शनिवार, 12 मार्च 2011

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के शताब्दी वर्ष के अवसर पर विशेष-भूमंडलीकरण के खिलाफ सार्वभौमिक प्रतिरोध (1) माकपा सांसद वृंदा कारात


                                                                                                                      अंतर्राष्ट्रीय मीडिया दुनिया को अभिजात्य पश्चिमी नजरिए से देखता है और 'नारीवादी की मौत' कहकर किलकारता है। उनके अनुसार महिला आंदोलन ने अपनी गतिशीलता खो दी है। उनका एक अमरीकी नारीवादी को इतनी तवज्जह देना, जिसने 'अंतत:' शादी कर ली, उनकी आलोचना के भोंडेपन को दरशाता है। यह बाद में सबूत के तौर पर सामने आया है कि 'कैसे चीजें बदल रही हैं', क्योंकि उनके द्वारा की गई इस व्याख्या के अनुसार 'महिला आंदोलन' के मूलभूत सिध्दांतों में से एक था पुरुषों से घृणा, अत: शादी से नफरत।
इस समझ के विपरीत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला आंदोलन अपने नए जीवन के दौर में है। यदि इसे अंतर्राष्ट्रीय मीडिया द्वारा पहचाना नहीं जाता है या अनदेखा किया जाता है तो वह इसलिए कि यह उस समझ के आधार पर हो रहा है जो सनसनीखेज मीडिया खांचे में फिट नहीं बैठता, यह महिलाओं के लिए आरक्षित है। यह व्यक्तियों या व्यक्तित्व पर आधारित नहीं है। पूरे विश्व भर में विभिन्न देशों में महिलाओं की बड़ी गोलबंदी महिलाओं के जीवन पर संरचनात्मक समायोजन नीतियों के प्रतिकूल असर पर गतिमान रहे हैं : कुछ साल पहले बीजिंग में महिलाओं के विश्व सम्मेलन में मीडिया ने हिलेरी क्लिटन के खड़े होकर किए गए स्वागत को तवज्जह दी। जिस हाल में उनका गुणगान हो रहा था उसके बाहर हो रहे बड़े और उग्र विरोध प्रदर्शनों को मीडिया ने अनदेखा किया। लेकिन वैश्विक आंदोलन उन नीतियों का विरोध कर रहे हैं और उन पर सवाल खड़े कर रहे हैं जो विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की नई अंतर्राष्ट्रीय तिकड़ी ने दुनिया पर थोपे हैं। इस विषय पर बहुत ध्यान देने की आवश्यकता है। सिएटल और नीस में हुए प्रदर्शन इसके कुछ उदाहरण हैं। जाहिर है कि सबसे ताकतवर देश के प्रतिनिधि के सम्मुख सिर झुकाने का चलन अभी भी दुनिया में बहुत हद तक जारी है। पर सैध्दांतिक और राजनीतिक अवरोधों की सीमाओं को लांघकर महिलाओं के अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन में बढ़ता हुआ प्रतिरोध एक अहम परिवर्तन है।
2000 में महिलाओं के लिए विश्व मार्च इस बढ़ते प्रतिरोध का सबसे प्रेरणाप्रद उदाहरण था। मानव विकास और मानव अधिकारों में विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को सबसे बड़ा बाधक ठहराते हुए संरचनात्मक समायोजन की नीतियों के खिलाफ 159 से ज्यादा देशों के 6,000 महिला संगठनों ने एक साथ मिल कर मार्च किया था। यह प्रचार पूंजीवाद को सीधे अस्वीकार करने पर आधारित था। नवउदार आर्थिक नीतियों द्वारा पैदा की गई और बढ़ाई गई गरीबी और हिंसा के खिलाफ प्रचार और प्रदर्शनों में विश्व भर की लाखों महिलाओं ने 8 मार्च 2000 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से 17 अक्टूबर गरीबी विरोधी दिवस तक हिस्सा लिया। