे को सीधे स्त्री-पुरुष मुद्दा नहीं बनाया जा सकता था, अपितु यह महिलाओं की स्थिति में गिरावट और उनको एक बोझ के रूप में देखने का एक व्यापक सवाल था।
इसके अलावा गरीब तबके की महिलाओं, कृषि मजदूरों, किसान महिलाओं, शहरी झोपड़पट्टियों में रहने वाली कामकाजी महिलाओं, दलित महिलाओं, अल्पसंख्यक महिलाओं और आदिवासी महिलाओं के साथ काम करने वाले संगठनों और समूहों के अनुभवों के आधार पर भारतीय महिलाओं के आंदोलन की राजनीति को फिर से परिभाषित करने और फिर से दोहराने में मदद मिली और जो महिलाओं के मुद्दे माने जाते थे उनका फिर से मूल्यांकन करने को बल मिला। वह इन्हीं औरतों की आवाज थी जिसने यह साफ किया कि : अगर आप चाहते हैं कि हम आपके आंदोलन का हिस्सा बनें, आप चाहते हैं कि हम घरेलू हिंसा का सामना करें, तो आपको इस स्त्री-पुरुष ढांचे से परे जाना होगा। उस हिंसा का क्या जो मुझे भू-स्वामी से सहनी पड़ती है, क्योंकि मैं भूमिहीन हूं? मुझे ऊंची जात वालों से प्रताड़ना सहनी पड़ती है, क्योंकि शूद्र हूं? मेरा तीन बार से अधिक दमन हुआ हैमेरे लिंग, मेरे वर्ग, मेरी जाति को लेकर मुझे प्रताड़ित किया गया हैऔर मेरा शोषण करने वाले, मुझे प्रताड़ित करने वाले दोनों ही हैं, स्त्री भी और पुरुष भीक्या आप कभी इसे समझेंगे। सामाजिक और परिवार के भीतर हिंसा के खिलाफ संघर्षों के अनुभव ने उन मुद्दों को जो महिलाओं के अधिक अधिकारों से जुड़े थे उन्हें केंद्रीय एजेंडा में लाने की आवश्यकता को पक्का कर दिया।
आपातकाल के बाद आंदोलनों का यह दूसरा पड़ाव था जब प्रभावशाली तबकों, विचारधारा और रणनीति ने नारे को फिर गढ़ा, 'व्यक्तिगत ही राजनीतिक है' से लेकर '...राजनीतिक व्यक्तिगत को प्रभावित करते हैं।' बड़ी संख्या में संगठन आंदोलन को स्त्री-पुरुष दुश्मनी तक ही सीमित करने के बजाए उस मूल ढांचे पर ही प्रश्न करने लगे जो आर्थिक स्थिति जैसे भूमि पर स्वामित्व का हक और उत्पादक संपत्तियों पर नियंत्रण और स्वामित्व, उन सरकारी नीतियों को जो जमीन और उद्योग में निहित स्वार्थ को मजबूती प्रदान करती हैं इत्यादि का निर्णय करता है। महिला संगठनों ने भारतीय संदर्भ में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार को समझने की अपनी तलाश में भारतीय राज्य को और वह जो भी हितों का प्रतिनिधित्व करता है उसको समझने की कोशिश की और साथ ही पूंजीवाद और पितृसत्ता को जोड़ने वाली डोर का विश्लेषण करना शुरू कर दिया।
ऐसे बहुत से दस्तावेज हैं जो आंदोलन के इस महत्वपूर्ण दौर के गवाह हैं जब सरकार की बड़ी-बड़ी नीतियों की आलोचना की गई। उन पर आलोचनात्मक लेख लिखे गए। उदाहरण के लिए, अस्सी के दौर के मध्य में 'नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान फॉर वूमन' की आलोचना करते हुए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज में भूमि सुधार और गरीब ग्रामीण महिलाओं के लिए किसी भी प्रकार के टिकाऊ विकास के लिए भूमि सुधार की आवश्यकता का महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया। इस दस्तावेज में यह इंगित किया गया था कि किस प्रकार भूमि की मिल्कियत का मौजदा आर्थिक ढांचा, जहां जनता का मात्र एक छोटा सा हिस्सा विशाल भूखंडों का मालिक है और बड़ा हिस्सा भूमिहीन है, महिलाओं