शुक्रवार, 11 मार्च 2011

महिलाओं का बहुआयामी संघर्ष- (समापन किश्त)- माकपा सांसद वृंदा कारात


   यहां हम उस दूसरे मुद्दे पर आते हैं जो मैं उठाना चाहती हूं। वह है राजनीतिक ढांचों, मंचों, दलों और उनकी नीतियों और व्यवहार के संबंध में महिलाओं की स्थिति। मैं कहूंगी कि सत्व की दृष्टि से नारी आंदोलन बहुत ज्यादा ही राजनीतिक है क्योंकि यह यथास्थिति को चुनौती देता है। जब आप महिलाओं की स्थिति को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक अलग-अलग ढांचों में रखते हैं, जो कि महिलाओं की स्थिति को और उन पर पड़ने वाले प्रभाव को निश्चित करता है, तब आप वैयक्तिक रिश्तों और अनुभवों से परे दमन की जड़ों तक जाते हैं। आप ढांचों को देखते हैं और यह भी कि क्या उनको बदलाव की आवश्यकता है? क्या वे बदले भी जा सकते हैं या क्या वह बदलाव उसे पूर्ण रूप से नष्ट करके ही आना होगा? उदाहरण के लिए क्या जाति के ढांचों को कुछ टुकड़े जोड़कर बदल सकते हो? साफ तौर पर मेरी समझ से नहीं। वास्तविक सशक्तीकरण के लिए (न कि विश्व बैंक के दस्तावेजों के कृत्रिम सशक्तीकरण से) हमें निहित स्वार्थों को अशक्त करने की आवश्यकता है; और किसी भी हिस्से को नि:शक्त करने के लिए, पूरे तंत्र को बदलने के लिए अधिक मजबूत राजनीतिक इच्छा की जरूरत है।
महिलाओं की स्थिति पर असर डालने वाले ढांचों के बारे में आंदोलन के भीतर जैसे-जैसे बहस और समझ बढ़ी, वैसे-वैसे यह आभास भी बढ़ा कि व्यापक आंदोलन एक व्यापक अर्थ में मूलभूत रूप से राजनीतिक था। महिलाओं के आंदोलन के एक हिस्से के रूप में सीधे राजनीतिक मुद्दों पर बहस करना संभव हो गया। 'राजनीतिक' होने का अर्थ आवश्यक नहीं था कि किसी राजनीतिक दल के सदस्य हों लेकिन यह आवश्यक था कि जो मुद्दे राजनीतिक माने जाते हैं उन पर आप एक स्टैंड लें। यह स्वायत्तता के नाम राजनीति से महिला समूहों की गतिविधियों को अलग रखने की पहले की कोशिशों के बिलकुल विपरीत था। राजनीतिक दलों से स्वायत्तता का अर्थ राजनीति से स्वायत्तता बन गया था। आंदोलन के भविष्य के लिए यह सौभाग्य रहा कि इस विचारधारा को बहुत लंबे समय तक समर्थन नहीं मिला। महिलाओं के आंदोलन के एक हिस्से के बतौर जब इन सवालों को पहली बार उठाया गया तो मीडिया के कुछ हलकों और कुछ राजनीतिक दलों ने इसे नकारते हुए कहा कि आप क्या कर रहे हैं, राजनीति के विषय में बात करना आपका काम नहीं है। आपका काम है दहेज या बलात्कार, या अन्य (तथाकथित) सामाजिक मुद्दों पर संघर्ष करना। आपको उन महिलाओं की मदद करनी है जो जलाई जा रही हैं। जब हमने अन्य मसलों को उठाया तो मीडिया ने प्राय: उसे अनदेखा कर दिया। यह एक जाल है, हम जब भी आंदोलन के एक हिस्से के रूप में अधिक व्यापक सामाजिक मसलों को उठाते हैं तो हमसे कह दिया जाता है कि यह राजनीतिक हैयह आशा नहीं की जाती है कि हम यथास्थिति को चुनौती दें।
एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम यह हुआ कि 1989 में लोकसभा चुनावों की पूर्वसंध्या पर सात राष्ट्रीय महिला संगठनों ने एक अपील जारी की। इसमें उन्होंने महिला मतदाताओं से धर्मनिरपेक्ष दलों को ही वोट डालने की बात कही। तब से हर चुनाव की पूर्वसंध्या पर ऐसी ही अपील की जाती है। अत: सबसे सकारात्मक घटनाक्रम यह हुआ कि कई महिला संगठन और समूह, जिनके अलग-अलग राजनीतिक दृष्टिकोण थे, कई नाजुक राजनीतिक मसलों पर एक साथ आ सके हैं। आंदोलन का धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए और सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरपंथ के विरुध्द एक लंबा और स्पष्ट संघर्ष इन सब मुद्दों में सबसे महत्वपूर्ण है।
एक समय था जब सांप्रदायिकों की आक्रामकता अपनी पूरी पराकाष्ठा पर थी और आंदोलन के भीतर एक छोटा सा हिस्सा यह कहकर समझौता करने का इच्छुक
था कि वे लोग जो इस सांप्रदायिक तनाव के लिए जिम्मेदार हैं वे राजनीति से बहुत ज्यादा जुड़े हुए हैं। इस पर बहस हुई। इसका श्रेय महिला संगठनों को जाता है कि इसमें यह फैसला लिया गया कि इसके लिए जो राजनीतिक दल और ताकतें जिम्मेदार हैं उनका नाम लिया जाएराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा, शिवसेना और उनके सभी प्रमुख संगठन। पूरे देश भर से आईं हजारों औरतों ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के पक्ष में भाजपा शासित लखनऊ में ऐतिहासिक मार्च किया जिसमें मसजिद की रक्षा करने की मांग की गई। वह महिला संगठनों द्वारा बड़े राजनीतिक परिवर्तनों को महिलाओं के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों से जोड़ने की दिशा में उनके परिपक्व होने का प्रतीक था। यह समझना और जानना आवश्यक था कि ऐसे घटनाक्रमों का अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं पर क्या विशेष प्रभाव पड़ा।
फिर भी इन मसलों पर मौजूदा संदर्भ में नजर डाली जाए तो एक चलन है जिसे 'जनता के आंदोलनों' के नाम से पेश किया जाता है। यह सभी राजनीतिक दलों को भ्रष्ट, या पितृसत्तात्मक, या धर्मतंत्रात्मक मानता है। इसके लिए राजनीतिक प्रतिबध्दता का अर्थ है सभी राजनीतिक दलों को गालियां देना और उनको 'अछूत' मानना। मैं इस तरह की विचारधारा से सहमत नहीं हूं। यह व्यवहार राजनीतिक पागलपन की निशानी है। जाहिर है, चूंकि मैं एक राजनीतिक दल की सदस्य हूं, आप इसे प्रेरित दृष्टिकोण कह सकते हैं। लेकिन मैं यहां किसी एक राजनीतिक दल की बात नहीं कर रही हूं। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि सांप्रदायिकता और अयोध्या के अपराध और अत्याचार के मुद्दे पर अगर महिला संगठनों ने कहा होता कि हम सभी राजनीतिक दल एक जैसे हैं और बराबर के जिम्मेदार हैं? तो इससे किसे लाभ होता? बेशक भाजपा और उसके द्वारा प्रवर्तित की हुई फासीवादी ताकतें। एक और उदाहरण, महिलाओं की जानी-मानी एक पत्रिका की संपादक ने सभी संसद सदस्यों को ठग और गुनाहगार कहकर वर्णित किया। उनको शायद कुछ उतने ही निंदक मध्यवर्गीय श्रोताओं से तारीफ मिली होगी। पर क्या सभी संसद सदस्य एक जैसे होते हैं? क्या सभी राजनीतिक दल एक जैसे होते हैं? क्या हम तानाशाही की हिमायत कर रहे हैं? ऐसे नारे जो लोकप्रिय प्रतीत होते हैं वास्तव में