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के खिलाफ न्यूयॉर्क में महिलाओं का मार्च आंदोलन का चरम बिंदु था। महिलाओं की इस वैश्विक पहलकदमी को हमारे देश में शायद इतनी प्रशंसा नहीं मिली, यहां तक कि हमारे दोस्तों से भी नहीं।अलग-अलग प्रवृत्तियों की ताकत और कमजोरियों में इस कोशिश ने बहुत महत्वपूर्ण बदलाव की रेखा खींची। इस वक्त यहां सारी व्याख्या करना संभव नहीं है।
     जो बात काबिलेगौर है वह है जिसे 'पुरातन नारीवाद' कहा जा सकता है उस चलन का कमजोर पड़ना यानी स्त्री-पुरुष समीकरण के सीमित दायरे में कार्रवाई और सामाजिक विश्लेषण। इस विचारधारा का 70 और 80 के दशक में बहुत बोलबाला था। 90 के दशक ने महिलाओं के अनुभव को बृहद नीतियों और सामाजिक-आर्थिक ढांचे के प्रसंग में महिला आंदोलन के काम और विचारधारा को और व्यापक और परिपक्व होते देखा। यद्यपि यह तो पक्का है कि इसे महिलाओं के दमन के प्रति मार्क्सवादी विचारधारा को स्वीकार करना नहीं कहा जा सकता है, वह ढांचा है जो स्वयं को वाम विचारधारा वाले संगठनों (भारत में एडवा जैसे) और 'स्वतंत्र' या 'स्वायत्त' समूहों और संगठनों और गैरसरकारी संगठनों का एक मजबूत हिस्सा, जो गैरसरकारी संगठन की पूर्व यथास्थिति और 'राजनीति विरोधी' ढांचे से अलग हो चुके हैं, उसे व्यापक गठजोड़ की ओर ले जा सकता है। विश्व मार्च के आयोजकों के साहित्य के मुताबिक यह 60 के दशक में वियतनाम युध्द के खिलाफ हुए रेडिकल मार्च की याद दिलाता है। हालांकि इसका विस्तार उतना नहीं था। उन्होंने 'अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के नवीनीकरण और लोकतंत्रीकरण की मांग की। यह मांग ऐसे ऐतिहासिक समय में की गई जब वित्तीय बाजार बिना किसी कानून या नागरिकों के प्रति किसी प्रकार की जवाबदेही के बिना काम कर रहे हैं। वे दुनिया को एक विशालकाय बाजार में बदल रहे हैं जो केवल अमीरों के लिए खानपान का प्रबंध करती है और वस्तुत: मानवता के खिलाफ युध्द का संचालन कर रही है, जिसका परिणाम है घायल, बाहर कर दिए गए, शरणार्थी और मृत।'
विश्व मार्च में दिखाई दी यह अभूतपूर्व एकता एक स्पष्ट राजनीतिक समझ पर आधारित थी, जो जाहिर है कि एक रात में नहीं बनी थी। यह पूरी दुनिया भर में महिलाओं के वास्तविक अनुभवों पर आधारित थी।
पृष्ठभूमि
सोवियत संघ और पूर्वी यूरोपीय शासनों के ध्वस्त होने के बाद विश्व भर में समाजवाद को गहरा धक्का लगा था और औपनिवेशिक ताकतों के हमलों में बढ़ोतरी हुई थी। ऐसे समय में नई अर्थव्यवस्था के सैध्दांतिक योध्दाओं ने ऐलान कर दिया था कि 'पूंजीवाद' के साथ जीना सीखने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा है। इस विचार से पूंजीवाद ने 'इतिहास का अंत' स्थापित किया। इस नजरिए की झलक वाम खेमे के पूर्व बुध्दिजीवियों में भी दिखाई दी जिन्होंने अपने कदम वापस खींच लिए थे। पीछे हटने का यह कदम ऐसा था जिसने अंतर्राष्ट्रीय महिला आंदोलन के भीतर और साथ ही कई आंदोलनों को भी प्रभावित किया, जिसके परिणामस्वरूप उनका मनोबल गिरा और विखंडन हुआ। महिलाओं