की स्थिति को प्रभावित करता है। एक महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इस दस्तावेज को पूरे देश भर के 40 से अधिक महिला संगठनों का समर्थन प्राप्त था। वृहत और सूक्ष्म और विपरीत के बीच में संबंध जांचने का यह सकारात्मक चलन मजबूत हुआ है। बाद में बीजिंग में होने वाले विश्व महिला सम्मेलन के लिए सात राष्ट्रीय महिला संगठनों की पहल पर और सौ से अधिक समूहों और संस्थानों के समर्थन से एक वैकल्पिक राष्ट्रीय दस्तावेज तैयार किया गया। बीजिंग में उन मुद्दों पर भारतीय प्रतिनिधि मंडल के योगदान को स्वीकारा गया और दुनिया भर से आए लोगों द्वारा सराहा गया।
व्यक्तिगत तौर पर, मैं ऐसा महसूस करती हूं कि कुछ भी हो नारी आंदोलन अभी तक ग्रामीण महिलाओं और खासकर महिला कृषि मजदूरों के एजेंडे को संतोषजनक रूप से राष्ट्रीय स्तर पर केंद्रित करने में असफल रहा है। वास्तव में ग्रामीण क्षेत्रों में वर्तमान स्थिति यह स्पष्ट करती है कि भूस्वामित्व का आर्थिक ढांचा, ऊंची जाति के सामाजिक आधिपत्य का जातीय ढांचा और लिंग के आधार पर लगातार हो रहा दमन एक साथ आ मिलते हैं, यह निश्चित करने के लिए कि महिला मजदूरों के उस विशाल हिस्से का, जो कि दलित और भूमिहीन हैं, कैसे और शोषण किया जाए ताकि ऊंची जाति के भूस्वामियों के हित में और मुनाफा सुनिश्चित किया जा सके। महिलाएं हल जोतने के अलावा खेती से जुड़े सारे कार्य करती हैं। कृषि संबंधी काम करने वाली महिला मजदूरों की बढ़ोतरी की फीसदी दर, जिसमें से एक बड़ा हिस्सा अनुसूचित जातियों से है, पुरुषों के मुकाबले अधिक तेज है। लेकिन देश के तकरीबन सभी हिस्सों में, सिवा पश्चिम बंगाल, केरल और बिहार और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों को छोड़कर जहां ग्रामीण मजदूरों के आंदोलन अधिक मजबूत हैं, महिलाओं को नाम मात्र का ही पैसा दिया जाता है। इसके अलावा महिलाओं द्वारा किए गए काम को पूरे देश में हलके काम की संज्ञा दी जाती है और कानूनन भी महिलाओं को दी जाने वाली पारिश्रमिक दर पुरुषों के मुकाबले कम है। महिलाओं के काम को हलका काम कहने के इस स्वेच्छाचारी विवरण को महिलाओं के पारिश्रमिक को कम रखने की दृष्टि से भी सही आंका गया है, जो सदा ही जमींदारों के लिए खेती से बहुत ज्यादा धन लाभ का स्रोत रहा है। इन तबकों का इस बात में सदा निहित स्वार्थ रहा है कि महिलाओं के लिए यही सामाजिक तंत्र बना रहे जिसमें हमेशा ही यही बातें की जाती हैं कि महिलाएं 'कमजोर' हैं, 'पुनरुत्पादक हैं, उत्पादक नहीं', 'सहायक कार्यकर्ता' हैं, आदि। यह इसलिए क्योंकि ये पितृसत्तात्मक मूल्य उनके द्वारा महिलाओं को कम पगार देने को सामाजिक मजदूरी देते हैं। यह साफ है कि कोई भी संघर्ष जो महिलाओं के इन तबकों की स्थिति में सुधार के लिए होगा उसे सीधे-सीधे उस आर्थिक ढांचे को चुनौती देनी होगी जो महिलाओं की स्थिति का अवमूल्यन करता है। साथ ही उन मूल्यों को चुनौती देनी होगी जो जानबूझकर इसलिए मजबूत बना दिए गए हैं क्योंकि वे औरत को दूसरे दर्जे का नागरिक ठहराते हैं।