आंदोलन के लिए बहुत हानिकारक हैं, क्योंकि ये असल मसले को धुंधला देते हैं और महिला आंदोलन को एक रणनीति के बतौर अपने दोस्त और दुश्मन पहचानने की जो जरूरत है उसे नकार देते हैं। किसी इस और उस राजनीतिक दल की आलोचना करना या उसे दोषी ठहराना एक बात होती है और सब कुछ मिलाकर एक पिंड सा बना देना और अपने व्यवहार से अधिक पवित्र आचार-व्यवहार अपनाना दूसरी बात होती है। जो कि केवल बहुत ज्यादा बाहुबली या फिर भ्रष्ट को मदद करता है।
इसके अलावा राजनीतिक तंत्र को साफ करने की जरूरत और अपराधियों और कुछ खास किस्म के राजनेताओं के बीच हलकी होती सीमा-रेखा को समाप्त करने की आवश्यकता पूरे राजनीतिक तंत्र को कोसने से शायद ही पूरी हो पाएगी। पिछला आम चुनाव, जिसमें भाजपा को पराजय का मुंह देखना पड़ा, एक बड़ा राजनीतिक युध्द था। करोड़ों महिलाओं ने अपना मत दिया। ऐसे समय में सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए काम करने वाले सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में हम क्या कह सकते हैं? क्या हम पीछे हटकर यह कह सकते हैं कि वे सभी खराब हैं, क्या फर्क पड़ता है कि तुम किसको वोट डालते हो? क्या हम अपने हस्तक्षेप को उम्मीदवार के कथित प्रमाणपत्र के मूल्यांकन तक ही सीमित कर सकते हैं? उस राजनीति और राजनीतिक मंच का क्या होगा जिसका ऐसे उम्मीदवार प्रतिनिधित्व करते हैं। ये वे मसले हैं जिन पर ध्यान देना जरूरी है। निर्वाचित संस्थाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण को समर्थन देने बल्कि आरक्षण की मांग करते हुए हमें यह स्पष्ट करना होगा कि राजनीति में भागीदारी मात्र चुनावी राजनीति तक ही सीमित नहीं है। छाया राजनीति, या फिर जिसे पंच-पति सिंड्रोम कहती हूं (जहां चुने गए सदस्य का पति हर बैठक में उसका प्रतिनिधित्व करता है), के जरिए तोड़-फोड़ करने के बजाए आरक्षण नीति के लिए हमें अधिक से अधिक महिलाओं को सक्रिय राजनीति में शामिल होने के लिए प्रेरित करने की आवश्यकता है।
एक दूसरा खतरा भी है। जैसे-जैसे हमारा आंदोलन अधिक राजनीतिक होता है और मूल ढांचों को चुनौती देता है तो सह-विकल्प के तरीके हरकत में आने लगते हैं। यह धन के जरिए हो सकता है, जो कि ज्यादा स्पष्ट है। यह पद द्वारा हो सकता है। लेकिन यह दृष्टिगत रेडिकल एजेंडा को कपटपूर्ण तरीके से दिए गए प्रोत्साहन से भी हो सकता है। जो कि वास्तव में आंदोलन को ताकतवर नहीं कमजोर बनाता है। मैं समझती हूं कि विखंडन के जरिए सह-विकल्प देश में आयात किया गया नया तरीका है। पश्चिमी फंडिंग एजेंसियों का जो एजेंडा है वह अब दलितों, आदिवासियों, देशज लोगों आदि के बारे में बात करता है। उत्पीड़ितों के इन हिस्सों के लिए अलग-अलग संगठनों के निर्माण के लिए पैसा उपलब्ध है। लेकिन छुपा एजेंडा है सामाजिक मनमुटाव का बीज बोना और उसे पालना-पोसना ताकि उत्पीड़ितों की एकता और ताकत नष्ट हो जाए। उन उत्पीड़ित तबकों को हमारे सक्रिय समर्थन की आवश्यकता है, जो अपने अधिकारों के लिए आगे आ रहे हैं और अपने उस नेतृत्व को चुनौती दे रहे हैं जिन्होंने उन्हें नाम भर के लिए समर्थन दिया लेकिन उनकी दासता को अमर बना दिया है। ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे जैसे कि महाराष्ट्र में जहां किस तरह से फासीवादी ताकतों ने दलित संगठनों को लक्ष्य बनाया और उन पर हिंसा का कहर बरपाया। महाराष्ट्र इस बात के लिए भी एक अच्छा उदाहरण है कि यथास्थिति को चुनौती देने के लिए कैसे सबसे अधिक उत्पीड़ितों के संगठनों ने प्रगतिशील राजनीतिक ताकतों के साथ हाथ से हाथ मिलाया। समस्या वहां खड़ी होती है जब फूट डालने वाली नीति के तहत दलित या आदिवासी संगठनों को उत्पीड़ितों के अन्य संघर्षों के आगे तुच्छ दिखाकर उन्हें दोस्त न होकर दुश्मन जताने का प्रयास किया जाता है। इन समुदायों के दमन और शोषण में विशिष्टता है, लेकिन मात्र यह तथाकथित पहचान की राजनीति अधिकारों के सर्वमुक्तिवाद को नष्ट या कम से कम क्षरण कर रही है। हम जानते हैं कि पूर्वी यूरोप में जातीय पहचानों के नाम पर क्या हुआ था। आज सबसे खतरनाक स्थिति असम में है जहां वे समुदाय जो पहले शांति और सद्भावना से रहते थे वे एक-दूसरे के विरुध्द हिंसा का रास्ता अपना रहे हैं या फिर कम से कम उनको यह विश्वास दिलाया जा रहा है कि उनका विकास दूसरे के अविकसित होने में है। सचाई यह है कि सभी विकास से दूर और शोषित भी हैं। तो किसको लाभ हुआ?
आज हम तीसरी दुनिया के हर देश में सह-विकल्प और विखंडन की राजनीति देख रहे हैं। यह एक नई चुनौती है जिसका सामना करना होगा और जिस पर विजय प्राप्त करनी होगी। यह पक्का है कि यह किसी पौराणिक एकता के नाम पर खास शोषण और मांगों को अनदेखा करके नहीं होगा, जो कि वास्तव में उच्च धर्माधिकारी वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन यह हमारे संघर्षों को खंडित करके भी नहीं होगा। जहां तक महिलाओं के आंदोलन का सवाल है तो हमें बहुत उत्साह के साथ अपनी एकता की सुरक्षा करनी होगी। उदाहरण के लिए, हम यह नहीं मानते हैं कि मुसलिम महिलाओं को अपनी समस्याओं से अकेले ही निबटना होगा। हम यह नहीं मानते कि दलित महिलाओं का उत्पीड़न एक ऐसी समस्या है जिसे उन्हें अकेले ही चुनौती देनी होगी। हम नहीं मानते कि ईसाई महिलाओं का संघर्ष मात्र उनका ही अपना संघर्ष है। महिलाओं के आंदोलन को इन सभी तबकों का प्रतिनिधित्व करना होगा और इन तबकों के संगठन व्यापक संघर्ष का एक अभिन्न हिस्सा हैं।
हालांकि भिन्न-भिन्न तौर-तरीकों में विवाद और मतभेद बने रहते हैं। भारत में नारी आंदोलन की ताकत आम चिंता के क्षेत्रों में एक साथ काम करने का विवेकशील प्रयत्न है। पिछले 15 सालों में, पूरे स्पैक्ट्रम में महिला समूह नए मुद्दों से जुड़ गए हैं और यह समझने लगे हैं कि ढांचागत समायोजन का सारा बोझ गरीब महिलाओं पर है। प्राथमिकता के रूप में महिलाओं के सबसे अधिक शोषित और उत्पीड़ित तबकों के हितों की रक्षा करने में और उन्हें मजबूत बनाने के आधार पर ही हम यथास्थिति को सफलता के साथ चुनौती दे सकते हैं और विकास को एक वैकल्पिक प्रक्षेप-पथ दिखा सकते हैं।




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