के अंतर्राष्ट्रीय लोकतांत्रिक फेडरेशन (डब्ल्यूआईडीएफ), यह एक ऐसी बाडी थी जिससे बहुत बड़ी संख्या में वाम धारा वाले महिला संगठन संबध्द थे, उसके नेतृत्व में वाम धारा वाले संगठनों ने कमोबेश औपनिवेशिक विरोधी संघर्षों में सोवियत संघ के नेतृत्व और विकास के सोवियत मॉडल को स्वीकार किया था। भारत में ऐसा संगठन एनएफआईडब्ल्यू था जो डब्ल्यूआईडीएफ से संबध्द था। डब्ल्यूआईडीएफ ने वैश्विक स्तर पर युध्द के खिलाफ और शांति के पक्ष में, साथ ही तीसरी दुनिया के देशों के साथ भाईचारा बनाए रखने आदि के लिए महिलाओं की गोलबंदी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
      90 के दौरान डब्ल्यूआईडीएफ को वास्तव में लकवा मार गया था और उसने अपनी पुरानी स्थिति को खो दिया था, हालांकि बाद में उसने फिर से संगठन बनाने शुरू कर दिए थे।अन्य महिला आंदोलनों के भीतर भी 'मौजूदा सचाइयों के साथ समझौता' करने की प्रवृत्ति थी। यह दुनिया के विभिन्न हिस्सों में दान से चलने वाली गैरसरकारी संगठनों के कामकाज में प्रतिबिंबित हो रहा था। इन संगठनों ने लघु परियोजना के कार्य के लिए जन प्रदर्शनों और आंदोलनों को ठुकरा दिया था। 'स्थानीय काम' पर अधिक जोर देने और उस काम को व्यापक संदर्भ में संबोधित न करने ने खांटी राजनीति को जहां एक तरफ हाशिए पर रखा और वहीं निहित स्वार्थों के लिए कपट करने का मौका मिला चाहे वे विशेष गैरसरकारी संगठन कितने अच्छे खयालों वाले या समर्पित क्यों न हों।
इसके बावजूद एक और चलन उभरकर सामने आ रहा था। नई आर्थिक व्यवस्था में उनके जीवन-यापन और जिंदगी पर हो रहे क्रूर अत्याचार के संदर्भ में विश्व भर में महिलाएं आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर संगठित हो रही थीं। जो लोग सुन रहे थे, दुनिया भर में महिलाएं एक जैसी बातें कह रही थीं। वे बता रही थीं कि जीवन और कितना ज्यादा मुश्किल हो गया है। उनको कितना ज्यादा काम करना पड़ता है। वे बता रही थीं कि दो जून की रोटी का जुगाड़ करना कितना मुश्किल है। और ये आवाजें न केवल पूर्व समाजवादी देशों, न केवल तीसरी दुनिया के देशों से आ रही थीं बल्कि पहली दुनिया से भी ऐसी ही पुकार सुनाई दे रही थी।
1995 में बीजिंग में ही संकेत स्पष्ट थे जब विश्व भर से महिलाओं के समूहों ने समानांतर एनजीओ सम्मेलन में विश्वीकरण और नवउदार नीतियों का महिलाओं के जीवन पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव पर बहस की थी। संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम को जानबूझकर हटाने और 'नई आर्थिक नीतियों' को अधिक गरीबी लाने वाली नीतियों के रूप में संबोधित करने के लिए इस सम्मेलन के आधिकारिक दस्तावेज की भरसक निंदा की गई थी। यह पहली बार था जब वैश्विक महिला आंदोलनों द्वारा उपनिवेवाद से प्रेरित विश्वीकरण की नीतियों की इतने तीखे स्वर में आलोचना की गई। उसने हकीकत को देखने के लिए अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों को बाध्य किया। उसके बाद संयुक्त राष्ट्र और उससे जुड़ी एजेंसियों द्वारा आयोजित आधिकारिक सम्मेलनों को विश्वीकरण के दौर में