यह केवल कामकाजी महिलाओं के संघर्ष के संदर्भ में सत्य नहीं है, यह गृहिणियों के संदर्भ में भी सत्य है। बीजिंग सम्मेलन में यह गणना की गई थी कि महिलाएं सालाना जितना काम बिना वेतन के करती हैं उसका मूल्य तीन खरब डॉलर है। मैं यह तो नहीं जानती कि यह गणना कैसे की गई थी लेकिन हम ऐसा जरूर महसूस करते हैं कि भारत में भी कुछ इसी तरह का तरीका अपनाया जाना चाहिए ताकि परिवार के निर्वाह के लिए महिलाओं द्वारा किए जा रहे जोरदार योगदान पर ध्यान केंद्रित किया जा सके। ऐसी सामाजिक स्वीकृति द्वारा संपत्ति पर महिलाओं के समान अधिकार की मांग को बल मिलना चाहिए। इक्कीसवीं सदी में हम अपने साथ ऐसे मूल्य और विश्वास ले जा रहे हैं जो सामंतवादी काल के हैं। जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि यह संयोग नहीं है अपितु एक सोच-समझकर की गई कोशिश है जो निहित स्वार्थों द्वारा उन परंपराओं को जिंदा रखने के लिए की जा रही है जो उनके हित में हैं। इनमें से एक विश्वास यह है कि महिला का भविष्य पुरुष से जुड़ा होना चाहिए। मनु के कई सदियों बाद भी हम औरत की स्वतंत्र पहचान स्थापित करने के लिए लड़ रहे हैं। इस पर जोर देने के लिए यह आवश्यक है कि हम उन मूल्यों और ढांचों, दोनों से लड़ें जो औरत को किसी रूढ़िबध्द धारणा में बांध देते हैं।
संयुक्त संघर्ष का यह दौर महिलाओं के आंदोलन के सांप्रदायिकता से दृढ़ प्रतिरोध का केंद्र था। 1980 में हिंदू अधिकारों के उभार के साथ ही भारत को लगातार रक्तरंजित सांप्रदायिक दंगों ने हिला दिया। हिंदूवादी ताकतों ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से महिलाओं को मंदिर और भजन मंडल जैसे उनके परंपरागत स्थानों पर अपना लक्ष्य बनाया। इन महिलाओं को एजेंट की तरह इस्तेमाल करके हिंदू अधिकार ने घरों को भेदने की कोशिश की, अन्यथा जहां पहुंचना उनके लिए असंभव था। उसी समय महिलाएं दंगों की सबसे मुख्य शिकार थीं, इसीलिए हिंसा की विरोधी थीं। इन दंगों की जांच करने में महिलाओं के समूह सबसे आगे थे और उन्होंने अपने लिए जिम्मेदारी तय की थी। सबसे अहम बात यह है कि ऐसे समय
में जब न तो सरकार, न अदालतें, न ही कानून-व्यवस्था के औजार, न ही बुर्जुआ दल कट्टरपंथ से टकराने के इच्छुक थे तब महिलाओं के समूह संगठित कार्रवाइयों के जरिए सांप्रदायिकता से लड़े। सभी सीमाओं को तोड़ कर इस अभूतपूर्व शक्ति की एकता तब सभी के सामने उजागर हुई जब हिंदूवादी गुटों को धर्मनिरपेक्ष महिलाओं के आंदोलन को टक्कर देने के लिए अपने खुद के महिला संगठन बनाने पड़े। शाहबानो के मामले ने महिलाओं के आंदोलन को सामुदायिक पहचान और महिलाओं के धर्मनिरपेक्ष अधिकारोंन केवल गुजारा भत्ते का अधिकार बल्कि शिक्षा और कार्यस्थल अधिकारों, जैसे सवाल उठाने पर बाध्य कर दिया। 1986 के बाद से वाम महिला आंदोलन ने, खासकर मुसलिम महिलाओं को शामिल करने का संचेतना भरा प्रयास किया और इससे सांप्रदायिकता से लड़ने के लिए एक बहुमूल्य नेटवर्क संसाधन उपलब्ध हुआ।