महिलाओं के और अधिक हाशिए पर चले जाने पर बार-बार ध्यान आकर्षित करना पड़ा। स्वीकार के बावजूद, जाहिर से कारणों के लिए, जिसमें स्वयं संयुक्त राष्ट्र को किनारे पर रखना शामिल है, कोशिश यही है कि इस नई तिकड़ी की आलोचना को नरम रखा जाए। अत: आधिकारिक अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेजों द्वारा नीतियों को कोई चुनौती नहीं दी गई और जनविरोध को 'सामाजिक सुरक्षा नेट' और 'गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम' का हवाला देकर निस्तेज कर दिया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और हमारे देश में भी कुछ ऐसे महिला संगठन हैं जो इस विकृत तर्क को मानते हैं और व्यवहार में विश्व बैंक की विचारधारा के संवाहक के रूप में कार्य करते हैं।
लोगों की जिंदगियों पर हमला
पूर्व समाजवादी देशों में
लेकिन सत्य को स्वयं साबित करने का एक तरीका है। साम्राज्यवादी प्रचार तंत्र द्वारा प्रचारित मिथ को स्वयं पूर्व समाजवादी देशों के भीतर से महिलाओं के अनुभवों द्वारा चुनौती दी गई। एक 'माडल' बनना तो दूर, जैसा कि साम्राज्यवाद ने वादा किया था, ये देश निर्मम शोषण और दमन के शिकारगाह बन गए। जब तक उनके देश समाजवादी बने रहे महिलाओं और बच्चों को इन देशों में विकसित देशों से पहले एक बेहतर जीवन स्तर और सामाजिक और कानूनी स्थिति को लेकर आश्वस्त कर दिया गया था। लेकिन सबसे पहले और सबसे तकलीफदेह चोट इन्हीं को पहुंची। तथ्य सभी मालूम हैं।
     यूनिसेफ की एक सर्वे रिपोर्ट ने आकलन किया कि इन देशों में पिछले दशक में 2.5 करोड़ नौकरियां गई हैं उनमें से 1.4 करोड़ नौकरियां यानी आधे से अधिक महिलाओं के पास थीं। 70 फीसदी महिलाओं, जिन्होंने अपनी नौकरी खो दी, को या तो अपने ओहदे से छोटे ओहदे की और कम तनख्वाह की नौकरी करनी पड़ी थी। न्यायपालिका में महिलाएं एक-तिहाई महत्वपूर्ण ओहदों पर थीं जो अब घटकर 10 फीसदी से कम पर आ गईं। राजनीतिक भागीदारी के प्रतिशत में अधिक गिरावट आई है। सर्वे में जिन 27 देशों को शामिल किया गया उनमें महिलाओं की जीवन प्रत्याशा घटकर आधी रह गई है। एड्स के मामलों में नौ गुना बढ़ोतरी हुई है, जो कि मूल रूप से महिलाओं की खरीद-फरोख्त की बढ़त को प्रतिबिंबित करता है। बाल सुरक्षा सेवाओं, स्वास्थ्य सेवाओं, आवास और खाद्य सुरक्षा पूरी तरह से समाप्त कर दी गई है जिसके परिणामस्वरूप गरीबी के स्तर में जोरदार बढ़ोतरी हुई है : यह ऐसे देशों में हुआ जहां न्यूनतम मानव आवश्यकताओं के लिए तंत्र मौजूद था जो कि अधिकतर विकसित देशों को मात देता था।
'विकसित' पश्चिम में
अपने स्वयं के देशों में भी बड़े व्यापार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने जबरन ऐसे कार्यक्रम लागू किए हैं जो कि कल्याण लाभों को ठीक हृदय पर काटते हैं। इन लाभों को विकसित पूंजीवादी देशों की कामगार जनता ने बीसवीं सदी में समाजवादी क्रांति के दबाव में विशेष रूप से हासिल किया। समाजवादी व्यवस्था में रहने वाले लोगों को राज्य की जिम्मेदारी के नाते स्वास्थ्य सुविधाओं, शिक्षा, आश्रय और काम का आश्वासन आदि में प्राप्त ढेर सारे लाभ के उदाहरण की ताकत को पहचानते हुए पूंजीवादी देशों के शासकों को अपने देशों में कामगार लोगों के लिए कुछ कल्याणकारी व्यवस्था करने को बाध्य होना पड़ा।
इसलिए समाजवाद को लगे झटके का असर इन सरकारों की नीतियों पर भी पड़ा। अत: वे नवउदारवादी उपायों के एक हिस्से के रूप में जो भी कल्याणकारी उपाय मौजूद थे, भले बहुत ही अपर्याप्त कल्याणकारी उपाय थे, उनमें कटौती करने लगे। उदाहरण के लिए, इन देशों में, जैसे ब्रिटेन, कनाडा और फ्रांस में असमानताएं बहुत बढ़ गईं क्योंकि गरीबी और हाशिए पर पड़े समुदायों के लिए जो सब्सिडी राज्य द्वारा दी जाती थी वह समाप्त कर दी गई। ऐसा आकलन किया गया है कि अमरीका में पिछले दशक में जनसंख्या के 75 फीसदी हिस्से ने अपनी वास्तविक आय में गिरावट को देखा है। अमरीका में आज 365 लाख लोग गरीबी में रह रहे हैं और हर चार में से एक बच्चा अभावों का शिकार है। देश की एक फीसदी जनता उसकी 47 फीसदी दौलत की मालिक है। यह वह समय है जब कल्याणकारी उपायों को वास्तव में कम कर दिया गया है, खत्म कर दिया गया है। जो लोग किसी सहायता पर हैं उन्हें पांच साल की ग्रांट मिलती है और उसके बाद वे किसी प्रकार की सहायता के अधिकारी नहीं होते हैं चाहे उनके पास नौकरी न हो। अगर उन्हें काम दिया जाता है तो वह बहुत कम पगार वाला होता है। उदाहरण के लिए, किसी नौकरी में यदि एक नियमित कामगार को 15 या 20 डॉलर प्रति घंटा मिलता है तो एक सहायता प्राप्त व्यक्ति को पांच डॉलर मिलेगा। उसके पास दो ही रास्ते हैं : एक या तो सहायता को जाने दे या फिर कम वेतन वाली नौकरी स्वीकार कर ले, जो कि किसी भी सूरत में स्थायी नहीं है। अत: कामगारों के इन नियोक्ताओं के लिए कम वेतन लागतों के कारण अधिक मुनाफा कमाने में राज्य सहायक होगा। ऐसे समय में जब छंटनी और काम से निकाल देना सामान्य है, कामगार लोगों, खासकर महिलाओं को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। यह सच केवल शहरों का ही नहीं है बल्कि उससे भी अधिक यह खेत मजदूरों का है, जिसमें महिलाएं अधिक हैं।
     टमाटर चुनने वालों के एक सर्वे ने यह दरशाया कि आज जो भी पैसा ये कामगार महिलाएं पाती हैं वह उससे कम है जो वह आज से तीस साल पहले कमाती थीं। एक टोकरी टमाटर के लिए उन्हें 35 से 40 सेंट मिलते हैं जबकि तीन दशक पहले 45 सेंट मिलते थे। इसके साथ ही शिशु सदन (क्रेच) सेवाओं के न होने से भी महिला कामगारों के सामने मुश्किल पेश आती है। जो हैं भी तो वह बहुत महंगे हैं और अधिकतर कामगार महिलाओं के बजट से बाहर हैं। अमरीका ने समान वेतन विधेयक को पास करने से इनकार कर दिया है। अधिकांश नौकरियों में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले एक-तिहाई से एक-चौथाई कम पगार मिलती है।संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रमों के परिणामस्वरूप तीसरी दुनिया के देशों में महिलाओं के लिए परिस्थितियां और ज्यादा खराब हैं।(क्रमशः)
(भारतीय नारी संघर्ष और मुक्ति,वृंदा कारात,अनुवाद-उषा चौहान,ग्रंथ शिल्पी,नई दिल्ली,से साभार)


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