एक क्षेत्र है जहां मैं समझती हूं इस संयुक्त आंदोलन को एक हस्तक्षेप की आवश्यकता है, हालांकि विभिन्न महिला संगठनों द्वारा इस दिशा में सम्मिलित स्वतंत्र कोशिशें की गई हैं, वह है जाति के आधार पर दमन और जातीय ढांचों और ऊंची जात वालों द्वारा पैदा की गई परंपराएं, गढ़े गए सिध्दांत और रूढ़िवादिता। मुझे मंडल आयोग की रिपोर्ट के समय का आरक्षण विरोधी जुनून याद है जिसने उत्तर भारत के कई हिस्सों को हिलाकर रख दिया था। उस समय बहुत से महिला संगठन और समूह मध्यवर्गीय महिलाओं और छात्रों में अपने आधार को खो देने के भय से अपनी बात को लेकर खुलकर सामने नहीं आ रहे थे। इन महिलाओं और छात्रों में से अधिकतर कई केंद्रों पर आरक्षण विरोधी कोलाहल में अग्रिम पंक्ति में थे। जातिवाद बहुत गहरा है और उसको न्यायोचित ठहराना कई रूप लेता है। बहुत से आम तर्कों में एक यह भी है कि चूंकि 'महिलाओं से संबंधित मुद्दे' हिंसा की तरह सभी वर्गों की महिलाओं को प्रभावित करते हैं, तो सभी वर्गों को एक करना उचित रहेगा बजाए कि 'विभाजक मुद्दे' उठाए जाएं। ऊंची जाति के आधिपत्य के खिलाफ विरोध करना विभाजक और विघटनकारी होगा, उसे अनदेखा करने से एकता और अखंडता बल पाती हैयह तर्क है। जहां तक मुझे याद है एडवा उन चंद संगठनों में से था जो उस समय संयुक्त महिला कार्यक्रम के साथ आरक्षण के पक्ष में सामने आया और दिल्ली में ज्यादा चीख-पुकार मचाने वाले महिला छात्रों द्वारा दीवारों पर बैनरों पर लिखे गए स्तब्ध कर देने वाले जातीय नारों का विरोध किया। उस वक्त ऐसी भावनाओं का ज्वार बह रहा था कि जब सभाओं में हमारे वक्ता आरक्षण के पक्ष में बोलते थे तो उनके खिलाफ नारे लगाए जाते थे। उस समय इस मुद्दे पर राष्ट्रीय महिला संगठनों में मतभेद थे, जिसके चलते कोई संयुक्त आंदोलन करना असंभव हो गया।
इसके अलावा जाति के ढांचे को उचित चुनौती देने में कमजोरी आज इस सचाई में भी है कि इन संगठनों में अधिकतर की जड़ें गांवों में नहीं हैं, जहां जातिवाद प्रबल है। दूसरी समस्या है, कुछ राजनीतिक दलों द्वारा जाति की वास्तविकताओं को संकीर्ण और आपत्तिजनक राजनीतिक जोड़-तोड़ से प्रभावित करना। ये राजनीतिक दल इन शोषित जातियों का मसीहा होने का दावा करते हैं। हमने ऐसे-ऐसे मामले देखे हैं जहां हिंसा की शिकार हुई किसी दलित महिला पर उसके रक्षक होने का दावा करने वाले दल ने ही यह दबाव डाला है कि वह मामला वापस ले ले। यह दबाव इसलिए डाला जाता है क्योंकि अत्याचार करने वाले भी उसी जाति के होते हैं और इसे समुदाय को बांटने के रूप में देखा जाएगा। क्या यह विडंबना नहीं है कि कुछ लोगों द्वारा एकता के झूठे तर्क का इस्तेमाल सवर्ण तंत्र के विरुध्द संघर्षों को रोकने के लिए किया जाए वहीं उसी समुदाय के कुछ लोगों द्वारा इसका इस्तेमाल इसलिए किया जाए कि अत्याचार की शिकार हुई महिलाओं को न्याय न मिल सके। मैं जो बात साफ करना चाहती हूं वह यह है कि दमन करने वाले जातीय ढांचे के विरुध्द संघर्ष उन जातियों की महिलाओं की खास आवश्यकताओं में उनकी मदद तब तक नहीं कर पाएंगे जब तक कि आंदोलन पूरे विवेक के साथ इस मुद्दे को नहीं उठाता। गोलबंदी की राजनीति मतभेदों को लगातार बने रहने की इजाजत या मंजूरी देना है और छोटे-छोटे राजनीतिक लाभ के लिए तनाव है तो वह उनको जो समुदाय में ज्यादा असुरक्षित हैं या स्वयं समुदाय को भी कैसे मदद करेगी। ऊंची जातियों द्वारा किए जाने वाले अत्याचार निश्चित ही आंदोलन की मुख्य चिंता होनी चाहिए और अगर मध्य वर्गीय महिलाओं का प्रतिरोध इसे ऐसा होने से रोकता है तो यह चिंता का कारण है। अल्पसंख्यक महिलाओं से जुड़े मुद्दों को भी बहुत मजबूत समर्थन चाहिए।(क्रमशः)
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